श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 435 ससै संजमु गइओ मूड़े एकु दानु तुधु कुथाइ लइआ ॥ साई पुत्री जजमान की सा तेरी एतु धानि खाधै तेरा जनमु गइआ ॥६॥ पद्अर्थ: संजमु = इन्द्रियों को गलत तरफ जाने से रोकना, बंधन, जीवन जुगति। कुथाइ = गलत जगह पे। जजमान = परोहित से यज्ञ करवाने वाला। पुत्री = बेटी। एतु = इसके द्वारा। धानु = अंन्न। धानि = धान के द्वारा। एतु धानि = इस अन्न से। एतु धानि खाधै = इस खाए अन्न के द्वारा।6। अर्थ: (अपने आप को पण्डित समझने वाले) हे मूख! (निरी माया की खातिर पड़ने-पढ़ाने के कारण लालच-वश हो के) तू जीवन-जुगति भी गवा बैठा है। परोहित होने के कारण तू अपने जजमान से हर दिन-दिहाड़े के दान लेता है, (पर) एक दान तू अपने जजमान से गलत जगह पर लेता है। जजमान की बेटी तेरी ही बेटी है (बेटी के विवाह पर जजमान से दान लेना बेटी का पैसा खाना है)। ये अन्न खाने से (ये पैसा खाने से) तू अपना आत्मिक जीवन गवा लेता है।6। ममै मति हिरि लई तेरी मूड़े हउमै वडा रोगु पइआ ॥ अंतर आतमै ब्रहमु न चीन्हिआ माइआ का मुहताजु भइआ ॥७॥ पद्अर्थ: हिरि लई = छीन ली, मार दी। चीन्हिआ = पहचाना। अंतर आतमै = अपनी अंरात्मा में। ब्रहमु = परमात्मा। मुहताजु = जरूरतमंद, पराधीन।7। अर्थ: हे मूर्ख! (एक तरफ माया के लालच ने) तेरी लालच मारी हुई है (तुझे ‘कुथाय दान’-गलत जगह से दान लेने में भी संकोच नहीं है। दूसरी तरफ) तुझे ये बड़ा आत्मिक रोग चिपका हुआ है कि मैं (विद्वान) हूँ, मैं (विद्वान) हूँ। तू अपने अंदर (बसते) परमात्मा को पहचान नहीं सका, (इस वास्ते तेरा स्वै) माया (के लालच) के अधीन है।7। ककै कामि क्रोधि भरमिओहु मूड़े ममता लागे तुधु हरि विसरिआ ॥ पड़हि गुणहि तूं बहुतु पुकारहि विणु बूझे तूं डूबि मुआ ॥८॥ पद्अर्थ: कामि = काम-वासना में। क्रोधि = क्रोध में। भरमिओहु = तू भटक रहा है, तू गलत राह पर पड़ा हुआ है। ममता = (ये चीज) मेरी (बन जाए) (की प्रबल वासना), लालच। पढ़हि = तू पढ़ता है। गुणहि = तू विचारता है। पुकारहि = तू ऊँचा ऊँचा (और लोगों को) सुनाता है। डूबि = (लालच की बाढ़ में) डूब के। मुआ = आत्मिक मौत सहेड़ चुका है।8। अर्थ: हेमूर्ख! (और लोगों को समझाता) तू स्वयं काम-वासना में, क्रोध में (फंस के) गलत राह पर पड़ा हुआ है। तू (धर्म-पुस्तकें) पढ़ता है, अर्थ विचारता है, और-और लोगों को सुनाता भी है, पर (सही जीवन-राह) समझे बिना तू (लालच की बाढ़ में) डूब के आत्मिक मौत मर चुका है।8। ततै तामसि जलिओहु मूड़े थथै थान भरिसटु होआ ॥ घघै घरि घरि फिरहि तूं मूड़े ददै दानु न तुधु लइआ ॥९॥ पद्अर्थ: तामसि = क्रोध से। जलिओहु = तू जला हुआ है। थानु = हृदय स्थान। भरिसटु = गंदा। घरि घरि = हरेक (जजमान के) घर में।9। अर्थ: हेमूर्ख (पण्डित!) तू (अंदर से) क्रोध से जला हुआ है, तेरा हृदय-स्थल (लालच से) गंदा हुआ पड़ा है। हे मूर्ख! तू हरेक (जजमान के) घर में (मायावी दक्षिणा के लिए तो) चलता फिरता है, पर प्रभु के नाम की दक्षिणा तूने अभी तक किसी से नहीं ली।9। पपै पारि न पवही मूड़े परपंचि तूं पलचि रहिआ ॥ सचै आपि खुआइओहु मूड़े इहु सिरि तेरै लेखु पइआ ॥१०॥ पद्अर्थ: परपंचि = परपंच में, माया के पसारे में। पलचि रहिआ = तू फस रहा है, उलझ रहा है। सचै = सच्चे प्रभु ने। खुआइओहु = तुझे गलत रास्ते पर डाल दिया है। सिरि तेरै = तेरे सिर पर, तेरे माथे पे।10। अर्थ: हे मूर्ख! तू संसार (के मोह जाल) में (इतना) उलझ रहा है कि इस में से परले पासे नहीं पहुँच सकता। हे मूर्ख! (तेरे अपने किए कर्मों के अनुसार) कर्तार ने तुझे (उसे) गलत राह पर डाल दिया है (जिधर तेरी रुची बनी हुई है, और) उनके किए कर्मों के संस्कारों के संचय का लेख तेरे माथे पे (इतना) करा पड़ा है (कि तुझे सही रास्ते की समझ नहीं रहती, पर तू और लोगों को सलाहें देता फिरता है)।10। भभै भवजलि डुबोहु मूड़े माइआ विचि गलतानु भइआ ॥ गुर परसादी एको जाणै एक घड़ी महि पारि पइआ ॥११॥ पद्अर्थ: भवजलि = संसार समुंदर में। गलतानु = इतना मस्त कि और कुछ सूझता ही नहीं। परसादी = कृपा से। एको = एक परमात्मा को ही। जाणै = जो मनुष्य जानता है।11। अर्थ: हे मूर्ख! तू माया (के मोह) में इतना मस्त है कि तुझे और कुछ सूझता ही नहीं, तू संसार समुंदर (की मोह की लहरों) में गोते खा रहा है (अपने बचाव के लिए तू कोई उद्यम नहीं करता)। (गुरु की शरण पड़ कर) गुरु की कृपा से जो मनुष्य परमात्मा से सांझ डालता है, वह इस संसार समुंदर से एक पल में पार लांघ जाता है।11। ववै वारी आईआ मूड़े वासुदेउ तुधु वीसरिआ ॥ एह वेला न लहसहि मूड़े फिरि तूं जम कै वसि पइआ ॥१२॥ पद्अर्थ: वारी = मानव जनम की बारी जिसमें परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता था। वासदेउ = परमात्मा। न लहसहि = तू ढूँढ नहीं सकेगा। वसि = काबू में।12। अर्थ: हेमूर्ख! (सौभाग्य से) मानव जन्म (मिलने) की बारी आई थी, पर (इस अमोलक जनम में भी) तुझे परमात्मा भूला ही रहा। हे मूर्ख! (अगर भटकता ही रहा तो) ये समय दुबारा नहीं मिलेगा (और माया के मोह में फसा रह के) तू जम के वश में पड़ जाएगा (जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाएगा)।12। झझै कदे न झूरहि मूड़े सतिगुर का उपदेसु सुणि तूं विखा ॥ सतिगुर बाझहु गुरु नही कोई निगुरे का है नाउ बुरा ॥१३॥ पद्अर्थ: न झूरहि = नही झूरेगा, अंदर से चिन्ता में, सिसकियों में नहीं डूबेगा। विखा = देख ले। निगुरा = जिसने गुरु का आसरा नहीं लिया।13। अर्थ: हे मूर्ख! तू पूरे गुरु का उपदेश धारण करके देख ले, (माया आदि की खातिर) तुझे कभी झुरना नहीं पड़ेगा (क्योंकि माया-मोह का जाल टूट जाएगा) पर अगर पूरे गुरु की शरण नहीं पड़ेगा तो कोई (रस्मी) गुरु (इन चिंताओं से सिसकियों से बचा) नहीं (सकता)। जो मनुष्य पूरे गुरु के बताए रास्ते पर नहीं चलता, (गलत रास्ते पर पड़ने के कारण) वह बदनामी ही कमाता है।13। धधै धावत वरजि रखु मूड़े अंतरि तेरै निधानु पइआ ॥ गुरमुखि होवहि ता हरि रसु पीवहि जुगा जुगंतरि खाहि पइआ ॥१४॥ पद्अर्थ: वरजि रखु = रोक के रख। धावत = भटकते को। तेरै अंतरि = तेरे अंदर। निधानु = खजाना (सुखों का)। गुरमुखि होवहि = अगर तू गुरु के सन्मुख रहे। जुगा जुगंतरि = जुगों जुग अंतर, अनेक युगों तक, सदा के लिए। खाहि पइआ = पड़ा खाएगा, खाता रहेगा।14। अर्थ: हेमूर्ख! आत्मिक सुख का खजाना परमात्मा तेरे अंदर बस रहा है (पर, तू सुख की तलाश में बाहर भटकता फिरता है) बाहर भटकते मन को रोक के रख। अगर तू गुरु के बताए रास्ते पर चले तो (अंदर बसते) परमात्मा के नाम का रस पीएगा, सदा के लिए ये नाम रस बरसता रहेगा (कभी खत्म नहीं होगा)।14। गगै गोबिदु चिति करि मूड़े गली किनै न पाइआ ॥ गुर के चरन हिरदै वसाइ मूड़े पिछले गुनह सभ बखसि लइआ ॥१५॥ पद्अर्थ: गुनह = पाप।15। अर्थ: हे मूर्ख! परमात्मा (के नाम) को अपने चित्त में बसा ले (तभी उससे मिलाप होगा), सिर्फ बातों से किसी ने प्रभु को नहीं पाया। हे मूर्ख! गुरु के चरण हृदय में टिकाए रख, पिछले किए हुए सारे पाप बख्शे जाएंगे।15। हाहै हरि कथा बूझु तूं मूड़े ता सदा सुखु होई ॥ मनमुखि पड़हि तेता दुखु लागै विणु सतिगुर मुकति न होई ॥१६॥ पद्अर्थ: बूझु = समझ, विधि सीख। कथा = महिमा। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। तेता = उतना ही। मुकति = खलासी।16। अर्थ: हे मूर्ख! अगर तू परमात्मा की महिमा करनी सीख ले तो तुझे सदा आत्मिक आनंद मिला रहे। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे जितना ही (प्रभु की महिमा से टूट के माया संबंधी और ही लेखे) पढ़ते रहते हैं, उतनी ही ज्यादा अशांति कमाते हैं, और गुरु की शरण के बिना (इस अशांति से) खलासी नहीं मिलती।16। रारै रामु चिति करि मूड़े हिरदै जिन्ह कै रवि रहिआ ॥ गुर परसादी जिन्ही रामु पछाता निरगुण रामु तिन्ही बूझि लहिआ ॥१७॥ पद्अर्थ: चिति करि = चित्त में बसा ले। हिरदै = हृदय में। रवि रहिआ = सदा याद है, सदा मौजूद है। पछाता = पहचान लिया, गहरी सांझ डाल ली। बूझि = समझ के। निरगुण = माया के प्रभाव से निर्लिप। लहिआ = ढूँढ लिया। परसादी = कृपा से।17। अर्थ: हे मूर्ख! परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रख। जिस लोगों के दिल में परमात्मा सदा बसता रहता है (जिन्हें प्रभु सदा याद है, उनकी संगति में रह के) गुरु की कृपा से जिस (और) लोगों ने परमात्मा के साथ सांझ डाली, उन्होंने माया से निर्लिप प्रभु (की अस्लियत) समझ के उस से मिलाप प्राप्त कर लिया।17। तेरा अंतु न जाई लखिआ अकथु न जाई हरि कथिआ ॥ नानक जिन्ह कउ सतिगुरु मिलिआ तिन्ह का लेखा निबड़िआ ॥१८॥१॥२॥ पद्अर्थ: अकथु = जो बयान से बाहर है। लेखा = किए बुरे कर्मों का हिसाब। निबड़िआ = खत्म हो जाता है।18। (नोट: किसी शाहूकार से कर्जा उठा लें, ज्यों-ज्यों समय गुजरता है, उस कर्जे पर ब्याज पड़-पड़ के शाहूकार की रकम बढ़ती जाती है। किसी किए विकार के कारण मन में टिके हुए बुरे संस्कार विकारों की ओर, और ज्यादा प्रेरित करते हैं। उस प्रेरणा से और विकार किए जाते हैं इस तरह विकारों का ये सिलसिला जारी रहता है, और विकारों का लेखा बढ़ता चला जाता है)। अर्थ: हे प्रभु! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। परमात्मा का स्वरूप बयान से परे है, बयान नहीं किया जा सकता। हे नानक! जिन्हें सतिगुरु मिल जाए (वह निरी माया के लेखे लिखने-पढ़ने की जगह परमात्मा की महिमा करने लग पड़ते हैं, इस तरह) उनके अंदर से माया के मोह के संस्कारों का हिसाब समाप्त हो जाता है।18।1।2। नोट: अंक 1 का भाव है ये 18 बंदों वाली सारी एक ही वाणी है जिसका शीर्षक है ‘पट्टी’। अंक 2 का भाव ये है कि ‘पट्टी’ नाम की ये ‘दो’ बाणियां हैं। पहली ‘पट्टी’ महले पहले की, और दूसरी ‘पट्टी’ महले तीसरे की। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |