श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 442

सचे मेरे साहिबा सची तेरी वडिआई ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु सुआमी तेरी कुदरति कहणु न जाई ॥ सची तेरी वडिआई जा कउ तुधु मंनि वसाई सदा तेरे गुण गावहे ॥ तेरे गुण गावहि जा तुधु भावहि सचे सिउ चितु लावहे ॥ जिस नो तूं आपे मेलहि सु गुरमुखि रहै समाई ॥ इउ कहै नानकु सचे मेरे साहिबा सची तेरी वडिआई ॥१०॥२॥७॥५॥२॥७॥

पद्अर्थ: सचे = हे सदा स्थिर रहने वाले! वडिआई = प्रतिभा, बड़प्पन। कुदरति = ताकत। जा कउ मंनि = जिस के मन में। गावहे = गाए। तुधु भावहि = तुझे अच्छे लगते हैं। सिउ = साथ। लावहे = लगाए। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।10।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटी हुई है।

अर्थ: हे मेरे सदा स्थिर मालिक! तेरा बड़प्पन भी सदा कायम रहने वाला है। तू बेअंत मालिक है, तू पारब्रहम है, तेरी ताकत बयान नहीं की जा सकती। हे प्रभु! तेरी बड़ाई सदा कायम रहने वाली है, जिस मनुष्यों के मन में तूने ये बड़ाई बसा दी है, वे सदा तेरी महिमा के गीत गाते हैं। पर तभी तेरी महिमा के गीत गाते हैं जबवह तुझे अच्छे लगते हैं, फिर वे तेरे सदा स्थिर स्वरूप में अपना चिक्त जोड़े रखते हैं।

हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ता है वह गुरु की शरण पड़ के तेरी याद में लीन रहता है। (तेरा दास) नानक ऐसे कहता है: हे मेरे सदा कायम रहने वाले मालिक! तेरी बड़ाई भी सदा कायम रहने वाली है।10।2।7।5।2।7।

नोट: इस छंत के 10 बंद हैं, गुरु अमरदास जी के 2 छंत हैं, गुरु नानक देव जी के 5। जोड़ बना 7।
दूसरी बार वही जोड़ फिर दिया है।
छंत महला १------5
छंत महला ३------2
जोड़----------------7

रागु आसा छंत महला ४ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जीवनो मै जीवनु पाइआ गुरमुखि भाए राम ॥ हरि नामो हरि नामु देवै मेरै प्रानि वसाए राम ॥ हरि हरि नामु मेरै प्रानि वसाए सभु संसा दूखु गवाइआ ॥ अदिसटु अगोचरु गुर बचनि धिआइआ पवित्र परम पदु पाइआ ॥ अनहद धुनि वाजहि नित वाजे गाई सतिगुर बाणी ॥ नानक दाति करी प्रभि दातै जोती जोति समाणी ॥१॥

पद्अर्थ: जीवनो = जीवनु, असल जिंदगी, आत्मिक जीवन। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। भाए = (प्रभु जी) प्यारे लगने लगे। नामो = नाम। मेरै प्रान = मेरे हरेक सांस में। संसा = सहम। अदिसटु = ना दिखने वाला। अगोचरु = (गो = इंद्रिय, चर = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। बचनि = वचन के द्वारा। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। अनहद = (अनाहत्) बिना बजाए बजने वाले, एक रस। अनहद धुनि = लगातार सुर वाले। वाजहि = बजते हैं। वाजे = संगीतक साज। प्रभि = प्रभु ने।1।

अर्थ: (हे भाई!) मुझे आत्मिक जीवन मिल गया, मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त हो गया, जब गुरु की शरण में आ के प्रभु जी प्यारे लगने लगे। अब गुरु मुझे हर समय हरि का नाम ही दिये जाता है, गुरु ने मेरे हरेक स्वास में हरि नाम बसा दिया है (जब से गुरु ने) मेरी हरेक सांस में हरि-नाम बसाया है मैं अपना हरेक सहम हरेक दुख दूर कर बैठा हूँ। गुरु के शब्द की इनायत से मैंने उस परमात्मा को स्मरण किया है (जो इन आँखों से) नहीं दिखता, जो मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, (स्मरण के सदका) मैंने सबसे ऊँचा और पवित्र आत्मिक रुतबा हासिल कर लिया है, जब से मैंने सतिगुरु की वाणी गानी शुरू की है (मेरे अंदर आत्मिक आनंद की अटूट लहर चल पड़ी है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मेरे अंदर) कभी ना खत्म होने वाले सुर से संगीतक साज सदा बजते रहते हैं।

हे नानक! दातार प्रभु ने ये बख्शिश की है अब मेरी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में टिकी रहती है।1।

मनमुखा मनमुखि मुए मेरी करि माइआ राम ॥ खिनु आवै खिनु जावै दुरगंध मड़ै चितु लाइआ राम ॥ लाइआ दुरगंध मड़ै चितु लागा जिउ रंगु कसु्मभ दिखाइआ ॥ खिनु पूरबि खिनु पछमि छाए जिउ चकु कुम्हिआरि भवाइआ ॥ दुखु खावहि दुखु संचहि भोगहि दुख की बिरधि वधाई ॥ नानक बिखमु सुहेला तरीऐ जा आवै गुर सरणाई ॥२॥

पद्अर्थ: मनमुखा = अपने मन के पीछे चलने वाले। मुए = आत्मिक मौत मर गए। करि = करके, कह कह के। आवै = (उनका मन) कभी हौसला पकड़ता है, कभी जी पड़ता है। जावै = कभी गिर पड़ता है, हौसला हार बैठता है। मढ़ै = मढ़ में, शरीर में। दुरगंध = बदबू। रंगु कुसंभ = कुसंभ के फूल का रंग। पूरबि = पूर्व की ओर, चढ़ाई की ओर। पछमि = पश्चिम की ओर, उतरती ओर। छाए = छाया, परछाई। कुम्हिआरि = कुम्हार ने। खावहि = सहते हैं। संचहि = इकट्ठा करते हैं। बिरधि = वृद्धि। बिखमु = विषम, मुश्किल। सुहेला = आसान तरीके से।2।

अर्थ: (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य मन मर्जी करने वाले मनुष्य ‘मेरी माया मेरी माया’ कह कह के ही आत्मिक मौत मर गए, उनका मन (माया के लाभ के समय) एक छिन में चढ़ जाता है (माया की हानि के समय) एक छिन में ही धराशाही हो जाता है, वे अपने मन को सदा इस बदबू भरे शरीर के मोह में जोड़े रखते हैं।

अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा दुर्गंध भरे शरीर के मोह में अपने चिक्त को लगाए रखते हैं। उनका ध्यान शारीरिक मोह में लगा रहता है (पर ये शारीरिक दुख-सुख यूँ है) जैसे कुसंभ के फूल का रंग देखते हैं (देखने में शौख, पर जल्द ही फीका पड़ जाने वाला), जैसे परछाई (सूरज के चढ़ने और ढलने के साथ-साथ) कभी पूरब की ओर हो जाती है और कभी पश्चिम की ओर खिसक जाती है, जैसे वह चक्कर-यंत्र है जिसे कुम्हार ने चक्कर दिया हुआ है।

अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य दुख सहते हैं, दुख संचित करते रहते हैं, उन्होंने अपने जीवन में दुखों की ही बढ़ोक्तरी की हुई होती है। पर, हे नानक! जब मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ता है, तब ये मुश्किल से पार होने वाला संसार-समुंदर आसानी से तैरा जा सकता है।2।

मेरा ठाकुरो ठाकुरु नीका अगम अथाहा राम ॥ हरि पूजी हरि पूजी चाही मेरे सतिगुर साहा राम ॥ हरि पूजी चाही नामु बिसाही गुण गावै गुण भावै ॥ नीद भूख सभ परहरि तिआगी सुंने सुंनि समावै ॥ वणजारे इक भाती आवहि लाहा हरि नामु लै जाहे ॥ नानक मनु तनु अरपि गुर आगै जिसु प्रापति सो पाए ॥३॥

पद्अर्थ: ठाकुरो = ठाकुर, मालिक। नीका = सोहणा, अच्छा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाह = जिसकी थाह ना लग सके, गहरा। पूजी = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। चाही = मैं मांगता हूँ। साहा = हे मेरे शाह! बिसाही = खरीदी, वणज किया। भावै = अच्छा लगता है। परहरि = त्याग के। परहरि तिआगी = बिल्कुल ही त्याग दी। सुंने सुंनि = सुंन में ही। सुंन = शून्य, जहाँ माया के फुरने बिल्कुल ही नहीं उठते। इक भाती = एक किस्म के, एक ही हरि लगन वाले। जारे = जाहि, जाते हैं। नानक = हे नानक! अरपि = भेटा कर दे।3।

अर्थ: (हे भाई!) मेरा मालिक सोहणा है, मेरा मालिक प्रभु सुंदर है, (पर, मेरी समझ-सियानप से परे है) पहुँच से परे है। वह एक ऐसा समुंदर है जिसका थाह नहीं पाया जा सकता। (तभी तो) हे मेरे शाह! हे मेरे सतिगूरू! मैं (तुझसे) हरि-नाम की पूंजी मांगता हूँ।

जो मनुष्य हरि-नाम-सरमाए की तलाश करता है, हरि-नाम का व्यापार करता है, वह सदा हरि के गुण गाता रहता है। गुणों के कारण वह हरि को प्यारा लगता है। वह मनुष्य माया के मोह की नींद माया की भूख बिल्कुल ही त्याग देता है, वह तो सदा उस परमात्मा में लीन रहता है जिसके अंदर कभी माया के फुरने उठते ही नहीं।

जब एक हरि-नाम का व्यापार करने वाले सत्संगी मिल बैठते हैं, तो वे परमात्मा के नाम की कमाई कमा के (जगत से) चले जाते हैं। हे नानक! तू भी अपना मन, अपना शरीर गुरु के हवाले कर दे (और हरि-नाम का सौदा गुरु से हासिल कर) पर ये हरि नाम का सौदा वही मनुष्य हासिल करता है जिसके भाग्यों में धुर से लिखा होता है।3।

रतना रतन पदारथ बहु सागरु भरिआ राम ॥ बाणी गुरबाणी लागे तिन्ह हथि चड़िआ राम ॥ गुरबाणी लागे तिन्ह हथि चड़िआ निरमोलकु रतनु अपारा ॥ हरि हरि नामु अतोलकु पाइआ तेरी भगति भरे भंडारा ॥ समुंदु विरोलि सरीरु हम देखिआ इक वसतु अनूप दिखाई ॥ गुर गोविंदु गुोविंदु गुरू है नानक भेदु न भाई ॥४॥१॥८॥

पद्अर्थ: रतना रतन = अनेक रत्न, ऊँचे आत्मिक जीवन वाले श्रेष्ठ गुण। सागरु = समुंदर, शरीर समुंदर। हथि चढ़िआ = मिला हुआ, हाथ में आया हुआ। निरमोलकु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। अतोलकु = जो तोला ना जा सके। विरोलि = मथ के, नितार के। अनूप = अति सुंदर, बेमिसाल। गुोविंदु = (असल शब्द ‘गोविंदु’ है पढ़ना है ‘गुविंद’)। भेदु = फर्क। भाई = हे भाई!।4।

अर्थ: हे भाई! (ये मनुष्य का शरीर, मानो, एक) समुंदर (है जो आत्मि्क जीवन के श्रेष्ठ गुण-रूपी) अनेक रत्नों से नाको-नाक भरा हुआ है। जो मनुष्य हर समय सतिगुरु की वाणी में अपना मन जोड़े रखते हैं, उन्हें ये रत्न मिल जाते हैं।

(हे भाई!) जो लोग हर समय सतिगुरु की वाणी में जुड़े रहते हैं उनको बेअंत परमात्मा का वह नाम रत्न मिल जाता है जिसके बराबर की कीमत का और कोई पदार्थ नहीं है। हे प्रभु! उन मनुष्यों के हृदय में तेरी भक्ति के खजाने भर जाते हैं वह मनुष्य तेरा वह नाम-रत्न प्राप्त कर लेते हैं जिसके बराबर की और कोई चीज नहीं है।

हे भाई! गुरु की कृपा से जब मैंने अपने शरीर-समुंदर को खोज के देखा तो गुरु ने मुझे (शरीर के अंदर बसता हुआ परमात्मा का नाम-रूप) सुंदर कीमती पदार्थ दिखा दिया। हे नानक! (कह:) हे भाई! गुरु परमात्मा है परमात्मा गुरु है दोनों में कोई फर्क नहीं है।4।1।8।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh