श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 439 भवरा फूलि भवंतिआ दुखु अति भारी राम ॥ मै गुरु पूछिआ आपणा साचा बीचारी राम ॥ बीचारि सतिगुरु मुझै पूछिआ भवरु बेली रातओ ॥ सूरजु चड़िआ पिंडु पड़िआ तेलु तावणि तातओ ॥ जम मगि बाधा खाहि चोटा सबद बिनु बेतालिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन मरहि भवरा कालिआ ॥२॥ पद्अर्थ: फूलि = फूल पे। बीचारी = विचार के। मुझै = मैं। बेली = बेलों (के फूलों) पर। रातओ = मस्त। पिंडु = शरीर। सूरजु चढ़िआ = उम्र की रात खत्म हो गई। पड़िआ = पड़ गया, धराशाही हो गया। तावणि = ताउणी में, ताउड़ी में। तातउ = गरम किया जाता है। मगि = रास्ते पर। बेतालिआ = भूतना।2। अर्थ: हे (हरेक) फूल पर उड़ने वाले भौरे (मन!) (फूल-फूल की सुगंधि लेते फिरने में से) बड़ा भारी दुख निकलता है। मैंने अपने (उस) गुरु से पूछा है जो सदा-स्थिर प्रभु को सदा अपने विचार-मण्डल में टिकाए रखता है। (हे भौरे मन! तेरी ये हालत) विचार के मैंने गुरु से पूछा है कि ये मन-भंवरा तो वेलों-फूलों पे (दुनिया के सुंदर पदार्थों के रसों में) मस्त हो रहा है (इसका क्या बनेगा? मुझे गुरु ने समझा दिया है कि) जब जिंदगी की रात समाप्त हो जाती है (जब दिन चढ़ जाता है) ये शरीर धराशाही हो जाता है (विकारों में फंसे रहने के कारण जीव ऐसे दुखी होता है जैसे) तेल तौड़ी में डाल के अबाला जाता है। हे (दुनिया के पदार्थों में मस्त हुए) भूत! स्तिगुरू के शब्द से टूट के तू यमराज के रास्ते में बँधा हुआ चोटें ही खाएगा। नानक कहता है: हे मेरे मन! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को स्मरण कर, वरना भंवरे (की तरह फूलों में मस्त हुए मन!) आत्मिक मौत सहेड़ लेगा।2। मेरे जीअड़िआ परदेसीआ कितु पवहि जंजाले राम ॥ साचा साहिबु मनि वसै की फासहि जम जाले राम ॥ मछुली विछुंनी नैण रुंनी जालु बधिकि पाइआ ॥ संसारु माइआ मोहु मीठा अंति भरमु चुकाइआ ॥ भगति करि चितु लाइ हरि सिउ छोडि मनहु अंदेसिआ ॥ सचु कहै नानकु चेति रे मन जीअड़िआ परदेसीआ ॥३॥ पद्अर्थ: कितु = किस लिए? साचा = सदा स्थिर रहने वाला। मनि = मन में। की = क्यूँ? नैण रुंनी = आंखें (भर के) रोई। बधिकि = बधिक ने, शिकारी ने। भरमु = भुलेखा। अंति = आखिर में। सिउ = साथ।3। अर्थ: हे मेरी परदेसी जीवात्मा! तू क्यूँ (माया के) जंजाल में फंस रही है? अगर सदा-स्थिर रहने वाला मालिक तेरे मन में बसता हो तो तू (माया के मोह रूपी) जम के पसरे हुए जाल में क्यूँ फसे? (हे मेरी जीवात्मा! देख) जब शिकारी ने (पानी में) जाल डाला होता है और मछली (चारे की लालच में फंस कर जाल में फंस जाती है और पानी से) विछुड़ जाती है तब आँखें भर के रोती है (इसी तरह जीव को) ये जगत मीठा लगता है, माया का मोह मीठा लगता है, पर (फंस के) अंत में ये भुलेखा दूर होता है (जब जीवात्मा दुखों के चुंगल में आती है तो मायावी पदार्थ साथ छोड़ जाते हैं)। हे मेरी जीवात्मा! परमात्मा के चरणों में चित्त जोड़ के भक्ति करके इस तरह अपने मन में से फिक्र-अंदेशे दूर कर ले। नानक कहता है: हे मेरे परदेसी जीयड़े! हे मेरे मन! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को स्मरण कर।3। नदीआ वाह विछुंनिआ मेला संजोगी राम ॥ जुगु जुगु मीठा विसु भरे को जाणै जोगी राम ॥ कोई सहजि जाणै हरि पछाणै सतिगुरू जिनि चेतिआ ॥ बिनु नाम हरि के भरमि भूले पचहि मुगध अचेतिआ ॥ हरि नामु भगति न रिदै साचा से अंति धाही रुंनिआ ॥ सचु कहै नानकु सबदि साचै मेलि चिरी विछुंनिआ ॥४॥१॥५॥ पद्अर्थ: वाहु = बहाव। संजोगी = सौभाग्यों से। जुग जुग = सदा ही। विसु = जहर। को = कोई विरला। जोगी = विरक्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जिनि = जिस मनुष्य ने। भरमि = भटकना में। पचहि = ख्वार होते हैं। मुगध = मूर्ख लोग। अचेतिआ = गाफिल। रिदै = हृदय में। धाही = ढाहें मार के। चिरी विछुंनिआ = चिरों से बिछुड़े हुओं को।4। अर्थ: नदियों से विछुड़ी हुई धाराओं का (नदियों से दुबारा) मेल बड़े भाग्यों से ही होता है (इसी तरह माया के मोह में फंस के प्रभु से विछुड़े हुए जीव दुबारा सौभाग्य से ही मिलते हैं)। जो कोई विरला (एक आध) मनुष्य प्रभु-चरणों में जुड़ता है वही समझ लेता है कि माया का मोह है तो मीठा पर सदा जहर से भरा रहता है (और जीव को आत्मिक मौत मार देता है)। ऐसा कोई विरला आदमी जिसने अपने गुरु को याद रखा है आत्मिक अडोलता में टिक के इसी अस्लियत को समझता है और परमात्मा से सांझ डालता है। परमात्मा के नाम के बिना माया के मोह की भटकना में गलत रास्ते पर पड़ कर अनेक मूर्ख गाफिल जीव दुखी होते हैं। जो लोग परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, प्रभु की भक्ति नहीं करते, अपने हृदय में सदा-स्थिर प्रभु को नहीं बसाते, वे आखिर जोर-जोर से रोते हैं। नानक कहता है: सदा-स्थिर प्रभु अपनी महिमा के शब्द में जोड़ के चिरों से विछुड़े हुए जीवों को (अपने चरणों में) मिला देता है।4। नोट: ये छंत ‘घरु 3 का है। कुल जोड़ है 5। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ३ छंत घरु १ ॥ हम घरे साचा सोहिला साचै सबदि सुहाइआ राम ॥ धन पिर मेलु भइआ प्रभि आपि मिलाइआ राम ॥ प्रभि आपि मिलाइआ सचु मंनि वसाइआ कामणि सहजे माती ॥ गुर सबदि सीगारी सचि सवारी सदा रावे रंगि राती ॥ आपु गवाए हरि वरु पाए ता हरि रसु मंनि वसाइआ ॥ कहु नानक गुर सबदि सवारी सफलिउ जनमु सबाइआ ॥१॥ नोट: इसी राग में गुरु नानक देव जी के पहले छंत का चौथा बंद ध्यान से पढ़ें। हरेक शब्द को ध्यान से देखें। महले तीसरे का भी पहला बंद पढ़ें। शब्दों की सांझ तुकों की सांझ बताती है कि गुरु नानक देव जी की वाणी गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थी। पद्अर्थ: हम घरे = मेरे (हृदय) घर में। साचा सोहिला = सदा स्थिर प्रभु की महिमा का गीत। साचै सबदि = सदा स्थिर हरि की महिमा वाले शब्द (की इनायत) से। सुहाइआ = (हृदय घर) सोहाना बन गया। धन = जीव-स्त्री। पिर = प्रभु पति। प्रभि = प्रभु ने। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। मंनि = मनि, मन में। कामणि = कामिनी, जीव-स्त्री। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माती = मस्त। सबदि = शब्द ने। सचि = सदा स्थिर हरि नाम ने। रावै = माणती है। रंगि = रंग में। राती = रंगी हुई। आपु = स्वै भाव। वरु = पति। सबाइआ = सारा।1। अर्थ: (हे सखी!) मेरे (हृदय-) घर में सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का गीत चल रहा है, सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाले गुर-शब्द ने (मेरे हृदय-घर को) सोहाना बना दिया है। (हे सखी! उस) जीव-स्त्री का प्रभु पति के साथ मिलाप होता है जिसे प्रभु ने स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लिया। प्रभु ने जिस जीव-स्त्री को खुद (अपने चरणों में) जोड़ा, अपना सदा-स्थिर नाम उसके मन में बसा दिया, वह जीव-स्त्री (फिर) आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है। गुरु के शब्द ने (उस जीव-स्त्री के जीवन को) श्रृंगार दिया, सदा-स्थिर हरि नाम ने (उसके जीवन को) सुंदर बना दिया, वह (फिर) प्रभु के प्रेम रंग में रंगी हुई सदा ही (प्रभु-मिलाप का आनंद) लेती है। (जब जीव-स्त्री अपने अंदर से) अहंकार दूर करती है (और अपने अंदर) प्रभु-पति को ढूँढ लेती है तब वह प्रभु के नाम का स्वाद अपने मन में (सदा के लिए) बसा लेती है। हे नानक! कह: गुरु के शब्द की इनायत से जिस जीव-स्त्री का आत्मिक जीवन सोहाना बन जाता है उसकी सारी जिंदगी कामयाब हो जाती है।1। दूजड़ै कामणि भरमि भुली हरि वरु न पाए राम ॥ कामणि गुणु नाही बिरथा जनमु गवाए राम ॥ बिरथा जनमु गवाए मनमुखि इआणी अउगणवंती झूरे ॥ आपणा सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ ता पिरु मिलिआ हदूरे ॥ देखि पिरु विगसी अंदरहु सरसी सचै सबदि सुभाए ॥ नानक विणु नावै कामणि भरमि भुलाणी मिलि प्रीतम सुखु पाए ॥२॥ पद्अर्थ: दूजड़ै = (प्रभु के बिना) किसी और (के प्यार) में। भरमि = भटकना में (पड़ के)। भुली = गलत रास्ते पड़ जाती है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। झूरे = अंदर ही अंदर दुखी होती है। सेवि = सेवा करके। हदूरे = अंग संग बसने वाला। देखि = देख के। विगसी = खिल उठी। सरसी = रस सहित हो गई, आनंदित हो गई। सबदि = शब्द में। सुभाए = प्रेम में (मगन हो गई)। मिलि = मिल के।2। अर्थ: (हे सखी!) जो जीव-स्त्री (प्रभु के बिना माया आदि की) और ही भटकनों में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ जाती है उसे प्रभु-पति का मिलाप नहीं होता। वह जीव-स्त्री (अपने अंदर कोई आत्मिक) गुण पैदा नहीं करती, वह अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा देती है। अपने मन के पीछे चलने वाली वह मूर्ख जीव-स्त्री जीवन व्यर्थ गवा देती है अवगुणों से भरी होने के कारण वह अपने अंदर ही अंदर दुखी होती रहती है। पर जब उसने अपने गुरु के द्वारा बताई सेवा करके सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद ढूँढा तब उसे प्रभु-पति अंग-संग बसता ही मिल गया। (अपने अंदर) प्रभु-पति को देख के वह खिल गई, वह अंतरात्मे आनंद-मगन हो गई, वह सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाले गुरु-शब्द में प्रभु-प्रेम में लीन हो गई। हे नानक! प्रभु के नाम से विछुड़ के जीव-स्त्री भटकने के कारण गलत राह पर पड़ी रहती है प्रीतम प्रभु को मिल के आत्मिक आनंद पाती है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |