श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसावरी महला ५ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मेरे मन हरि सिउ लागी प्रीति ॥ साधसंगि हरि हरि जपत निरमल साची रीति ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! संगि = संगति में। जपत = जपते हुए। रीति = मर्यादा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य की प्रीति परमात्मा के साथ बन जाती है, गुरु की संगति में परमात्मा का नाम जपते हुए उसकी रोजाना यही कार बन जाती है कि सदा स्थिर प्रभु का नाम जपता रहता है।1। रहाउ।

दरसन की पिआस घणी चितवत अनिक प्रकार ॥ करहु अनुग्रहु पारब्रहम हरि किरपा धारि मुरारि ॥१॥

पद्अर्थ: घणी = बहुत। चितवत = याद करते हुए। अनुग्रहु = कृपा। मुरारि = (मुर+अरि) हे प्रभु!।1।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे अनेक किस्म के गुणों को याद करते हुए (मेरे अंदर) तेरे दर्शनों की चाहत और भी प्रवीण हो गई है। हे पारब्रहम! हे मुरारी! मेहर कर, कृपा कर (दीदार बख्श)।1।

मनु परदेसी आइआ मिलिओ साध कै संगि ॥ जिसु वखर कउ चाहता सो पाइओ नामहि रंगि ॥२॥

पद्अर्थ: परदेसी = कई देशों (जूनियों) में भटकना। साध = गुरु। चाहता = चाहना। नामहि = नाम के प्यार में।2।

अर्थ: अनेक जूनियों में भटकता जब कोई मन गुरु की संगति में आ मिलता है जिस (उच्च आत्मिक जीवन के) सौदे को वह सदा तरसता आ रहा था वह उस को परमात्मा के नाम के प्यार में जुड़ा मिल जाता है।2।

जेते माइआ रंग रस बिनसि जाहि खिन माहि ॥ भगत रते तेरे नाम सिउ सुखु भुंचहि सभ ठाइ ॥३॥

पद्अर्थ: जेते = जितने भी। भुंचहि = खाते हैं, माणते हैं। सभ थाइ = हर जगह। ठाइ = जगह में। ठाउ = जगह।3।

अर्थ: माया के जितने भी करिश्में व स्वादिष्ट पदार्थ दिखाई दे रहे हैं ये एक छिन में नाश हो जाते हैं (इनमें प्रर्वित्त होने वाले आखिर में पछताते हैं, पर, हे प्रभु!) तेरे भक्त तेरे नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे हर जगह आनंद का रस लेते रहते हैं।3।

सभु जगु चलतउ पेखीऐ निहचलु हरि को नाउ ॥ करि मित्राई साध सिउ निहचलु पावहि ठाउ ॥४॥

पद्अर्थ: चलतउ = नाशवान। नाउ = नाम। को = का। पावहि = तू पा लेगा। (शब्द ‘ठाइ’ और ‘ठाउ’ में फर्क याद रखें)।4।

अर्थ: हे भाई! सारा संसार नाशवान दिख रहा है, सदा कायम रहने वाला सिर्फ एक परमात्मा का नाम ही है। गुरु से प्यार डाल (उससे ये हरि-नाम मिलेगा, और) तू वह ठिकाना पा लेगा जो कभी भी नाश होने वाला नहीं।4।

मीत साजन सुत बंधपा कोऊ होत न साथ ॥ एकु निवाहू राम नाम दीना का प्रभु नाथ ॥५॥

पद्अर्थ: बंधपा = रिश्तेदार। निवाहू = सदा निभाने वाला। दीना का = गरीबों का। नाथ = पति।5।

अर्थ: हे भाई! मित्र, सज्जन, पुत्र व रिश्तेदार - कोई भी सदा के साथी नहीं बन सकते। सदा साथ निभाने वाला सिर्फ उस परमात्मा का नाम ही है जो गरीबों का रक्षक है।5।

चरन कमल बोहिथ भए लगि सागरु तरिओ तेह ॥ भेटिओ पूरा सतिगुरू साचा प्रभ सिउ नेह ॥६॥

पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। तेह लगि = उस (चरणों से) लग के। नेह = प्यार।6।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के वास्ते गुरु के सुंदर कोमल चरण जहाज बन गए वह इन चरणों में जुड़ के संसार समुंदर से पार लांघ गया। जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल गया, उसका परमात्मा से सदा के लिए पक्का प्यार बन गया।6।

साध तेरे की जाचना विसरु न सासि गिरासि ॥ जो तुधु भावै सो भला तेरै भाणै कारज रासि ॥७॥

पद्अर्थ: साध = सेवक। जाचना = मांग। सासि गिरासि = हरे सांस से और ग्रास से। रासि = ठीक (हो जाता है)।7।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवक की (तेरे से सदा यही) मांग है कि सांस लेते रोटी खाते कभी भी ना विसर। जो कुछ तुझे अच्छा लगता है तेरे सेवक को भी वही अच्छा लगता है, तेरी रजा में चलने से तेरे सेवक के सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।7।

सुख सागर प्रीतम मिले उपजे महा अनंद ॥ कहु नानक सभ दुख मिटे प्रभ भेटे परमानंद ॥८॥१॥२॥

पद्अर्थ: सुख सागर = सुखों का समुंदर। भेटे = मिले। परमानंद = सब से श्रेष्ठ आनंद के मालिक।8।

अर्थ: हे नानक! कह: सुखों के समुंदर प्रीतम-प्रभु जी जिस मनुष्य को मिल जाते हैं उसके अंदर बड़ा आनंद पैदाहो जाता है, सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक प्रभु जी जिसे मिलते हैं उसके सारे दुख-कष्ट दूर हो जाते हैं।8।1।2।39।

नोट: ये अष्टपदी आसावरी रागिनी में गाई जाने वाली है, घर तीसरे में।

आसावरी की अष्टपदी महला ५ ----01
आसा की अष्टपदी महला ५ --------01
जोड़------------------------------------02
महला १ ------------------------------22
महला ३ -----------------------------15
कुल जोड़-----------------------------39

आसा महला ५ बिरहड़े घरु ४ छंता की जति    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

पारब्रहमु प्रभु सिमरीऐ पिआरे दरसन कउ बलि जाउ ॥१॥

पद्अर्थ: बल जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ।1।

अर्थ: हे प्यारे! सदा परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, मैं उस परमात्मा के दर्शन से सदके जाता हूँ।1।

जिसु सिमरत दुख बीसरहि पिआरे सो किउ तजणा जाइ ॥२॥

पद्अर्थ: बीसरहि = भूल जाते हैं। सो = उस (प्रभु) को।2।

अर्थ: हे प्यारे! जिस परमात्मा का स्मरण करने से सारे दुख भूल जाते हैं, उसे त्यागना नहीं चाहिए।2।

इहु तनु वेची संत पहि पिआरे प्रीतमु देइ मिलाइ ॥३॥

पद्अर्थ: वेची = मैं बेच दूँ। संत पहि = गुरु के पास। देइ मिलाइ = मिला देता है।3।

अर्थ: हे प्यारे! मैं तो अपना ये शरीर उस गुरु के पास बेचने को तैयार हूँ जो प्रीतम-प्रभु से मिला देता है।3।

सुख सीगार बिखिआ के फीके तजि छोडे मेरी माइ ॥४॥

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। माइ = हे माँ!।4।

अर्थ: हे मेरी माँ! मैंने माया के सुख माया के सुहज सभ त्याग दिए हैं (नाम-रस के मुकाबले में ये सारे) बेस्वादे हैं।4।

कामु क्रोधु लोभु तजि गए पिआरे सतिगुर चरनी पाइ ॥५॥

पद्अर्थ: पाइ = पड़ के।5।

अर्थ: हे प्यारे! जब से मैं गुरु के चरणों में जा लगा हूँ, काम, क्रोध, लोभ, मोह सारे मेरा पीछा छोड़ गए हैं।5।

जो जन राते राम सिउ पिआरे अनत न काहू जाइ ॥६॥

पद्अर्थ: अनत = अन्यत्र, किसी और जगह। जाइ = जांदा।6।

अर्थ: हे प्यारे! जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम रंग से रंगे जाते हैं (परमात्मा को छोड़ के उनमें से कोई भी) किसी और जगह नहीं जाता।6।

हरि रसु जिन्ही चाखिआ पिआरे त्रिपति रहे आघाइ ॥७॥

पद्अर्थ: रहे अघाइ = तृप्त रहते हैं।7।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम का स्वाद चख लेते हैं वह (मायावी पदार्थों से) तृप्त हो जाते हैं, अघा जाते हैं।7।

अंचलु गहिआ साध का नानक भै सागरु पारि पराइ ॥८॥१॥३॥

नोट: बिरहड़े = बिरह भरे। ये ‘बिरहड़े’ गिनती के 3 हैं, अष्टपदियों में ही गिने गए हैं। जति = चाल। इनकी चाल छंतों वाली है।

पद्अर्थ: अंचलु = पल्ला। गहिआ = पकड़ा। साध = गुरु। भै = भयानक। पारि पराइ = पार परै।8।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु का पल्ला पकड़ लिया वह इस भयानक संसार-समुंदर से पार लंघ जाता है।8।1।3।

जनम मरण दुखु कटीऐ पिआरे जब भेटै हरि राइ ॥१॥

पद्अर्थ: कटीऐ = काटा जाता है। हरि राइ = प्रभु पातशाह।1।

अर्थ: हे प्यारे! जब प्रभु-पातशाह मिल जाता है तब जनम-मरण के चक्कर का दुख काटा जाता है।1।

सुंदरु सुघरु सुजाणु प्रभु मेरा जीवनु दरसु दिखाइ ॥२॥

पद्अर्थ: सुघरु = सुघड़, सुंदर आत्मिक घाड़त वाला, कुशलता वाला। सुजाणु = सुजान। जीवनु = जिंदगी। दिखाइ = दिखाता है।2।

अर्थ: हे भाई! (मेरा) प्रभु (-पातशाह) सुंदर है कुशलता वाला है सियाना है, जब वह मुझे दीदार देता है तो मेरे अंदर जान पड़ जाती है (प्रभु का दीदार ही मेरी जिंदगी है)।2।

जो जीअ तुझ ते बीछुरे पिआरे जनमि मरहि बिखु खाइ ॥३॥

पद्अर्थ: जीअ = जीव। ते = से। बिखु = जहर। खाइ = खा के।3।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे प्यारे प्रभु! जो जीव तुझसे विछुड़ जाते हैं वे (माया के मोह का) जहर खा के मानव जनम में आए हुए भी आत्मिक मौत मर जाते हैं।3।

जिसु तूं मेलहि सो मिलै पिआरे तिस कै लागउ पाइ ॥४॥

पद्अर्थ: तिस कै पाइ = उसके पैरों सदके। लागउ = मैं लगता हूँ।4।

अर्थ: (पर) हे प्यारे जीव! (जीवों के भी क्या वश?) जिस जीव को तू स्वयं (अपने साथ) मिलाता है वही तुझे मिलता है। मैं उस (भाग्यशाली) के चरणों में लगता है।4।

जो सुखु दरसनु पेखते पिआरे मुख ते कहणु न जाइ ॥५॥

पद्अर्थ: पेखते = देखते हुए। मुख ते = मुंह से।5।

अर्थ: हे प्यारे (प्रभु)! तेरे दर्शन करके जो आनंद (अनुभव होता है) वह मुंह से बयान नहीं किया जा सकता।5।

साची प्रीति न तुटई पिआरे जुगु जुगु रही समाइ ॥६॥

पद्अर्थ: तुटई = टूटती, टूटे। जुगु जुगु = हरेक युग में, सदा के लिए।6।

अर्थ: हे प्यारे! जिसने सदा-स्थिर प्रभु के साथ पक्का प्यार डाल लिया, उसका वह प्यार कभी टूट नहीं सकता, वह प्यार तो युगों-युगों तक उसके हृदय में टिका रहता है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh