श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हम किआ गुण तेरे विथरह सुआमी तूं अपर अपारो राम राजे ॥ हरि नामु सालाहह दिनु राति एहा आस आधारो ॥ हम मूरख किछूअ न जाणहा किव पावह पारो ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि दास पनिहारो ॥३॥

पद्अर्थ: हम = हम जीव। विथरह = विस्तार से बता सकते हैं। किआ गुण = कौन कौन से गुण? सुआमी = हे स्वामी! अपर = जिससे परे और कोई नहीं। अपार = जिसका परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता। सालाहह = हम सराहना करते हैं। आधारो = आसरा। किछूअ = कुछ भी। न जाणहा = हम नहीं जानते। किव = कैसे? पावह = हम पाएं। पारो = पार, अंत। पनिहारो = पानी भरने वाला, सेवक।3।

अर्थ: हे मेरे मालिक! (तू बेअंत गुणों का मालिक है) हम तेरे कौन-कौन से गुण गिन-गिन के बता सकते हैं? तू बेअंत है, तू बेअंत है। हे स्वामी! हम तो दिन-रात तेरे नाम की ही बड़ाई करते हैं, हमारे जीवन का यही सहारा है यही आसरा है। हे प्रभु! हम मूर्ख हैं, हमें कोई समझ नहीं है, हम तेरा अंत कैसे पा सकते हैं? (हे भाई!) दास नानक तो परमात्मा का दास है, परमात्मा के दासों का दास है।3।

जिउ भावै तिउ राखि लै हम सरणि प्रभ आए राम राजे ॥ हम भूलि विगाड़ह दिनसु राति हरि लाज रखाए ॥ हम बारिक तूं गुरु पिता है दे मति समझाए ॥ जनु नानकु दासु हरि कांढिआ हरि पैज रखाए ॥४॥१०॥१७॥

पद्अर्थ: भावै = (तुझे) अच्छा लगे। प्रभ = हे प्रभु! भूलि = भूल के, गलत रास्ते पर पड़ के। विगाड़ह = हम अपने जीवन को खराब कर रहे हैं। लाज = इज्जत। हरि = हे हरि! रखाए = रक्षा की। दे = दे कर। समझाए = समझ बख्श। कांढिआ = कहा जाता है, कहलवाता है। पैज = लज्जा। रखाए = रख, रक्षा।4।

अर्थ: हे प्रभु! हम तेरी शरण आए हैं, अब जैसे तेरी मर्जी हो वैसे हमें (बुरे कामों से) बचा ले। हम दिन-रात (जीवन-राह से) टूट के (अपने आत्मिक जीवन को) खराब करते रहते हैं। हे हरि! हमारी इज्जत रख। हे प्रभु! हम तेरे बच्चे हैं, तू हमारा गुरु है तू हमारा पिता है, हमें मति दे के उत्तम सोच बख्श।

हे हरि! दास नानक तेरा दास कहलवाता है, (मेहर कर, अपने दास की) इज्जत रख।4।10।17।

आसा महला ४ ॥ जिन मसतकि धुरि हरि लिखिआ तिना सतिगुरु मिलिआ राम राजे ॥ अगिआनु अंधेरा कटिआ गुर गिआनु घटि बलिआ ॥ हरि लधा रतनु पदारथो फिरि बहुड़ि न चलिआ ॥ जन नानक नामु आराधिआ आराधि हरि मिलिआ ॥१॥

पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरा = अंधकार। घटि = हृदय में। बलिआ = चमक पड़ा। लधा = मिल गया। पदारथो = कीमती चीज। बहुड़ि = दुबारा। चलिआ = गायब हो गया। आराधि = स्मरण करके।1।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के माथे पर धुर दरगाह से परमात्मा (गुरु-मिलाप का लेख) लिख देता है उन्हें गुरु मिल जाता है (उनके मन में से, गुरु की मेहर से) आत्मिक जीवन से अज्ञानता का अंधकार दूर हो जाता है, और, उनके हृदय में गुरु के बख्शे हुए आत्मिक जीवन के ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। उन्हें परमात्मा के नाम का कीमती रत्न मिल जाता है जो दुबारा (उनसे कभी) गायब नहीं होता। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, नाम स्मरण करके वह परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं।1।

जिनी ऐसा हरि नामु न चेतिओ से काहे जगि आए राम राजे ॥ इहु माणस जनमु दुल्मभु है नाम बिना बिरथा सभु जाए ॥ हुणि वतै हरि नामु न बीजिओ अगै भुखा किआ खाए ॥ मनमुखा नो फिरि जनमु है नानक हरि भाए ॥२॥

पद्अर्थ: ऐसा = ऐसा कीमती। से = वे लोग। काहे = किस वास्ते? जगि = जगत में। दुलंभ = दुर्लभ, बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। बिरथा = व्यर्थ। सभु = सारा। हुणि = इस मानव जनम में। वतै = बीज बीजने के समय, बोवाई का समय। अगै = परलोक में, समय गुजर जाने के बाद। किआ खाए = क्या खाएगा? मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। हरि भाइ = हरि को (यही) ठीक लगता है।2।

अर्थ: (हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ देने वाला) ऐसा कीमती नाम जिस मनुष्यों ने नहीं स्मरण किया, वे जगत में पैदा ही क्यूँ हुए? (उनका मानव जनम किसी काम ना आया)। ये मानव जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, नाम स्मरण के बिना सारे का सारा व्यर्थ चला जाता है। (हे भाई! जो किसान ठीक वक्त पर बोवाई के समय खेत को नहीं बीजता वह समय बीत जाने पर भूखा मरता है, वैसे ही) जो मानव जनम में ठीक समय में (अपने हृदय की खेती में) परमात्मा का नाम नहीं बीजता, वह परलोक में तब कौन सी खुराक बरतेगा जब आत्मिक जीवन के फलने-फूलने के लिए नाम-भोजन की जरूरत पड़ेगी? हे नानक! (कह:) अपने मन के पीछे चलने वालों को बारंबार जन्मों का चक्कर मिलता है (उनके वास्ते) परमात्मा को यही ठीक लगता है।2।

तूं हरि तेरा सभु को सभि तुधु उपाए राम राजे ॥ किछु हाथि किसै दै किछु नाही सभि चलहि चलाए ॥ जिन्ह तूं मेलहि पिआरे से तुधु मिलहि जो हरि मनि भाए ॥ जन नानक सतिगुरु भेटिआ हरि नामि तराए ॥३॥

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। सभि = सारे। हाथि = हाथ में। चलहि = चलते हैं। पिआरे = हे प्यारे! तुधु = तुझे। मनि = मन में। भाए = अच्छे लगते हैं। नामि = नाम से। तराए = पार लंघाता है।3।

अर्थ: हे हरि! तू सब जीवों का मालिक है, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ है), सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं। किसी जीव के अपने वश में कुछ भी नहीं, जैसे तू चलाता है वैसे ही सारे जीव चलते हैं। हे प्यारे! जिस जीवों को तू अपने साथ मिलाता है, जो तेरे अपने मन को भाते हैं वही तेरे चरणों में जुड़े रहते हैं।

हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्यों को गुरु मिल जाता है, गुरु उनको परमात्मा के नाम में जोड़ के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।3।

कोई गावै रागी नादी बेदी बहु भाति करि नही हरि हरि भीजै राम राजे ॥ जिना अंतरि कपटु विकारु है तिना रोइ किआ कीजै ॥ हरि करता सभु किछु जाणदा सिरि रोग हथु दीजै ॥ जिना नानक गुरमुखि हिरदा सुधु है हरि भगति हरि लीजै ॥४॥११॥१८॥

पद्अर्थ: गावै = गुण गाता है। रागी = रागों में गा के। नादी = नाद, शंख आदि बजा के। बेदी = वेदों, धर्म पुस्तकों से। बहु भांति करि = कई तरीकों से। भीजै = प्रसन्न होता है। अंतरि = अंदर। कपटु = फरेब। रोइ = रो के। सिरि रोग = रोगों के सिर पर। हथु दीजै = हाथ दिया जाए। सुधु = पवित्र। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।4।

अर्थ: (हे भाई!) कोई मनुष्य राग गा-गा के, कोई शंख आदि बजा के, कोई धर्म-पुस्तकें पढ़ के कई ढंगों-तरीकों से परमात्मा के गुण गाता है, पर, परमात्मा इस तरह प्रसन्न नहीं होता (क्योंकि) कर्तार (हरेक मनुष्य के दिल की) हरेक बात जानता है अंदरूनी रोगों पर बेशक हाथ दिया जाए (अर्थात, अंदरूनी विकारों को छिपाने का चाहे जितना भी प्रयत्न किया जाए, तो भी परमात्मा से छुपा नहीं रह सकता)। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्यों का हृदय पवित्र हो जाता है, वही परमात्मा की भक्ति करते हैं, वही हरि का नाम लेते हैं।4।11।18।

आसा महला ४ ॥ जिन अंतरि हरि हरि प्रीति है ते जन सुघड़ सिआणे राम राजे ॥ जे बाहरहु भुलि चुकि बोलदे भी खरे हरि भाणे ॥ हरि संता नो होरु थाउ नाही हरि माणु निमाणे ॥ जन नानक नामु दीबाणु है हरि ताणु सताणे ॥१॥

पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। ते जन = वे लोग। सुघड़ = अच्छी मानसिक स्थिति वाले। भुलि = भूल के। चुकि = गलती खा के। भी = फिर भी। खरे = अच्छे। भाणे = प्यारे लगते हैं। थाउ = जगह, आसरा। दीबाणु = सहारा, फरियाद की जगह। ताणु = ताकत, बाहुबल। सताणे = तगड़े, ताकत वाले।1।

अर्थ: (हे भाई!) जिस लोगों के हृदय में परमात्मा का प्यार मौजूद है (परमात्मा की नजरों में) वह लोग सुघड़ हैं, सयाने हैं। अगर वे कभी गलती से भी बाहर लोगों में (कच्चे बोल) बोल बैठते हैं तो भी परमात्मा को वे प्यारे लगते हैं। (हे भाई!) परमात्मा के संतों को (परमात्मा के बिना) और कोई आसरा नहीं होता (वे जानते हैं कि) परमातमा ही निमाणों का माण है। हे नानक! (कह:) परमात्मा के सेवकों के वास्ते परमात्मा का नाम ही सहारा है, परमात्मा ही उनका बाहुबल है (जिसके आसरे वे विकारों के मुकाबले में) बलवान रहते हैं।1।

जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरू सो थानु सुहावा राम राजे ॥ गुरसिखीं सो थानु भालिआ लै धूरि मुखि लावा ॥ गुरसिखा की घाल थाइ पई जिन हरि नामु धिआवा ॥ जिन्ह नानकु सतिगुरु पूजिआ तिन हरि पूज करावा ॥२॥

पद्अर्थ: जिथे = जहाँ, जिस जगह पर। जाइ = जा के। सुहावा = सुहाना। गुरसिखीं = गुरु के सिखों ने। भालिआ = ढूँढ लिया। धूरि = धूल। मुखि = मुंह पर। घाल = मेहनत। थाइ पई = (प्रभु दर पर) स्वीकार हो गई। पूज करावा = पूजा करवाता है। करावा = करवाई। लावा = लगाई। धिआवा = ध्यान लगाया।2।

अर्थ: (हे भाई!) जिस जगह पर प्यारा गुरु जा बैठता है (गुरु के सिखों के वास्ते) वह स्थान सोहाना बन जाता है। गुरसिख उस स्थान को पा लेते हैं, और उसकी धूल ले के अपने माथे पर लगा लेते हैं। जो गुरसिख परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं उनकी (गुरु-स्थान तलाशने की) मेहनत परमात्मा के दर पर स्वीकार हो जाती है। नानक (कहता है:) जो मनुष्य (अपने हृदय में) गुरु का आदर-सत्कार बैठाते हैं, परमात्मा (जगत में उनका) आदर करवाता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh