श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ४ छंत ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥ ता की गति कही न जाई अमिति वडिआई मेरा गोविंदु अलख अपार जीउ ॥ गोविंदु अलख अपारु अपर्मपरु आपु आपणा जाणै ॥ किआ इह जंत विचारे कहीअहि जो तुधु आखि वखाणै ॥ जिस नो नदरि करहि तूं अपणी सो गुरमुखि करे वीचारु जीउ ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (गो = ज्ञान-इंद्रिय) ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे। आदि = सबसे आरम्भ। निरंजनु = (निर+अंजनु) जिसे माया की कालिख नहीं लग सकती। निरंकारु = (निर+आकार) जिसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता। गति = हालत। अमिति = ना गिनी जाने वाली। अलख = जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। अपरंपरु = परे से परे बेअंत। कहीअहि = कहे जाएं।1।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘नो’ संबधक के कारण हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण।

अर्थ: (हे भाई!) मेरा गोबिंद (सबसे) बड़ा है (किसी भी समझदारी से उस तक मनुष्य की) पहुँच नहीं हो सकती, वह ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, (सारे जगत का) मूल है, उसे माया की कालिख नहीं लग सकती, उसकी कोई खास शक्ल नहीं बताई जा सकती। (हे भाई!) ये नहीं बताया जा सकता कि परमात्मा कैसा है, उसका बड़प्पन भी पैमायश से परे है (हे भाई!) मेरा वह गोबिंद बयान से बाहर है बेअंत है। परे से परे है, अपने आप को वह ही जानता है। इन जीव विचारों की भी क्या बिसात (कि वे उसका रूप बता सकें)?

(हे प्रभु! कोई भी ऐसा जीव नहीं है) जो तेरी हस्ती को बयान करके समझा सके। हे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू अपनी मेहर की निगाह करता है, वह गुरु की शरण पड़ कर (तेरे गुणों की) विचार करता है।

(हे भाई!) मेरा गोबिंद (सबसे) बड़ा है (किसी भी समझदारी से उस तक मनुष्य की) पहुँच नहीं हो सकती, वह ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, (सारे जगत का) मूल है, उसे माया की कालिख नहीं लग सकती, उसकी कोई खास शक्ल नहीं बताई जा सकती।1।

तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥ तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥ घट अंतरि पारब्रहमु परमेसरु ता का अंतु न पाइआ ॥ तिसु रूपु न रेख अदिसटु अगोचरु गुरमुखि अलखु लखाइआ ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती सहजे नामि समाइ जीउ ॥ तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। करता = विधाता। पारु = परला छोर। घट = शरीर। निरंतरि = बिना दूरी के। (अंतर = दूरी, असमीपता)। अंतरि = अंदर में। रेख = चिन्ह चक्र (रेखा, लकीर)। अदिसटु = ना दिखने वाला। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। अनंदि = आनंद में। सहजे = आत्मिक अडोलता में, सहजि ही।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जगत का मूल है और सर्व-व्यापक है, तू परे से परे है और सारी रचना का रचनहार है। तेरी हस्ती का दूसरा छोर (किसी को) नहीं मिल सकता। तू हरेक शरीर में मौजूद है, तू एक-रस सब में समा रहा है।

हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर हरेक शरीर के अंदर मौजूद है उसके गुणों का अंत (कोई जीव) नहीं पा सकता। उस प्रभु का कोई खास रूप, कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं बयान किया जा सकता। वह प्रभु (इन आँखों से) दिखता नहीं वह ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, गुरु के द्वारा ही ये समझ पड़ती है कि उस परमात्मा का स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह) दिन-रात हर समय आत्मिक आनंद में मगन रहता है, परमात्मा के नाम में लीन रहता है।

हे प्रभु! तू सारे जगत का मूल है और सर्व-व्यापक है, तू परे से परे है और सारी रचना का रचनहार है। तेरी हस्ती का दूसरा छोर (किसी को) नहीं मिल सकता।2।

तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥ हरि हरि प्रभु एको अवरु न कोई तूं आपे पुरखु सुजानु जीउ ॥ पुरखु सुजानु तूं परधानु तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तेरा सबदु सभु तूंहै वरतहि तूं आपे करहि सु होई ॥ हरि सभ महि रविआ एको सोई गुरमुखि लखिआ हरि नामु जीउ ॥ तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। परमेसरु = परम+ईश्वर, सबसे बड़ा हाकिम। अबिनासी = कभी ना नाश होने वाला। गुण निधानु = (सारे) गुणों का खजाना। पुरखु = सर्व व्यापक। सुजानु = सयाना। परधानु = जाना माना। सबदु = हुक्म। सभु = हर जगह। तूं है = तू ही। वरतहि = मौजूद है। रविआ = व्यापक है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। लखिआ = समझा जाता है।3।

अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला है तू सबसे बड़ा है, तू कभी भी नाश होने वाला नहीं है, तू सारे गुणों का खजाना है। हे हरि! तू ही ऐकमेव मालिक है, तेरे बराबर का और कोई नहीं है तू स्वयं ही सबके अंदर मौजूद है, तू स्वयं ही सबके दिल की जानने वाला है। हे हरि! तू सब में व्यापक है, तू घट-घट की जानने वाला है, तू सबसे शिरोमणी है, तेरे जितना और कोई नहीं है। हर जगह तेरा ही हुक्म चल रहा है, हर जगह तू ही तू मौजूद है, जगत में वही होता है जो तू स्वयं ही करता है।

हे भाई! सारी सृष्टि में एक वह परमात्मा ही रम रहा है, गुरु की शरण पड़ के उस परमात्मा के नाम की समझ पड़ती है।

हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला है तू सबसे बड़ा है, तू कभी भी नाश होने वाला नहीं है, तू सारे गुणों का खजाना है।3।

सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावहि सभ तेरै सबदि समाइ जीउ ॥ सभ सबदि समावै जां तुधु भावै तेरै सबदि वडिआई ॥ गुरमुखि बुधि पाईऐ आपु गवाईऐ सबदे रहिआ समाई ॥ तेरा सबदु अगोचरु गुरमुखि पाईऐ नानक नामि समाइ जीउ ॥ सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥४॥७॥१४॥

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। करता = हे कर्तार! वडिआई = प्रतिभा, बड़प्पन, तेज प्रताप। भावै = अच्छा लगे। चलाइ = चाल। सभ = सारी दुनिया। सबदि = हुक्म में। समाइ = लीन रहती है, अनुसार हो के चलती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। आपु = स्वै भाव। सबदे = गुरु के शब्द द्वारा। अगोचरु = जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। नामि = नाम में।4।

अर्थ: हे कर्तार! हर जगह तू ही तू है, सारी सृष्टि तेरे ही तेज प्रताप का प्रकाश है। हे कर्तार! जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे, (अपनी इस रचना को अपने हुक्म में) चला। हे कर्तार! जैसे तूझे खुद को अच्छा लगता है वैसे तू सृष्टि को काम में लगाए हुए है, सारी दुनिया तेरे ही हुक्म के अनुसार हो के चलती है। सारी दुनिया तेरे ही हुक्म में ही टिकी रहती है, जब तुझे ठीक लगता है, तो तेरे हुक्म मुताबिक ही (जीवों को) आदर-माण मिलता है।

हे भाई! अगर गुरु की शरण पड़ के सद्-बुद्धि हासिल कर लें, अगर (अपने अंदर से) अहंम्-अहंकार दूर कर लें, तो गुरु शब्द की इनायत से वह कर्तार हर जगह व्यापक दिखाई देता है।

हे नानक! (कह: हे कर्तार!) तूरा हुक्म जीवों की ज्ञानेंन्द्रियों की पहुँच से परे है (तेरे हुक्म की समझ) गुरु की शरण पड़ने से प्राप्त होती है। (जिस मनुष्य को प्राप्त होती है वह तेरे) नाम में लीन हो जाता है। हे कर्तार! हर जगह तू ही तू है, सारी सृष्टि तेरे ही तेज प्रताप का प्रकाश है। हे कर्तार! जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे, (अपनी इस सृष्टि को अपने हुक्म में) चला।4।7।14।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ४ छंत घरु ४ ॥

हरि अम्रित भिंने लोइणा मनु प्रेमि रतंना राम राजे ॥ मनु रामि कसवटी लाइआ कंचनु सोविंना ॥ गुरमुखि रंगि चलूलिआ मेरा मनु तनो भिंना ॥ जनु नानकु मुसकि झकोलिआ सभु जनमु धनु धंना ॥१॥

पद्अर्थ: भिंने = भीगे हुए हैं, तर हो गए हैं, सरूर में आ गए हैं। लोइण = आँखे। प्रेमि = प्रेम रंग में। रतंना = रंगा गया है। रामि = राम ने। कंचनु = सोना। सोविंना = सुंदर रंग वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। चलूलिआ = गाढ़े लाल रंग से रंगा गया है। तनो = तन, शरीर, हृदय। मुसकि = कस्तूरी से। झकोलिआ = अच्छी तरह सुगंधित हो गया है। धनु धंना = भाग्यों वाला, सफल।1।

अर्थ: हे भाई! मेरी आँखें आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम-जल से सरूर में आ गई हैं, मेरा मन प्रभु के प्रेम रंग में रंगा गया है। परमात्मा ने मेरे मन को (अपने नाम की) कसवटी पर घिसाया है, और ये शुद्ध सोना बन गया है। गुरु की शरण पड़ने से मेरा मन प्रभु के प्रेम रंग में गाढ़ा लाल हो गया है, मेरा मन तरो-तर हो गया है। (गुरु की कृपा से) दास नानक (प्रभु के नाम की) कस्तूरी से पूरी तरह सुगंधित हो गया है, (दास नानक का) सारा जीवन ही भाग्यशाली बन गया है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh