श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 436 रागु आसा महला १ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मुंध जोबनि बालड़ीए मेरा पिरु रलीआला राम ॥ धन पिर नेहु घणा रसि प्रीति दइआला राम ॥ धन पिरहि मेला होइ सुआमी आपि प्रभु किरपा करे ॥ सेजा सुहावी संगि पिर कै सात सर अम्रित भरे ॥ करि दइआ मइआ दइआल साचे सबदि मिलि गुण गावओ ॥ नानका हरि वरु देखि बिगसी मुंध मनि ओमाहओ ॥१॥ पद्अर्थ: मुंध = मुग्धा, उत्साह भरी नवयुवती जिसे अभी अपने जोबन का ज्ञान ना हो। जोबनि = जवानी में। बालड़ी = अंजान स्त्री। रलीआला = रलीया+आलय, आनंद का श्रोत। धन = जीव-स्त्री। रसि = रस में, चाव से। पिरहि = पर का। सेजा = हृदय सेज। सात सर = सात सरोवर (पाँच ज्ञान-इंद्रिय, मन और सातवीं बुद्धि)। मइआ = मया, दया। सबदि = शब्द में। मिलि = मिल के। गावउ = मैं गाऊँ। वरु = पति। मनि = मन में।1। अर्थ: हे जोबन में मतवाली हुई अंजान युवती! (अपने पति प्रभु को हृदय में बसा ले) प्यारा प्रभु ही आनंद का श्रोत है। जिस जीव-स्त्री से प्रभु-पति का ज्यादा प्रेम होता है वह बड़े चाव से दयालु प्रभु को प्यार करती है। प्रभु स्वामी स्वयं कृपा करते हैं तब ही जीव-स्त्री का प्रभु-पति से मिलाप होता है। पति प्रभु की संगति में उसकी हृदय-सेज सुंदर बन जाती है, उसके पाँचों ज्ञानेद्रियां, उसका मन और उसकी बुद्धि ये सारे नाम-अमृत से भरपूर हो जाते हैं। हे सदा-स्थिर रहने वाले दयालु प्रभु! मेरे पर मेहर कर, कृपा कर, मैं गुरु के शब्द में जुड़ के तेरे गुण गाऊँ। हे नानक! जिस जीव-स्त्री के मन में प्रभु-पति के मिलाप का चाव पैदा होता है वह हरि पति का दीदार करके (अंतरात्मा में) प्रसन्न होती है।1। मुंध सहजि सलोनड़ीए इक प्रेम बिनंती राम ॥ मै मनि तनि हरि भावै प्रभ संगमि राती राम ॥ प्रभ प्रेमि राती हरि बिनंती नामि हरि कै सुखि वसै ॥ तउ गुण पछाणहि ता प्रभु जाणहि गुणह वसि अवगण नसै ॥ तुधु बाझु इकु तिलु रहि न साका कहणि सुनणि न धीजए ॥ नानका प्रिउ प्रिउ करि पुकारे रसन रसि मनु भीजए ॥२॥ पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में टिकी हुई। सलोनड़ी = सुंदर नैनों (लोइण) वाली। संगमि = संगम में, मेल में। प्रेमि = प्रेम में। सुखि = सुख में। तउ = तेरे। धीजए = धैर्य पकड़ता है। प्रिउ = प्यारा। रसन = जीभ। भीजए = भीगे, भीगता है।2। अर्थ: हे आत्मिक अडोलता में टिकी सुंदर नेंत्रों वाली जीव-स्त्री! मेरी एक प्यार भरी विनती सुन। (मुझे भी रास्ता दिखा ता कि) मुझे भक्ति में प्रभु प्यारा लगे और मैं प्रभु के साथ घुल मिल जाऊँ। जो जीव-स्त्री प्रभु के प्यार में रंगी रहती है और उसके दर पर विनतियां करती रहती है उस प्रभु के नाम में जुड़ के आत्मिक आनंद में जीवन व्यतीत करती है। हे प्रभु! जो जीव-स्त्रीयां जब तेरे गुण पहचानती हैं तब वे तेरे साथ गहरी जान-पहचान डाल लेती हैं, उनके हृदय में गुण आ टिकते हैं और अवगुण उनके अंदर से दूर हो जाते हैं। हे प्रभु! मैं तेरे बिना एक तिल जितना समय भी जी नहीं सकती (मेरी जीवात्मा व्याकुल हो उठती है)। (तेरे नाम के बिना कुछ और) कहने या सुनने से मेरे मन को धीरज नहीं आता। हे नानक! जो जीव-स्त्री प्रभु को ‘हे प्यारे! हे प्यारे!! ’ कह कह के याद करती रहती है उसकी जीभ उसका मन परमात्मा के नाम-रस में भीग जाता है।2। सखीहो सहेलड़ीहो मेरा पिरु वणजारा राम ॥ हरि नामुो वणंजड़िआ रसि मोलि अपारा राम ॥ मोलि अमोलो सच घरि ढोलो प्रभ भावै ता मुंध भली ॥ इकि संगि हरि कै करहि रलीआ हउ पुकारी दरि खली ॥ करण कारण समरथ स्रीधर आपि कारजु सारए ॥ नानक नदरी धन सोहागणि सबदु अभ साधारए ॥३॥ पद्अर्थ: वणजारा = व्यापारी। नामुो = (असल शब्द ‘नामु’ है यहाँ ‘नामो’ पढ़ना है)। वणंजड़िआ = व्यापार किया, खरीदा। अपारा = बेअंत। मोलि = मूल्य में। ढोले = प्यारा। इकि = कई (जीव स्त्रीयां)। हउ = मैं। दरि = दर पर। स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी का आसरा प्रभु। सारए = सारै, संभालता है, संवारता है। अभ = हृदय। साधारए = सहारा देता है।3। अर्थ: हे (सत्संगी) सहेलियो! परमात्मा प्रेम का व्यापारी है। जिसने उसका नाम विहाजा है वह उसके नाम-रस में भीग के इतने ऊँचे आत्मिक जीवन वाली हो जाती है कि वह अमूल्य हो जाती है। वह जीव-सखी बहुमूल्य हो जाती है, प्यारे प्रभु के सदा-स्थिर चरणों में वह जुड़ी रहती है। वही जीव-स्त्री ठीक समझो जो पति-प्रभु को प्यारी लगती है। अनेक ही हैं जो प्रभु की याद में जुड़ के आत्मिक आनंद पाती हैं, मैं उनके दर पे खड़े हो के विनती करती हूँ (कि मेरी सहायता करो मैं भी प्रभु को याद कर सकूँ)। हे नानक! जिस जीव-स्त्री पे प्रभु की मेहर की निगाह होती है वह भाग्यशाली है, गुरु का शब्द उसके हृदय को सहारा दिए रखता है; वह परमात्मा जो सारे जगत का मूल है जो सब कुछ करने योग्य है जो माया का पति है उस जीव-स्त्री के मानव जनम के उद्देश्य को सफल करता है।3। हम घरि साचा सोहिलड़ा प्रभ आइअड़े मीता राम ॥ रावे रंगि रातड़िआ मनु लीअड़ा दीता राम ॥ आपणा मनु दीआ हरि वरु लीआ जिउ भावै तिउ रावए ॥ तनु मनु पिर आगै सबदि सभागै घरि अम्रित फलु पावए ॥ बुधि पाठि न पाईऐ बहु चतुराईऐ भाइ मिलै मनि भाणे ॥ नानक ठाकुर मीत हमारे हम नाही लोकाणे ॥४॥१॥ पद्अर्थ: घरि = हृदय घर में। सोहिलड़ा = खुशी का गीत। आइअड़े = आ गए हैं। लीअड़ा = (प्रभु का नाम) खरीदा है। रावए = प्यार करता है। सभागै घरि = भाग्यशाली हृदय घर में। पाठि = पाठ से। भाइ = प्रेम से। लोकाणे = लोगों के।4। अर्थ: हे सहेलियो! मेरे हृदय-घर में, जैसे, अटल खुशियों भरा गीत गाया जा रहा है, क्योंकि मित्र प्रभु मेरे अंदर आ बसा है। वह प्रभु उन जीवों को मिल जाता है जो उसके प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, वह अपना मन उसके हवाले करते हैं और वह नाम हासिल करते हैं। जो जीव-स्त्री अपना मन प्रभु-पति के हवाले करती है वह प्रभु-पति का मिलाप हासिल कर लेती है फिर अपनी रजा के अनुसार प्रभु उस जीव-स्त्री के साथ मिला रहता है। जो जीवात्मा-वधू गुरु के शब्द में जुड़ के अपना मन अपना हृदय प्रभु-पति को भेट करती है वह अपने भाग्यों वाले हृदय-घर में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल पा लेती है। प्रभु किसी समझदारी से किसी बुद्धिमानी से किसी (धार्मिक पुस्तकों के) पाठ से नहीं मिलता, वह तो प्रेम से ही मिलता है, उसे मिलता है जिसके मन में वह प्यारा लगता है। हे नानक! (कह:) हे मेरे ठाकुर! हे मेरे मित्र! (मेहर कर मुझे अपना बनाए रख) मैं (तेरे बिना) किसी और का ना बनूँ।4।1। आसा महला १ ॥ अनहदो अनहदु वाजै रुण झुणकारे राम ॥ मेरा मनो मेरा मनु राता लाल पिआरे राम ॥ अनदिनु राता मनु बैरागी सुंन मंडलि घरु पाइआ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु पिआरा सतिगुरि अलखु लखाइआ ॥ आसणि बैसणि थिरु नाराइणु तितु मनु राता वीचारे ॥ नानक नामि रते बैरागी अनहद रुण झुणकारे ॥१॥ पद्अर्थ: अनहदु = एकरस, मतवातर। वाजै = (बाजा) बजता है। रुण झुणकार = घुँघरूओं की झांझरों की छन छन। राता = रति हुआ, मस्त। अनदिनु = हर रोज। बैरागी = वैरागवान, प्रेमी, मतवाला। मंडलि = मंडल में। सुंन मंडलि = उस मंडल में जहाँ (मायावी फुरनों से) सुंन्न है। घरु = ठिकाना। अपरंपरु = परे से परे, जिससे परे और कोई नहीं। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अलखु = अदृश्य प्रभु। आसणि = आसन पर। बैसणि = बैठने वाली जगह पर। थिरु = सदा वास्ते कायम। तितु = उस (प्रभु) में। वीचारे = (गुरु की शब्द की) विचार से। नामि = नाम में।1। अर्थ: मेरा मन प्यारे प्रभु (के प्रेम रंग) में रंगा गया है, अब मेरे अंदर (जैसे) घुँघरूओं-झांझरों की झनकार देने वाला (बाजा) एक रस बज रहा है। मेरा मन हर समय (प्रभु की याद में) मतवाला रहता है, मस्त रहता है, मैंने अब ऐसे ऊँचे मण्डल में ठिकाना पा लिया है जहाँ कोई मायावी फुरना नहीं उठता। सतिगुरु ने मुझे वह अदृश्य प्रभु दिखा दिया है जो सबका आदि है और सब में व्यापक है जो सब का प्यारा है और जिससे परे और कोई हस्ती नहीं। मेरा मन गुरु के शब्द के विचार की इनायत सेउस नारायण में मस्त रहता है जो अपने आसन पर अपने तख़्त पर सदा अडोल रहता है। हे नानक! जिस लोगों के मन प्रभु के नाम में रंगे जाते हैं (प्रभु-नाम के) मतवाले हो जाते हैं, उनके अंदर, (जैसे) झांझर-घुंघरू की झनकार देने वाला (बाजा) एक-रस बजता है।1। तितु अगम तितु अगम पुरे कहु कितु बिधि जाईऐ राम ॥ सचु संजमो सारि गुणा गुर सबदु कमाईऐ राम ॥ सचु सबदु कमाईऐ निज घरि जाईऐ पाईऐ गुणी निधाना ॥ तितु साखा मूलु पतु नही डाली सिरि सभना परधाना ॥ जपु तपु करि करि संजम थाकी हठि निग्रहि नही पाईऐ ॥ नानक सहजि मिले जगजीवन सतिगुर बूझ बुझाईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: तितु = उस में। अगमपुरे = अगम्य (पहुँच से परे) नगर में। कहु = बताओ। कितु बिधि = किस तरीके से। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम (स्मरण करके)। संजमो = इन्द्रियों को (स्मरण से) विकारों से हटा के। सारि = संभाल के। निज घरि = अपने घर में। गुणी निधाना = गुणों का खजाना परमात्मा। तितु = उस (प्रभु-वृक्ष) में टिक के, उस प्रभु-वृक्ष का आसरा ले के। सिरि = सिर पर। हठि = हठ से। निग्रहि = इन्द्रियों को रोकने से। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिकने से)। जगजीवन = जगत के आसरे प्रभु जी। बूझ = सूझ, समझ।2। अर्थ: (हे सहेलिए!) बता, उस अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा के शहर में किस ढंग से जाते हैं? (सहेली उत्तर देती है: हे बहिन! उस शहर में पहुँचने के लिए) सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करके, (नाम जपने की इनायत से) इन्द्रियों को विकारों की ओर से रोक के, प्रभु के गुण (हृदय में) संभाल के सतिगुरु का शब्द कमाना चाहिए (भाव, गुरु के शब्द के अनुसार जीवन बनाना चाहिए)। सदा-स्थिर प्रभु से मिलाने वाला गुर-शब्द कमाने से अपने घर में (स्वै-स्वरूप में) पहुँच जाते हैं, और गुणों का खजाना परमात्मा मिल जाता है। उस प्रभु का आसरा ले के उसकी टहनियां-डालियां-जड़-पत्तियां (आदि, भाव, उसके रचे हुए जगत) का आसरा लेने की जरूरत नहीं रहती (क्योंकि) वह परमात्मा सबक सिर पर प्रधान है। ये दुनिया जप करके तप साधु के इन्द्रियों को रोकने का यत्न करके हार गई है, (इस किस्म के) हठ से इन्द्रियों को वश में करने के प्रयत्न करने से परमात्मा नहीं मिलता। हे नानक! वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के जगत के आसरे प्रभु को मिल जाते हैं जिन्हें सतिगुरु की (दी हुई) मति ने (सही जीवन-राह) समझा दी है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |