श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 449 हरि प्रेम बाणी मनु मारिआ अणीआले अणीआ राम राजे ॥ जिसु लागी पीर पिरम की सो जाणै जरीआ ॥ जीवन मुकति सो आखीऐ मरि जीवै मरीआ ॥ जन नानक सतिगुरु मेलि हरि जगु दुतरु तरीआ ॥२॥ पद्अर्थ: अणीआले = अणी वाले, तीखी नोक वाले (तीर)। पीर = पीड़ा, दर्द। पिरंम = प्रेम। जरीआ = जरी जाती है। जीवन मुकति = दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के बंधनो से आजाद। मरि = मर के, माया से अछोह हो के। दुतरु = जिससे पार लांघना मुश्किल है।2। अर्थ: प्रभु चरणों में प्रेम पैदा करने वाली गुरबाणी ने मेरा मन भेद दिया है जैसे तीखी नोक वाले तीर (किसी चीज को) भेद देते हैं। (हे भाई!) जिस मनुष्य के अंदर प्रभु प्रेम की पीड़ा उठती है वही जानता है कि उस को कैसे सहा जा सकता है। जो मनुष्य माया के मोह की ओर से अछोह हो के आत्मिक जीवन जीता है वह दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के बंधनों से आजाद रहता है। हे दास नानक! (कह:) हे हरि! मुझे गुरु मिला, ता कि मैं मुश्किल से तैरे जाने वाले इस संसार (समुंदर) से पार लांघ सकूँ।2। हम मूरख मुगध सरणागती मिलु गोविंद रंगा राम राजे ॥ गुरि पूरै हरि पाइआ हरि भगति इक मंगा ॥ मेरा मनु तनु सबदि विगासिआ जपि अनत तरंगा ॥ मिलि संत जना हरि पाइआ नानक सतसंगा ॥३॥ पद्अर्थ: मुगध = मूर्ख, बेसमझ। गोविंद = हे गोविंद! रंगा = कई रंग-तमाशे करने वाला। गुरि = गुरु के द्वारा। मंगा = मागें, मैं मांगता हूँ। सबदि = गुरु के शब्द से। विगासिआ = खिल पड़ा है। जपि = जप के। अनत तरंगा = अनंत तरंगों वाला, जिस में बेअंत लहरें उठ रही हैं। मिलि = मिल के (शब्द ‘मिलु’ और ‘मिलि’ में फर्क स्मरणीय है)।3। अर्थ: हे बेअंत करिश्मों के मालिक गोविंद! (हमें) मिल, हममूर्ख बेसमझ तेरी शरण में आए हैं। (हे भाई!) मैं (गुरु से) परमात्मा की भक्ति (की दाति) मांगता हूँ (क्योंकि) पूरे गुरु के माध्यम से परमात्मा मिल सकता है। (हे भाई!) गुरु के शब्द से बेअंत लहरों वाले (समुंदर-प्रभु) को स्मरण करके मेरा मन खिल गया है, मेरा हृदय प्रफुल्लित हो गया है। हे नानक! (कह:) संत जनों को मिल के संतों की संगति में मैंने परमात्मा को पा लिया है।3। दीन दइआल सुणि बेनती हरि प्रभ हरि राइआ राम राजे ॥ हउ मागउ सरणि हरि नाम की हरि हरि मुखि पाइआ ॥ भगति वछलु हरि बिरदु है हरि लाज रखाइआ ॥ जनु नानकु सरणागती हरि नामि तराइआ ॥४॥८॥१५॥ पद्अर्थ: दइआल = हे दया के घर! प्रभ = हे प्रभु! हरि राइआ = हे प्रभु पातशाह! हउ = मैं। मागउ = मांगूँ, माँगता हूँ। सरणि = आसरा, ओट। मुखि = मुख में। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। बिरदु = (ईश्वर का) मूल स्वभाव। लाज = इज्जत। नामि = नाम से।4। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले! हे हरि! हे प्रभु! हे प्रभु पातशाह! मेरी विनती सुन। हे हरि! मैं तेरे नाम का आसरा मांगता हूँ। हे हरि! (तेरी मेहर हो तो मैं तेरा नाम) अपने मुंह में ले सकता हूँ (मुंह से जप सकता हूँ)। (हे भाई!) परमात्मा का ये मूल कदीमी स्वभाव है, बिरद है कि वह भक्ति से प्यार करता है (जो उसकी शरण पड़े, उसकी) इज्जत रख लेता है। (हे भाई!) दास नानक (भी) उस हरि की शरण आ पड़ा है (शरण आए मनुष्य को) हरि अपने नाम में जोड़ के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।4।8।15। आसा महला ४ ॥ गुरमुखि ढूंढि ढूढेदिआ हरि सजणु लधा राम राजे ॥ कंचन काइआ कोट गड़ विचि हरि हरि सिधा ॥ हरि हरि हीरा रतनु है मेरा मनु तनु विधा ॥ धुरि भाग वडे हरि पाइआ नानक रसि गुधा ॥१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। लधा = मिल गया है। कंचन कोट गढ़ = सोने का किला। काइआ = शरीर। सिधा = प्रगट। विधा = भेद किया हुआ। धुरि = धुर दरगाह से। रसि = रस में, आनंद में। गुधा = एक रस मिल गया हूँ।1। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के तलाश करते-करते मैंने मित्र प्रभु को (अपने अंदर ही) पा लिया है। मेरा ये शरीर किला (जैसे) सोने का बन गया है (क्योंकि गुरु की कृपा से) इसमें परमात्मा प्रगट हो गया है। (हे भाई! मुझे अपने अंदर ही) परमात्मा का नाम-रत्न, परमात्मा का नाम-हीरा (मिल गया) है (जिससे मेरा कठोर) मन (मेरा कठोर) हृदय भेदित हो गया है (नर्म पड़ गया है)। हे नानक! (कह: हे भाई!) धुर प्रभु की हजूरी से बड़े भाग्यों से मुझे परमात्मा मिल गया है, मेरा स्वै उसकेप्रेम-रस में भीग गया है।1। पंथु दसावा नित खड़ी मुंध जोबनि बाली राम राजे ॥ हरि हरि नामु चेताइ गुर हरि मारगि चाली ॥ मेरै मनि तनि नामु आधारु है हउमै बिखु जाली ॥ जन नानक सतिगुरु मेलि हरि हरि मिलिआ बनवाली ॥२॥ पद्अर्थ: पंथ = रास्ता। दसावा = मैं पूछती हूँ। मुंध = जीव-स्त्री। जोबनि = जवानी में (मतवाली हुई)। बाली = अंजान। गुर = हे गुरु! चेताइ = याद करा। मारगि = रास्ते पर। चाली = चलूँ। मनि = मन में। तनि = हृदय में। अधारु = आसरा। बिखु = जहर। जाली = जला दूँ, जलाऊँ। मेलि = मिलूँ। बनवाली = परमात्मा।2। अर्थ: हे सतिगुरु! मैं जोबन वंती अंजान जीव-स्त्री (तेरे दर से) सदा खड़ी हुई (तुझसे पति-प्रभु के देश का) राह पूछती हूँ। हे सतिगुरु! मुझे प्रभु-पति का नाम याद कराता रह (मेहर कर) मैं परमात्मा के (देस पहुँचने वाले) रास्ते पर चलूँ। मेरे मन में हृदय में प्रभु का नाम ही सहारा है (अगर तेरी कृपा हो तो इस नाम की इनायत से अपने अंदर से) मैं अहंकार के जहर को जला दूँ। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! मुझे) गुरु मिला। जो भी कोई परमातमा को मिला है गुरु के द्वारा ही मिला है।2। गुरमुखि पिआरे आइ मिलु मै चिरी विछुंने राम राजे ॥ मेरा मनु तनु बहुतु बैरागिआ हरि नैण रसि भिंने ॥ मै हरि प्रभु पिआरा दसि गुरु मिलि हरि मनु मंने ॥ हउ मूरखु कारै लाईआ नानक हरि कमे ॥३॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा। पिआरे = हे प्यारे हरि! मै = मुझे। बैरागिआ = विरक्त हुआ। रसि = (प्रेम) जल से। भिंने = भीगे हुए। मिलि = मिल के। मंने = पतीज जाए, धरवास मिले। हउ = मैं।3। अर्थ: हे प्यारे हरि! मुझे चिरों से विछुड़े हुए को गुरु के द्वारा आ मिल। हे हरि! मेरा मन मेरा हृदय बहुत ही विरक्त हुआ है (वैराग में आ गया है), मेरी आँखें (विछोड़े के कारण तेरे) प्रेम जाल में भीगी हुई हैं। हे हरि! मुझे प्यारे गुरु का पता बता, गुरु को मिल के मेरा मन तेरी याद में लीन हो जाए। हे नानक! (कह:) हे हरि! मैं मूर्ख हूँ, मुझे अपने (नाम स्मरण के) काम में जोड़।3। गुर अम्रित भिंनी देहुरी अम्रितु बुरके राम राजे ॥ जिना गुरबाणी मनि भाईआ अम्रिति छकि छके ॥ गुर तुठै हरि पाइआ चूके धक धके ॥ हरि जनु हरि हरि होइआ नानकु हरि इके ॥४॥९॥१६॥ पद्अर्थ: गुर देहुरी = गुरु का सुंदर शरीर। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। बुरके = (औरों के हृदय शरीर में) छिड़कता है। मनि = मन में। भाईआ = भाई, प्यारी लगी। अंम्रिति = अमृत से, आत्मिक जीवन देने वाले जल से। छकि छके = पी पी के। तुठै = दयावान होने से। चूके = समाप्त हो गए। धक धके = नित्य के धक्के, रोज की ठोकरें। नानक = नानक (कहता है)।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरु का सुंदर हृदय सदा आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से भीगा रहता है, वह (गुरु औरों के हिरदै में भी यह) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल छिड़कता रहता है। जिस मनुष्यों को अपने मन में सतिगुरु की वाणी प्यारी लगने लग जाती है, वाणी का रस ले ले के उनके हृदय भी आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल में भीग जाते हैं। नानक (कहता है गुरु की कृपा से) परमात्मा और परमात्मा का सेवक एक-रूप हो जाते हैं, सेवक परमात्मा में लीन हो जाता है।4।9।16। आसा महला ४ ॥ हरि अम्रित भगति भंडार है गुर सतिगुर पासे राम राजे ॥ गुरु सतिगुरु सचा साहु है सिख देइ हरि रासे ॥ धनु धंनु वणजारा वणजु है गुरु साहु साबासे ॥ जनु नानकु गुरु तिन्ही पाइआ जिन धुरि लिखतु लिलाटि लिखासे ॥१॥ पद्अर्थ: पासे = पास, नजदीक। साचा साहु = सदा स्थिर नाम खजाने का शाहूकार। सिख = सिखों को। देइ = देता है। रासे = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। धनु धनु = भाग्यशाली। साबासे = शाबाश। जिन लिलाट = जिस के माथे पे। धुरि = धुर दरगाह से। लिखासे = लिखा हुआ है।1। अर्थ: (हे भाई!) आत्मिक जीवन देने वाली प्रभु भक्ति के खजाने गुरु सतिगुरु के पास ही हैं। इस सदा-स्थिर हरि-भक्ति के खजाने का शाहूकार गुरु-सतिगुरु ही है, वह अपने सिखों को ये भक्ति की संपत्ति देता है। (हे भाई!) (प्रभु-भक्ति का व्यापार) श्रेष्ठ व्यापार है, भाग्यशाली है वह मनुष्य जो ये व्यापार करता है, नाम-धन का शाह गुरु उस मनुष्य को शाबाश देता है। दास नानक (कहता है: हे भाई!) जिस मनुष्यों के माथे पर धुर से ही प्रभु की हजूरी से (इस सरमाए की प्राप्ति का) लेख लिखा है उनको ही मिलता है।1। सचु साहु हमारा तूं धणी सभु जगतु वणजारा राम राजे ॥ सभ भांडे तुधै साजिआ विचि वसतु हरि थारा ॥ जो पावहि भांडे विचि वसतु सा निकलै किआ कोई करे वेचारा ॥ जन नानक कउ हरि बखसिआ हरि भगति भंडारा ॥२॥ पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। धणी = मालिक। सभु = सारा। भांडे = शरीर। तुधे = तू ही। हरि = हे हरि! थारा = तेरी ही। पावहि = तू पाता है। सा = वही। कउ = को।2। अर्थ: हे प्रभु! तू हमारा मालिक है तू हमारा सदा कायम रहने वाला शाह है (तेरा पैदा किया हुआ यह) सारा जगत यहाँ तेरे दिए नाम-पूंजी से नाम का व्यापार करने आया हुआ है। हे प्रभु! ये सारे जीव-जंतु तूने ही पैदा किए हैं, इनके अंदर भी तेरी ही दी हुई जीवात्मा मौजूद है। कोई बिचारा जीव (अपने प्रयासों से) कुछ भी नहीं कर सकता, जो कोई (गुण-अवगुण) पदार्थ तू इन शरीरों में डालता है वही उघड़ के सामने आता है। हे हरि! अपने दास नानक को भी तूने ही (मेहर कर के) अपनी भक्ति का खजाना बख्शा है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |