श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु आसा महला १ छंत घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

तूं सभनी थाई जिथै हउ जाई साचा सिरजणहारु जीउ ॥ सभना का दाता करम बिधाता दूख बिसारणहारु जीउ ॥ दूख बिसारणहारु सुआमी कीता जा का होवै ॥ कोट कोटंतर पापा केरे एक घड़ी महि खोवै ॥ हंस सि हंसा बग सि बगा घट घट करे बीचारु जीउ ॥ तूं सभनी थाई जिथै हउ जाई साचा सिरजणहारु जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: हउ जाई = मैं जाता हूँ। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। करम बिधाता = जीवों के कर्मों अनंसार पैदा करने वाला। बिसारणहारु = नाश करने में समर्थ। जा का = जिस प्रभु का। कोट = किले। कोट...केरे = पापों के किलों के किले, पापों के ढेरों के ढेर। खोवै = नाश करता है। हंस कि हंसा = श्रेष्ठ से श्रेष्ठ। बग सि बगा = बेकार से बेकार। घट घट = हरेक शरीर का।1।

अर्थ: हे प्रभु मैं जहाँ भी जाता हूँ तू सब जगह मौजूद है, तू सदा-स्थिर रहने वाला है, तू सारे जगत को पैदा करने वाला है। तू जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला है और सब दुखों का नाश करने वाला है।

जिस प्रभु का किया हुआ ही सब कुछ होता है वह सबका मालिक है वह सबके दुख नाश करने के समर्थ है। जीवों के पापों के ढेरों के ढेर एक पलक में नाश कर देता है। जीव चाहे श्रेष्ठ से श्रेष्ठ हों चाहे निखिध से निखिध, प्रभु हरेक की संभाल करता है।

हे प्रभु! मैं जहाँ भी जाता हूँ, तू हर जगह मौजूद है तू सदा-स्थिर रहने वाला है, तू सबको पैदा करने वाला है।1।

जिन्ह इक मनि धिआइआ तिन्ह सुखु पाइआ ते विरले संसारि जीउ ॥ तिन जमु नेड़ि न आवै गुर सबदु कमावै कबहु न आवहि हारि जीउ ॥ ते कबहु न हारहि हरि हरि गुण सारहि तिन्ह जमु नेड़ि न आवै ॥ जमणु मरणु तिन्हा का चूका जो हरि लागे पावै ॥ गुरमति हरि रसु हरि फलु पाइआ हरि हरि नामु उर धारि जीउ ॥ जिन्ह इक मनि धिआइआ तिन्ह सुखु पाइआ ते विरले संसारि जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से, एकाग्र हो के। संसारि = संसार में।

हारि = हार के। सारहि = संभालते हैं। चूका = समाप्त हो जाता है। पावै = चरणों में। उरधारि = हृदय में टिका के।2।

अर्थ: जिस मनुष्यों ने एकाग्र हो के प्रभु को स्मरण किया है उन्होंने आत्मिक आनंद पाया है, पर ऐसे लोग संसार में बहुत-बहुत कम हैं। जो जो लोग गुरु का शब्द कमाते हैं (भाव, गुरु के शब्द अनुसार जीवन बनाते हैं) जम उनके नजदीक नहीं फटकता (उन्हें मौत का डर नहीं सता सकता) वे कभी भी मानव जनम की बाजी हार के नहीं आते। जो मनुष्य परमात्मा का गुण हृदय में बसाते हैं, वे (विकारों से मुकाबले में) कभी नहीं हारते, आत्मिक मौत तो उनके नजदीक नहीं फटकती। जो लोग परमात्मा के चरणों में लगते हैं उनके जनम-मरन का चक्कर खत्म हो जाता है।

गुरु की मति ले के जिन्होंने प्रभु के नाम का रस चखा है, नाम फल प्राप्त किया है, प्रभु का नाम हृदय में टिकाया है, एकाग्र हो के प्रभु को स्मरण किया है उन्होंने आत्मिक आनंद पाया है, पर ऐसे लोग जगत में विरले ही हैं।2।

जिनि जगतु उपाइआ धंधै लाइआ तिसै विटहु कुरबाणु जीउ ॥ ता की सेव करीजै लाहा लीजै हरि दरगह पाईऐ माणु जीउ ॥ हरि दरगह मानु सोई जनु पावै जो नरु एकु पछाणै ॥ ओहु नव निधि पावै गुरमति हरि धिआवै नित हरि गुण आखि वखाणै ॥ अहिनिसि नामु तिसै का लीजै हरि ऊतमु पुरखु परधानु जीउ ॥ जिनि जगतु उपाइआ धंधै लाइआ हउ तिसै विटहु कुरबानु जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। विटहु = से। ता की = उसकी। लाहा = लाभ। माणु = आदर। नवनिधि = नौ खजाने। आखि = कह के। अहि = दिन। निसि = रात।3।

नोट: ‘जिनि’ एकवचन है और ‘जिन’ बहुवचन।

अर्थ: मैं उस प्रभु से सदके हूँ जिसने जगत पैदा किया है ओर इसे माया की दौड़-भाग में लगा दिया है। (हे भाई!) उस प्रभु की सेवा-भक्ति करनी चाहिए, यही लाभ जगत में कमाना चाहिए, (इस तरह) प्रभु की दरगाह में आदर मिलता है।

वही मनुष्य परमात्मा की हजूरी में आदर पाता है जो एक परमात्मा को (अपने अंग-संग) पहचानता है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के प्रभु का स्मरण करता है परमात्मा की महिमा करता है वह (मानो) जगत के नौ खजाने हासिल करलेता है।

(हे भाई!) दिन-रात उस परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए जो सबसे श्रेष्ठ है जो सबमें व्यापक है जो सबसे बड़ा है।

मैं उस परमात्मा से सदके जाता हूँ जिसने जगत पैदा किया है और इसे माया की दौड़-भाग में लगा रखा है।3।

नामु लैनि सि सोहहि तिन सुख फल होवहि मानहि से जिणि जाहि जीउ ॥ तिन फल तोटि न आवै जा तिसु भावै जे जुग केते जाहि जीउ ॥ जे जुग केते जाहि सुआमी तिन फल तोटि न आवै ॥ तिन्ह जरा न मरणा नरकि न परणा जो हरि नामु धिआवै ॥ हरि हरि करहि सि सूकहि नाही नानक पीड़ न खाहि जीउ ॥ नामु लैन्हि सि सोहहि तिन्ह सुख फल होवहि मानहि से जिणि जाहि जीउ ॥४॥१॥४॥

पद्अर्थ: लेनि = लेते हैं। सि = वह लोग। मानहि = वह माने जाते हैं, आदर पाते हैं। जिणि = जीत के। केते = कितने ही, अनेक ही। जाहि = गुजर जाएं। जरा = बुढ़ापा। मरणा = मौत, आत्मिक मौत। सूकहि = सूखते हैं।4।

नोट: ‘जिनि’ और ‘जिणि’ का फर्क स्मरणीय है।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं वह (लोक-परलोक में) शोभा पाते हैं, उनको आत्मिक आनंद रूपी फल मिलता है, वे (हर जगह) आदर पाते हैं, वे (मनुष्य जन्म की बाजी) जीत के (यहाँ से) जाते हैं। उनको (आत्मिक सुख का) फल इतना मिलता है कि परमात्मा की रजा के अनुसार वह कभी भी घटता नहीं चाहे अनेक युग बीत जाएं। हे प्रभु स्वामी! भले ही अनेक ही युग बीत जाएं स्मरण करने वालों को आत्मिक आनन्द का मिला फल कभी नहीं कम होता। जो जो आदमी हरि का नाम स्मरण करता है उन्हें प्राप्त हुई उच्च आत्मिक अवस्था को ना बुढ़ापा आता है ना मौत सताती है। वह कभी नर्क में भी नहीं पड़ते।

हे नानक! जो लोग परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं वे कभी सूखते नहीं हैं (भाव, उनका अंतरात्मक खिलाव कभी सूखता नहीं है, आनंद कभी खत्म नहीं होता) वे कभी दुखी नहीं होते। जो मनुष्य नाम स्मरण करते हैं वे (लोक-परलोक में) शोभा पाते हैं।, उन्हें आत्मिक आनंद रूपी फल मिलता है, वे (हर जगह) आदर पाते हैं, वे (मनुष्य जनम की बाजी) जीत के (यहाँ से) जाते हैं।4।1।4।

नोट: ये छंत ‘घरु २’ का है। कुल जोड़ 4 है।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला १ छंत घरु ३ ॥

तूं सुणि हरणा कालिआ की वाड़ीऐ राता राम ॥ बिखु फलु मीठा चारि दिन फिरि होवै ताता राम ॥ फिरि होइ ताता खरा माता नाम बिनु परतापए ॥ ओहु जेव साइर देइ लहरी बिजुल जिवै चमकए ॥ हरि बाझु राखा कोइ नाही सोइ तुझहि बिसारिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन मरहि हरणा कालिआ ॥१॥

पद्अर्थ: की = क्यूँ? वाड़ीऐ = फुलवाड़ी में। राता = मस्त। बिखु = जहर। ताता = गरम, दुखदाई। खरा = बहुत। माता = मस्त। परतापए = दुख देता है। जेव = जैसे, की तरह। साइर = समुंदर। देइ = देता है। लहरी = लहरें। सोइ = वह (हरि)। तुझहि = तू। मरहि = मर जाएगा, आत्मिक मौत सहेड़ लेगा।1।

नोट: ‘लहरी’ है ‘लहरि’ का बहुवचन।

अर्थ: हे काले हिरन! (हे काले हिरन की तरह संसार रूपी वन में बेपरवाह हो के खरमस्तियां करने वाले मन!) तू (मेरी बात) सुन! तू इस (जगत-) फुलवाड़ी में क्यों मस्त हो रहा है? (इस फुलवाड़ी का) फल जहर है, (भाव, आत्मिक मैत पैदा करता है) ये थोड़े दिन ही स्वादिष्ट लगता है, फिर ये दुखदाई बन जाता है। जिस में तू इतना मस्त है ये आखिर दुखदाई हो जाता है। परमात्मा के नाम के बिना ये बहुत दुख देता है। (वैसे है भी थोड़ा समय रहने वाला) जैसे समुंदर से लहरें निकलती है वैसे ही बिजली से चमक निकलती है।

परमात्मा (के नाम) के बिना और कोई (सदा साथ निभने वाला) रक्षक नहीं (हे हिरन की तरह खरमस्ती करने वाले मन!) उसे तू भुलाए बैठा है। नानक कहता है: हे काले हिरन! हे मन! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को स्मरण कर, वरना (इस जगत फुलवाड़ी में मस्त हो के) तू अपने लिए आत्मिक मौत सहेड़ लेगा।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh