श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 430 भगति निराली अलाह दी जापै गुर वीचारि ॥ नानक नामु हिरदै वसै भै भगती नामि सवारि ॥९॥१४॥३६॥ पद्अर्थ: निराली = अनोखी। अलाह दी = परमात्मा की। वीचारि = विचार से। भै = अदब में। नामि = नाम में।9। अर्थ: गुरु के शब्द के विचार की इनायत से ये समझ आ जाती है कि परमात्मा की भक्ति अनोखी ही इनायत देने वाली है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु का नाम आ बसता है, प्रभु की भक्ति उसको प्रभु के डर-अदब में रख के प्रभु के नाम में जोड़े रख के उसके आत्मिक जीवन को सुंदर बना देती है।9।14।36। आसा महला ३ ॥ अन रस महि भोलाइआ बिनु नामै दुख पाइ ॥ सतिगुरु पुरखु न भेटिओ जि सची बूझ बुझाइ ॥१॥ पद्अर्थ: अन = अन्य। भोलाइआ = भूला हुआ, गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। भेटिओ = मिला। जि = जो। सची = सदा स्थिर हरि की भक्ति की। बूझ = समझ। बुझाइ = समझाता है।1। अर्थ: मनुष्य अन्य पदार्थों के स्वादों में फंस के गलत राह पर पड़ा रहता है, नाम से टूट के दुख सहता रहता है, उसे महापुरुख गुरु नहीं मिलता जो उसे सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की समझ दे।1। ए मन मेरे बावले हरि रसु चखि सादु पाइ ॥ अन रसि लागा तूं फिरहि बिरथा जनमु गवाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बावले = पागल! सादु = स्वाद। रसि = रस में। गवाइ = गवा के।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे पगले मन! परमात्मा के नाम का रस चख, परमात्मा के नाम का स्वाद ले। तू अपना जीवन व्यर्थ गवा-गवा के अन्य पदार्थों कें स्वाद में फंसा हुआ भटक रहा है।1। रहाउ। इसु जुग महि गुरमुख निरमले सचि नामि रहहि लिव लाइ ॥ विणु करमा किछु पाईऐ नही किआ करि कहिआ जाइ ॥२॥ पद्अर्थ: इसु जुग महि = मानव जनम में। निरमल = पवित्र। लिव = तवज्जो, ध्यान। लाइ = लगा के। करम = बख्शिश।2। अर्थ: (हे भाई!) दुनिया में वही मनुष्य पवित्र जीवन वाले होते हैं जो गुरु की शरण पड़े रहते हैं, उस सदा स्थिर हरि में तवज्जो जोड़ के उसके नाम में लीन रहते हैं। पर क्या कहा जाए? प्रभु की बख्शिश के बिना कुछ नहीं मिलता।2। आपु पछाणहि सबदि मरहि मनहु तजि विकार ॥ गुर सरणाई भजि पए बखसे बखसणहार ॥३॥ पद्अर्थ: आपु = आत्मिक जीवन। मरहि = अन रसों की ओर से निर्लिप हो जाते हैं। मनहु = मन में से।3। अर्थ: (जिनपे बख्शिश होती है वह) अपना जीवन खोजते हैं, गुरु शब्द के द्वारा मन में से विकार दूर कर के अन-रसों से निर्लिप हो जाते हैं। वे गुरु की शरण ही पड़े रहते हैं, बख्शिशें करने वाला बख्शिंद हरि उनपे बख्शिश करता है।3। बिनु नावै सुखु न पाईऐ ना दुखु विचहु जाइ ॥ इहु जगु माइआ मोहि विआपिआ दूजै भरमि भुलाइ ॥४॥ पद्अर्थ: विचहु = अंदर से। मोहि = मोह में। विआपिआ = फसा हुआ। भरमि = भटकना में। भुलाइ = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।4। अर्थ: (हे भाई!) हरि-नाम के बिना सुख नहीं मिलता, अंदर से दुख-कष्ट दूर नहीं होता। पर ये जगत माया के मोह में फसा रहता है (नाम भूल के) माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।4। दोहागणी पिर की सार न जाणही किआ करि करहि सीगारु ॥ अनदिनु सदा जलदीआ फिरहि सेजै रवै न भतारु ॥५॥ पद्अर्थ: दोहागणी = दुर्भाग्यपूर्ण जीव स्त्रीयां। सार = कद्र। जाणही = जानती। किआ करि = किस वास्ते?।5। अर्थ: (नाम-हीन जीव-स्त्रीयां ऐसे ही हैं जैसे) त्यागी हुई स्त्री अपने पति के मिलाप की कद्र नहीं जानतीं, व्यर्थ ही शारि रिक श्रृंगार करती हैं, हर वक्त सदा ही (अंदर-अंदर से) जलती फिरती हैं, पति कभी सेज पर आता ही नहीं।5। सोहागणी महलु पाइआ विचहु आपु गवाइ ॥ गुर सबदी सीगारीआ अपणे सहि लईआ मिलाइ ॥६॥ पद्अर्थ: महलु = हरि चरण निवास। आपु = स्वै भाव। सहि = सह ने, पति प्रभु ने।6। अर्थ: भाग्यशाली जीव-स्त्रीयां (अपने) अंदर से स्वै भाव दूर करके प्रभु पति के चरणों में जगह ढूँढ लेती हैं, गुरु के शब्द की इनायत से वे अपना जीवन सुंदर बनाती हैं, पति प्रभु ने उनको अपने साथ मिला लिया है।6। मरणा मनहु विसारिआ माइआ मोहु गुबारु ॥ मनमुख मरि मरि जमहि भी मरहि जम दरि होहि खुआरु ॥७॥ अर्थ: हे भाई! माया का मोह घोर अंधकार है (इसमें फंस के) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य मौत को मन से भुला देते हैं, आत्मिक मौत मर के पैदा होने-मरने के चक्कर में पड़े रहते हैं, जम के दरवाजे पर ख्वार होते हैं।7। आपि मिलाइअनु से मिले गुर सबदि वीचारि ॥ नानक नामि समाणे मुख उजले तितु सचै दरबारि ॥८॥२२॥१५॥३७॥ पद्अर्थ: मिलाइअनु = मिलाए हैं उसने। सबदि = शब्द के द्वारा। नामि = नाम में। मुख उजले = उज्जवल मुंह वाले। दरबारि = दरबार में। तितु = उस (दरबार) में। सचै = सदा स्थिर रहने वाले।8। अर्थ: जिनको परमात्मा ने स्वयं अपने चरणों में जोड़ लिया वे गुरु के शब्द के माध्यम से प्रभु के गुणों की विचार करके प्रभु-चरणों में लीन हो गए। हे नानक! जो मनुष्य हरि-नाम में रमे रहते हैं वह सदा-स्थिर परमात्मा के दरबार में सुर्खरूह हो जाते हैं।8।22।15।37।
अष्टपदियां महला १ -------- 22
आसा महला ५ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पंच मनाए पंच रुसाए ॥ पंच वसाए पंच गवाए ॥१॥ पद्अर्थ: पंच = सत, संतोख, दया, धर्म, धैर्य। पंच = काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार।1। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने ज्ञान की दाति दी उस मनुष्य ने अपने शरीर-नगर में सत-संतोष-दया-धर्म-धैर्य -ये) पाँचों प्रफुल्लित कर लिए, और कामादिक (विकार) पाँचों नाराज कर लिए। (सत्य-संतोष आदि) पाँचों (अपने शरीर रूपी नगर में) बसा लिए, और कामादिक पाँचों (नगर में से) निकाल बाहर किए।1। इन्ह बिधि नगरु वुठा मेरे भाई ॥ दुरतु गइआ गुरि गिआनु द्रिड़ाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: इन्ह बिधि = इस तरीके से। नगरु = शरीर शहर। वुठा = बसा, बस गया। दुरतु = पाप। गुरि = गुरु ने। गिआनु = आत्मिक जीवन की समझ। द्रिढ़ाई = पक्की कर दी, दृढ़ कर दी।1। रहाउ। अर्थ: गुरु ने (जिस मनुष्य को) आत्मिक जीवन की सूझ पक्की तरह से दे दी (उसके अंदर से) विकार-पाप दूर हो गए। और, हे मेरे भाई! इस तरह उस मनुष्य का शरीर-नगर बस गया।1। रहाउ। साच धरम की करि दीनी वारि ॥ फरहे मुहकम गुर गिआनु बीचारि ॥२॥ पद्अर्थ: साच धरम = सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की नित्य की कार। वारि = वाड़। फरहे = खिडकियां, ज्ञान-इंद्रिय। मुहकम = मजबूत। बीचारि = विचार के, सोच मण्डल में टिका के।2। अर्थ: (हे भाई! जिस गुरु ने ज्ञान बख्शा, उसने अपने शरीर नगरी की रक्षा के लिए) सदा-स्थिर प्रभु के नित्य की नाम जपने की वाड़ दे ली, गुरु के दिए ज्ञान को सोच-मण्डल में टिका के उसने अपनी खिडकियां (ज्ञान-इंद्रिय) पक्की कर लीं।2। नामु खेती बीजहु भाई मीत ॥ सउदा करहु गुरु सेवहु नीत ॥३॥ पद्अर्थ: खेती = शरीर पैली में। नीत = नित्य, सदा।3। अर्थ: हे मेरे मित्र! हे मेरे भाई! तुम भी सदा गुरु की शरण लो, शरीर-खेती में परमात्मा का नाम बीजा करो, शरीर नगर में परमात्मा के नाम का सौदा करते रहो।3। सांति सहज सुख के सभि हाट ॥ साह वापारी एकै थाट ॥४॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सभि हाट = सारी दुकानें, सारी ज्ञान-इंद्रिय। थाट = बनावट। एकै थाट = एक ही रूप में।4। अर्थ: हे भाई! जो (सिख-) वणजारे (गुरु-) शाह के साथ एक रूप हो जाते हैं उनकी सारे हाट (दुकानें, ज्ञान-इंद्रिय) शांति, आत्मिक अडोलता और आत्मिक आनंद के हाट बन जाते हैं।4। जेजीआ डंनु को लए न जगाति ॥ सतिगुरि करि दीनी धुर की छाप ॥५॥ पद्अर्थ: जेजीआ = वह टेक्स जो मुस्लिम हकूमत के समय गैर मुस्लिम भरते थे। जगाति = मसूल, चुंगी। सतिगुरि = गुरु ने। छाप = (टेक्स से) माफी की मोहर। धुर की = धुर दरगाह की, प्रभु दर से स्वीकार हुई।5। अर्थ: (हे भाई! जिन्हें गुरु ने ज्ञान की दाति दी उनके शरीर-नगर के वास्ते) गुरु के प्रभु-दर से स्वीकार हुई माफी की मोहर की मोहर बख्श दी, कोई (पाप-विकार उनके हरि-नाम के सौदे पर) जजीआ दण्ड महिसूल नहीं लगा सकता (कोई विकार उनके आत्मिक जीवन में कोई खराबी पैदा नहीं कर सकता)।5। वखरु नामु लदि खेप चलावहु ॥ लै लाहा गुरमुखि घरि आवहु ॥६॥ पद्अर्थ: वखरु = सौदा। लदि = लाद के। खेप = काफला। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहके। घरि = प्रभु के महल में।6। अर्थ: हे मेरे मित्र! हे मेरे भाई! गुरु की शरण पड़ के तुम भी हरि-नाम स्मरण का सौदा लाद के (आत्मिक जीवन का) व्यापार करो, (ऊँचे आत्मिक जीवन का) लाभ कमाओ और प्रभु के चरणों में ठिकाना प्राप्त करो।6। सतिगुरु साहु सिख वणजारे ॥ पूंजी नामु लेखा साचु सम्हारे ॥७॥ पद्अर्थ: साहु = शाहूकार। पूंजी = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। साचु = सदा स्थिर प्रभु। सम्हारे = सम्हारे, संभाले, हृदय में संभाल के रखता है।7। अर्थ: (हे भाई! नाम की संपत्ति गुरु के पास है) गुरु (ही इस सरमाए का) शाहूकार है (जिस से आत्मिक जीवन का) व्यापार करने वाले सिखहरि-नाम की संपत्ति हासिल करते हैं (जिस सिख को गुरु ने ज्ञान की दाति दी है वह) सदा-स्थिर प्रभु को अपने हृदय में संभाल के रखता है (यही है) लेखा-हिसाब (जो वह नाम-वणज में करता रहता है)।7। सो वसै इतु घरि जिसु गुरु पूरा सेव ॥ अबिचल नगरी नानक देव ॥८॥१॥ पद्अर्थ: इतु = इस में। घरि = घर में। इतु घरि = इस घर में। जिसु = जिस को। अबिचल = अटल, कभी ना डोलने वाली। देव = देव की, परमात्मा की।8। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) पूरा गुरु जिस मनुष्य को प्रभु की सेवा-भक्ति की दाति बख्शता है वह इस (ऐसे हृदय-) घर में बसता रहता है जो परमात्मा के रहने के लिए (विकारों में) कभी ना डोलने वाली नगरी बन जाता है।8।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |