श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 437 गुरु सागरो रतनागरु तितु रतन घणेरे राम ॥ करि मजनो सपत सरे मन निरमल मेरे राम ॥ निरमल जलि न्हाए जा प्रभ भाए पंच मिले वीचारे ॥ कामु करोधु कपटु बिखिआ तजि सचु नामु उरि धारे ॥ हउमै लोभ लहरि लब थाके पाए दीन दइआला ॥ नानक गुर समानि तीरथु नही कोई साचे गुर गोपाला ॥३॥ पद्अर्थ: सागरो = समुंदर। रतनागरु = (रत्न+आकर) रत्नों की खान। तितु = उस (सागर) में। घणेरे = बहुत। मजनो = स्नान। सपत सरे = पाँच ज्ञान-इंद्रिय व मन और बुद्धि। जलि = जल में। नाए = स्नान करता है। जा = जब। प्रभू भाए = प्रभु को पसंद आता है। पंच = सत, संतोख, दया, धर्म, धीरज (ये पाँचों)। वीचारे = गुर शब्द की विचार से। बिखिआ = माया। तजि = त्याग के। उरि = हृदय में। समानि = जैसा, बराबर का।3। अर्थ: गुरु (एक) समुन्द्र है, गुरु रत्नों की खान है, उसमें (सु-जीवन शिक्षा के) अनेक रत्न हैं। (हे सहेली! उसमें) पाँचों ज्ञानेंद्रियों को मन और बुद्धि समेत स्नान करा, तेरा मन पवित्र हो जाएगा। जीव (गुरु शब्द रूप) पवित्र जल में तब ही स्नान कर सकता है जब प्रभु को अच्छा लगता है, (गुरु के शब्द की) विचार की इनायत से इसे (सत-संतोख-दया-धर्म और धैर्य) पाँचों ही प्राप्त हो जाते हैं, और काम-क्रोध खोट (माया का मोह आदि) त्याग के जीव सदा-स्थिर प्रभु नाम को अपने हृदय में बसा लेता है। जो मनुष्य दीनों पे दया करने वाले परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, उसके अंदर से अहंकार, लोभ की लहर, और लालच (आदि) समाप्त हो जाते हैं। हे नानक! गुरु सदा-स्थिर प्रभु गोपाल का रूप है, गुरु जैसा और कोई तीर्थ नहीं है।3। हउ बनु बनो देखि रही त्रिणु देखि सबाइआ राम ॥ त्रिभवणो तुझहि कीआ सभु जगतु सबाइआ राम ॥ तेरा सभु कीआ तूं थिरु थीआ तुधु समानि को नाही ॥ तूं दाता सभ जाचिक तेरे तुधु बिनु किसु सालाही ॥ अणमंगिआ दानु दीजै दाते तेरी भगति भरे भंडारा ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई नानकु कहै वीचारा ॥४॥२॥ पद्अर्थ: बन बनो = हरेक जंगल। देखि रही = देख चुकी हूँ। त्रिणु = घास, बनस्पति। सबाइआ = सारी। त्रिभवणो = तीनों भवनों वाला जगत। जाचिक = भिखारी। सालाही = मैं सालाहूँ। दीजै = देता है। दाते = हे दातार! वीचारा = विचार की बात।4। अर्थ: हे प्रभु! मैं हरेक जंगल देख चुकी हूँ, सारी बनस्पति को ताक चुकी हूँ (मुझे यकीन आ गया है कि) ये सारा जगत तूने ही पैदा किया है, ये तीनों भवन तेरे ही बनाए हुए हैं। सारा संसार तेरा ही बनाया हुआ है, (भले ही ये संसार तो नाशवान है, पर) तू सदा कायम रहने वाला है, तेरे बराबर का और कोई नहीं है। सारे जीव तेरे (दर पे) भिखारी हैं, तू सबको दातें देने वाला है (दुनियां के पदार्थों के वास्ते) मैं तेरे बिना और किस की महिमा करूँ? हे दातार! तू तो (जीवों के) माँगे बिना ही बख्शिशें किए जाता है (मुझे अपनी भक्ति की दाति दे) भक्ति की दाति से तेरे खजाने भरे पड़े हैं। नानक ये विचार की बात बताता है कि परमात्मा के नाम के बिना (लब-लोभ-काम-क्रोध आदि विकारों से) निजात नहीं मिल सकती।4।2। आसा महला १ ॥ मेरा मनो मेरा मनु राता राम पिआरे राम ॥ सचु साहिबो आदि पुरखु अपर्मपरो धारे राम ॥ अगम अगोचरु अपर अपारा पारब्रहमु परधानो ॥ आदि जुगादी है भी होसी अवरु झूठा सभु मानो ॥ करम धरम की सार न जाणै सुरति मुकति किउ पाईऐ ॥ नानक गुरमुखि सबदि पछाणै अहिनिसि नामु धिआईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। साहिबो = मालिक। धारे = आसरा देता है। अगोचरु = (अगो+चर) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। होसी = सदा कायम रहेगा। झूठा = नाशवान। मानो = जानो। करम धरम = शास्त्रों द्वारा बताए गए धार्मिक कर्म। सार = समझ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। अहि = दिन। निसि = रात।1। अर्थ: (गुरु की शरण पड़ के शब्द में जुड़ के) मेरा मन उस प्यारे प्रभु के नाम-रंग से रंगा गया है जो सदा-स्थिर रहने वाला है जो सबका मालिक है, जो सबका आदि है, जो सब में व्यापक है जिससे परे और कोई नहीं और जो सबको आसरा देता है। वह परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, मनुष्य की ज्ञानेद्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती, उससे परे और कोई नहीं, बेअंत है और सबसे बड़ा है। सृष्टि के आरम्भ से जुगों के आरम्भ से चला आ रहा है, अब भी मौजूद है सदा के लिए मौजूद रहेगा। (हे भाई!) और सारे संसार को नाशवान जानो। मेरा मन शास्त्रों के बताए हुए धार्मिक कर्मों की सार नहीं जानता, मेरे मन को ये सूझ भी नहीं है कि मुक्ति कैसे मिलती है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ के गुरु के शब्द में जुड़ के मेरा मन यही पहचानता है कि दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए।1। मेरा मनो मेरा मनु मानिआ नामु सखाई राम ॥ हउमै ममता माइआ संगि न जाई राम ॥ माता पित भाई सुत चतुराई संगि न स्मपै नारे ॥ साइर की पुत्री परहरि तिआगी चरण तलै वीचारे ॥ आदि पुरखि इकु चलतु दिखाइआ जह देखा तह सोई ॥ नानक हरि की भगति न छोडउ सहजे होइ सु होई ॥२॥ पद्अर्थ: मानिआ = पतीज गया। सखाई = मित्र। पित = पिता। सुत = पुत्र। संपै = संपदा, धन। नारे = स्त्री। साइर = समुंदर। साइर की पुत्री = समंद्र की बेटी, लक्ष्मी, माया। परहरि = त्याग के। वीचारे = गुरु के शब्द की विचार से। पुरखि = पुरखु ने। चलतु = तमाशा। न छोडउ = मैं नहीं छोड़ता।2। अर्थ: (गुरु की शरण पड़ के) मेरा मन मान चुका है कि परमात्मा का नाम ही (असल) साथी है माया की ममता और अहंकार मनुष्य के साथ नहीं जाते, माता-पिता-भाई-पुत्र-धन-स्त्री-दुनिया वाली चतुराई (सदा के लिए) साथी नहीं बन सकते। (इस वास्ते) गुरु के शब्द के विचार की इनायत से मैंने माया का मोह बिल्कुल ही त्याग दिया है, और इसे अपने पैरों के नीचे रखा हुआ है (भाव, अपने ऊपर इसका प्रभाव नहीं पड़ने देता)। (मुझे यह यकीन हो गया है कि) आदि पुरखु ने (जगत रूप) एक तमाशा दिखा दिया है, मैं जिधर देखता हूँ उधरवह परमात्मा ही मुझे दिखता है। हे नानक! (कह:) मैं परमात्मा की भक्ति (कभी) नहीं भुलाता (मुझे विश्वास है कि) जगत में जो कुछ हो रहा है अपने आप ही प्रभु की रजा में हो रहा है।2। मेरा मनो मेरा मनु निरमलु साचु समाले राम ॥ अवगण मेटि चले गुण संगम नाले राम ॥ अवगण परहरि करणी सारी दरि सचै सचिआरो ॥ आवणु जावणु ठाकि रहाए गुरमुखि ततु वीचारो ॥ साजनु मीतु सुजाणु सखा तूं सचि मिलै वडिआई ॥ नानक नामु रतनु परगासिआ ऐसी गुरमति पाई ॥३॥ पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु। मेटि = मिटा के। संगम = साथ। सारी = श्रेष्ठ। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पे। ततु = अस्लियत। सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने से।3। अर्थ: सदा-स्थिर परमात्मा का नाम (हृदय में) संभाल के मेरा मन पवित्र हो गया है। (जीवन-राह में) मैं अवगुण (अपने अंदर से) मिटा केचल रहा हूँ, मेरे साथ गुणों का साथ बन गया है। जो मनुष्य गुरु के द्वारा अवगुण त्याग के (नाम स्मरण की) श्रेष्ठ करणी करता है वह सदा-स्थिर प्रभु के दर पर सच्चा माना जाता है। वह मनुष्य अपने जनम-मरण का चक्कर मिटा लेता है, वह जगत के मूल को अपने सोच मण्डल में टिकाए रखता है। हे प्रभु! तू ही मेरा सज्जन है तू ही मेरा मित्र है तू ही मेरे दिल की जानने वाला साथी है। तेरे सदा-स्थिर नाम में जुड़ने से (तेरे दर पे) आदर मिलता है। हे नानक! (कह:) मुझे गुरु की ऐसी मति प्राप्त हुई है कि मेरे हृदय में परमात्मा का श्रेष्ठ नाम प्रगट हो गया है।3। सचु अंजनो अंजनु सारि निरंजनि राता राम ॥ मनि तनि रवि रहिआ जगजीवनो दाता राम ॥ जगजीवनु दाता हरि मनि राता सहजि मिलै मेलाइआ ॥ साध सभा संता की संगति नदरि प्रभू सुखु पाइआ ॥ हरि की भगति रते बैरागी चूके मोह पिआसा ॥ नानक हउमै मारि पतीणे विरले दास उदासा ॥४॥३॥ पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। सारि = (आँखों में) डाल के। निरंजनि = निरंजन (प्रभु) में (ष्निर+अंजन। अंजनु = माया की कालिख, माया रहित प्रभु में। जग जीवनो = जगत का सहारा। बैरागी = वैरागवान, विरक्त। पतीणे = पतीज गए। उदासा = विरक्त।4। अर्थ: (प्रभु के ज्ञान का) सुरमा डाल के मेरा मन माया-रहित परमात्मा के नाम में रंगा गया है। जगत का जीवन व सभी दातें देने वाला प्रभु मेरे मन में मेरे हृदय में हर वक्त मौजूद रहता है। (गुरु के द्वारा) जगत का जीवन और सबको दातें देने वाला परमात्मा मन में बस जाता है, मन उसके नाम-रंग में रंगा जाता है और मन आत्मिक अडोलता में टिक जाता है। गुरमुखों की संगति में रहने से परमात्मा की मेहर की निगाह से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। हे नानक! जगत में ऐसे विरले लोग हैं जो परमात्मा की भक्ति के रंग में रंग के माया के मोह से निर्लिप रहते हैं, जिनके अंदर से मोह और तृष्णा खत्म हो जाते हैं, जो अहंकार को मार के परमात्मा के नाम में सदा ही लिप्त रहते हैं।4।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |