श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 443 आसा महला ४ ॥ झिमि झिमे झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा राम ॥ गुरमुखे गुरमुखि नदरी रामु पिआरा राम ॥ राम नामु पिआरा जगत निसतारा राम नामि वडिआई ॥ कलिजुगि राम नामु बोहिथा गुरमुखि पारि लघाई ॥ हलति पलति राम नामि सुहेले गुरमुखि करणी सारी ॥ नानक दाति दइआ करि देवै राम नामि निसतारी ॥१॥ पद्अर्थ: झिमि झिमे = झिम झिम, मीठी मीठी आवाज से। वरसै = बरसता है। अंम्रित धारा = आत्मिक जीवन देने वाले जल का धारा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नदरी = नजर आ जाता है। निसतारा = संसार समुंदर से पार लंघाने वाला। नामि = नाम में (जुड़ के)। वडिआई = आदर मान। कलिजुग = (‘इक घड़ी न मिलते त कलिजुगु होता’) वह आत्मिक अवस्था जब जीव परमात्मा से विछुड़ के विकारों में गर्क होता है। कलिजुगि = विकारों के कारण गिरी हुई आत्मिक हालत में। बोहिथा = जहाज। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। सुहेले = सुखी। सारी = श्रेष्ठ। करणी = करणीय, करने योग्य काम। करि = कर के।1। अर्थ: (हे भाई! जैसे वर्षा ऋतु में जब मीठी मीठी फुहार पड़ती है तो बड़ी सुहावनी ठंड महसूस होती है, वैसे ही अगर मनुष्य को गुरु मिल जाए तो उसके हृदय की धरती पर) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की धार आहिस्ता-आहिस्ता बरखा करती है (और उसको आत्मिक शांति बख्शती है। इस नाम-बरखा की इनायत से) गुरु के सन्मुख रहने वाले उस (भाग्यशाली) मनुष्य को प्यारा परमातमा दिखाई दे जाता है। सारे जीवों को संसार-समुंदर से पार लंघाने वाला परमात्मा का नाम उस मनुष्य को प्यारा लगने लगता है, परमात्मा के नाम की इनायत से उसे (लोक-परलोक में) आदर-सत्कार मिल जाता है। हे भाई! विकारों के कारण निघरी (गिरी) हुई आत्मिक हालत के समय परमात्मा का नाम जहाज (का काम देता) है, गुरु की शरण डाल के (परमात्मा जीव को संसार-समुंदर को) पार लंघा लेता है। जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ते हैं वे इस लोक और परलोक में सुखी रहते हैं। गुरु की शरण पड़ कर (परमात्मा का नाम स्मरणा ही) सबसे श्रेष्ठ करने योग्य कार्य है। हे नानक! मेहर करके परमात्मा जिस मनुष्य को अपने नाम की दाति देता है उसको नाम में जोड़ के संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1। रामो राम नामु जपिआ दुख किलविख नास गवाइआ राम ॥ गुर परचै गुर परचै धिआइआ मै हिरदै रामु रवाइआ राम ॥ रविआ रामु हिरदै परम गति पाई जा गुर सरणाई आए ॥ लोभ विकार नाव डुबदी निकली जा सतिगुरि नामु दिड़ाए ॥ जीअ दानु गुरि पूरै दीआ राम नामि चितु लाए ॥ आपि क्रिपालु क्रिपा करि देवै नानक गुर सरणाए ॥२॥ पद्अर्थ: किलविख = पाप। गुर परचै = गुरु के माध्यम से (नाम जपने के) काम में लग के। रवाइआ = बसा लिया। रविआ = स्मरण किया। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। नाव = (जिंदगी की) बेड़ी। सतिगुरि = सतिगुरु ने। दिढ़ाए = हृदय में पक्का कर दिया। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। गुरि = गुरु ने। नामि = नाम में। करि = कर के।2। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों ने) हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण किया, उन्होंने अपने सारे दुख व पाप नाश कर लिए। (हे भाई!) गुरु के द्वारा हर समय जुट के मैंने हरि-नाम का स्मरण शुरू किया, मैंने अपने हृदय में परमात्मा को बसा लिया। जब से मैं गुरु की शरण आ पड़ा, और, परमातमा को अपने हृदय में बसाया, तब से मैंने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली। हे भाई! जब से (किसी भाग्यशाली के हृदय में) गुरु ने परमात्मा का नाम पक्का कर के बसा दिया, तो लोभ आदि के विकारों की बाढ़ में डूब रही उसकी (जिंदगी की) बेड़ी बाहर निकल आई। जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने आत्मिक जीवन की दाति बख्शी, उसने अपना ध्यान परमात्मा के नाम में जोड़ लिया। हे नानक! गुरु की शरण में लाकर दयालु परमात्मा स्वयं ही कृपा करके (अपने नाम की दाति) देता है।2। बाणी राम नाम सुणी सिधि कारज सभि सुहाए राम ॥ रोमे रोमि रोमि रोमे मै गुरमुखि रामु धिआए राम ॥ राम नामु धिआए पवितु होइ आए तिसु रूपु न रेखिआ काई ॥ रामो रामु रविआ घट अंतरि सभ त्रिसना भूख गवाई ॥ मनु तनु सीतलु सीगारु सभु होआ गुरमति रामु प्रगासा ॥ नानक आपि अनुग्रहु कीआ हम दासनि दासनि दासा ॥३॥ पद्अर्थ: सिधि = कामयाबी, सफलता। सभि = सारे। सुहाए = सोहणे। रोमे रोमि = रोमि रोमि, रोम रोम से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। रेखिआ = रेखा, चिन्ह चक्र। रविआ = स्मरण किया। घट अंतरि = हृदय में। सीगारु = सजावट। अनुग्रहु = किरपा।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरु की वाणी सुनी, परमात्मा की महिमा सुनी, उसे (मानव जनम के उद्देश्य में) सफलता हासिल हो गई, उसके सारे कार्य सफल हो गए। (हे भाई!) मैं भी गुरु की शरण पड़ कर रोम-रोम से परमात्मा का नाम स्मरण कर रहा हूँ। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया वह पवित्र जीवन वाला बन के उस प्रभु के दर पर जा पहुँचा जिस का कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, जिसका कोई खास चक्र-चिन्ह बयान नहीं किया जा सकता। जिस मनुष्य ने हर समय अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसने (अपने अंदर से) माया की भूख-प्यास दूर कर ली, उसका मन उसका हृदय ठंडा-ठार हो गया, उसके आत्मिक जीवन को हरेक किस्म कासहज हासिल हो गया, गुरु की शिक्षा की इनायत से उसके अंदर परमात्मा का नाम रौशन हो गया। हे नानक! (कह:) जब से परमात्मा ने स्वयं मेरे पर मेहर की है मैं उसके दासों के दासों का दास बन गया हूँ।3। जिनी रामो राम नामु विसारिआ से मनमुख मूड़ अभागी राम ॥ तिन अंतरे मोहु विआपै खिनु खिनु माइआ लागी राम ॥ माइआ मलु लागी मूड़ भए अभागी जिन राम नामु नह भाइआ ॥ अनेक करम करहि अभिमानी हरि रामो नामु चोराइआ ॥ महा बिखमु जम पंथु दुहेला कालूखत मोह अंधिआरा ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआइआ ता पाए मोख दुआरा ॥४॥ पद्अर्थ: से मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले वे लोग। मूढ़ = मूर्ख। अभागी = बद्किस्मत। अंतरे = अंदर, हृदय में। विआपै = जोर डाले रखता है। लागी = चिपकी रहती है। मलु = मैल। भाइआ = अच्छा लगा। करम = (निहित धार्मिक) काम, धार्मिक रस्में। बिखमु = मुश्किल। पंथु = रास्ता। दुहेला = दुखों भरा। कालूखत = कालख। अंधिआरा = अंधेरा। मोख = (मोह आदि से) निजात, छुटकारा। दुआरा = दरवाजा।4। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले जिस लोगों ने परमात्मा का नाम भुला दिया, वे मूर्ख बद्-किस्मत ही रहे। उनके अंदर मोह जोर डाले रखता है, उन्हे हर समय माया चिपकी रहती है। जिस मनुष्यों को परमात्मा का नाम प्यारा नहीं लगता, वे मूर्ख बद्-किस्मत ही रहते हैं, उनको सदा माया (के मोह) की मैल लगी रहती है। (नाम भुला के ज्यों-ज्यों वे और ही) धार्मिक रस्में करते हैं (और भी ज्यादा) अहंकारी होते जाते हैं (ये की हुई धार्मिक रस्मेंउनके अंदर से बल्कि) परमात्मा का नाम चुरा के ले जाती हैं। (जीवन-यात्रा में वे) यमों वाला रास्ता (पकड़ के रखते हैं जो) बड़ा मुश्किल है जो दुखों-भरा है और जहाँ माया के मोह की कालिख के कारण (आत्मिक जीवन की तरफ से) अंधकार ही अंधकार है। हे नानक! जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण करता है तब (माया के मोह आदि से) छुटकारे का रास्ता तलाश लेता है।4। रामो राम नामु गुरू रामु गुरमुखे जाणै राम ॥ इहु मनूआ खिनु ऊभ पइआली भरमदा इकतु घरि आणै राम ॥ मनु इकतु घरि आणै सभ गति मिति जाणै हरि रामो नामु रसाए ॥ जन की पैज रखै राम नामा प्रहिलाद उधारि तराए ॥ रामो रामु रमो रमु ऊचा गुण कहतिआ अंतु न पाइआ ॥ नानक राम नामु सुणि भीने रामै नामि समाइआ ॥५॥ पद्अर्थ: गुरु गुरमुखे = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ के। जाणै = गहरी सांझ डालता है। ऊभ = ऊँचा (अहंकार में)। पइआली = पाताल में, गिरावट की अवस्था में। इकतु घरि = एक घर में, प्रभु चरणों में। आणै = ले आता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा। रसाए = भोगता है। पैज = इज्जत। उधारि = बचा ले। रमो रमु = सुंदर ही सुंदर। भीने = भीग गए, तरो तर हो गए। नामि = नाम में।5। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ डालता है वह अपने इस मन को प्रभु चरणों में ला टिकाता है जो हर समय कभी अहंकार में और कभी गिरावट में भटकता फिरता है। वह मनुष्य अपने मन को एक परमात्मा के चरणों में टिका लेता है, वह आत्मिक जीवन की हरेक मर्यादा को समझ लेता है। वह परमात्मा के नाम का आनंद भोगता रहता है। परमात्मा का नाम ऐसे मनुष्य की इज्जत रख लेता है जिस तरह परमात्मा ने प्रहलाद आदि भगतों को (मुश्किलों से) बचा के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लिया। (हे भाई!) परमात्मा सब से ऊँचा है, सुंदर ही सुंदर है, बयान करते-करते उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे नानक! परमात्मा का नाम सुन के (जिस के हृदय) पसीज जाते हैं वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं।5। जिन अंतरे राम नामु वसै तिन चिंता सभ गवाइआ राम ॥ सभि अरथा सभि धरम मिले मनि चिंदिआ सो फलु पाइआ राम ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ राम नामु धिआइआ राम नाम गुण गाए ॥ दुरमति कबुधि गई सुधि होई राम नामि मनु लाए ॥ सफलु जनमु सरीरु सभु होआ जितु राम नामु परगासिआ ॥ नानक हरि भजु सदा दिनु राती गुरमुखि निज घरि वासिआ ॥६॥ पद्अर्थ: तिन्ह = उन्होंने। सभ = सारी। सभि = सारे। अरथा सभि धरम = धर्म अर्थ काम मोक्ष आदि ये सारे पदार्थ। मनि = मन में। चिंदिआ = चितवा हुआ। दुरमति = खोटी मति। कबुधि = बुरी मति। सुधि = सूझ। नामि = नाम में। सभु = सारा। जितु = जिस (शरीर) में। परगासिआ = रौशन हो गया, चमक गया। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।6। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है वे अपनी हरेक किस्म की चिन्ता दूर कर लेते हैं, उन्हें धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, ये सारे पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, वे मनुष्य जो कुछ अपने मन में चितवते हैं वही फल उन्हें मिल जाता है। वह मन इज्जत-फल हासिल कर लेते हैं, वे परमात्मा का नाम हमेशा स्मरण करते रहते हैं, वे सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहते हैं। उनके अंदर से खोटी मति कुबुद्धि दूर हो जाती है, उन्हें आत्मिक जीवन की समझ आ जाती है, वे परमात्मा के नाम में अपना मन जोड़े रखते हैं। उनका मानव जनम कामयाब हो जाता है उनका शरीर भी सफल हो जाता है क्योंकि उनके शरीर में परमात्मा का नाम प्रकाशमान हो जाता है। हे नानक! तू भी सदा दिन-रात हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। गुरु की शरण पड़ कर (परमात्मा का नाम स्मरण करने से) परमात्मा के चरणों में जगह मिली रहती है।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |