श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 451 गुरसिखा मनि हरि प्रीति है हरि नाम हरि तेरी राम राजे ॥ करि सेवहि पूरा सतिगुरू भुख जाइ लहि मेरी ॥ गुरसिखा की भुख सभ गई तिन पिछै होर खाइ घनेरी ॥ जन नानक हरि पुंनु बीजिआ फिरि तोटि न आवै हरि पुंन केरी ॥३॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। हरि = हे हरि! करि पूरा = पूर्ण जान के, अचूक समझ के। भुख = माया की भूख। मेरी = माया की ममता। जाइ लहि = उतर जाती है। सभ = सारी। खाइ = (आत्मिक खुराक) खाती है। घनेरी = बहुत सारी दुनिया। हरि पुंनु = नाम स्मरण का भला बीज। तोटि = कमी। केरी = की। पुंन केरी = भले काम की। अर्थ: हे हरि! गुरु के सिखों के मन में तेरी प्रीति बनी रहती है तेरे नाम का प्यार टिका रहता है, वे अपने गुरु को अचूक समझ के उसकी बताई हुई सेवा करते रहते हैं (जिसकी इनायत से उनके मन में से) माया की भूख दूर हो जाती है, उनकी संगति करके और बहुत सारी दुनिया (नाम-नाम जपने की आत्मिक खुराक) खाती है। हे दास नानक! जो मनुष्य (अपने हृदय-खेत में) हरि-नाम का भला बीज बीजते हैं, उनके अंदर इस भले कर्म की कभी भी कमी नहीं होती।3। गुरसिखा मनि वाधाईआ जिन मेरा सतिगुरू डिठा राम राजे ॥ कोई करि गल सुणावै हरि नाम की सो लगै गुरसिखा मनि मिठा ॥ हरि दरगह गुरसिख पैनाईअहि जिन्हा मेरा सतिगुरु तुठा ॥ जन नानकु हरि हरि होइआ हरि हरि मनि वुठा ॥४॥१२॥१९॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। वाधाईआं = खुशियां, आत्मिक उत्साह, चढ़दीकला। जिन्ह = जिन्होंने। गल = बात, जिक्र। सो = वह मनुष्य। मिठा = प्यारा। पैनाईअहि = सरोपे दिए जाते हैं, सन्माने जाते हैं। तुठा = मेहरबान हुआ। नानकु = नानक (कहता है)। वुठा = आ बसा।4। नोट: ‘पैनाईअहि’ है वर्तमानकाल कर्मवाच, अंन पुरख, बहुवचन। अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरसिखों ने प्यारे गुरु के दर्शन कर लिए, उनके मन में सदा चढ़दीकला बनी रहती है। यदि कोई मनुष्य परमात्मा की महिमा की बात आ के सुनाए तो वह मनुष्य गुरसिखों को प्यारा लगने लग जाता है। (हे भाई!) जिस गुरसिखों पे प्यारा सतिगुरु मेहरबान होता है उन्हें परमात्मा की दरगाह में आदर-मान मिलता है। नानक कहता है कि गुरसिख परमात्मा का रूप हो जाते हैं परमात्मा उनके मन में सदा बसारहता है।4।12।19। आसा महला ४ ॥ जिन्हा भेटिआ मेरा पूरा सतिगुरू तिन हरि नामु द्रिड़ावै राम राजे ॥ तिस की त्रिसना भुख सभ उतरै जो हरि नामु धिआवै ॥ जो हरि हरि नामु धिआइदे तिन्ह जमु नेड़ि न आवै ॥ जन नानक कउ हरि क्रिपा करि नित जपै हरि नामु हरि नामि तरावै ॥१॥ पद्अर्थ: जिना भेटिआ = जिन्होंने शरण ली। द्रिढ़ावै = दृढ़ाए, हृदय में पक्का कर देता है। जिस की = उस (मनुष्य) की। त्रिसना = प्यास। जो = जो मनुष्य। जो धिआइदे = जो मनुष्य स्मरण करते हैं। तिन्ह नेड़ि = उनके नजदीक। करि = करे, करता है। नामि = नाम में (जोड़ के)। तरावै = पार लंघा देता है।1। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों ने प्यारे गुरु का पल्ला पकड़ लिया, गुरु उनके हृदय में परमात्मा का नाम पक्का कर देता है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है उस मनुष्य की माया वाली भूख-प्याससारी दूर हो जाती है। जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करते रहते हैं, जम उनके नजदीक नहीं फटकता (आत्मिक मौत उनके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती)। हे दास नानक! (कह जिस मनुष्य पे) परमात्मा कृपा करता है, वह सदा उसका नाम जपता है, और, परमात्मा उसको अपने नाम में जोड़ के (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।1। जिनी गुरमुखि नामु धिआइआ तिना फिरि बिघनु न होई राम राजे ॥ जिनी सतिगुरु पुरखु मनाइआ तिन पूजे सभु कोई ॥ जिन्ही सतिगुरु पिआरा सेविआ तिन्हा सुखु सद होई ॥ जिन्हा नानकु सतिगुरु भेटिआ तिन्हा मिलिआ हरि सोई ॥२॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा। बिघनु = रुकावट। सद = सदा। पुरखु = महा पुरुष, स्मर्था वाला। पूजे = आदर करता है। सभु कोई = हरेक जीव। नानकु = नानक (कहता है)। भेटिआ = शरण लई, पल्ला पकड़ा। सोई = स्वयं ही।2। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनके जीवन सफर में दुबारा (विकारों आदि की) कोई रुकावट नहीं पड़ती। जो मनुष्य (अपना जीवन स्वच्छ बना के) समर्थ गुरु को प्रसन्न कर लेते हैं, हरेक जीव उनका आदर-सत्कार करता है। जो मनुष्य प्यारे गुरु की बताई सेवा करते हैं (गुरु का आसरा लेते हैं) उनको सदा ही आत्मिक आनन्द प्राप्त रहता है। नानक (कहता है) जो मनुष्य गुरु का पल्ला पकड़ते हैं उन्हे परमात्मा खुद आ के मिलता है।2। नोट: ध्याया, मनाया, (सेविआ) सेवा की, (भेटिआ) भेटा की, (मिलिआ) मिले; ये सारे शब्द ‘भूतकाल’ में हैं। पर इनके अर्थ ‘वर्तमान काल’ में किए गए हैं। जिन्हा अंतरि गुरमुखि प्रीति है तिन्ह हरि रखणहारा राम राजे ॥ तिन्ह की निंदा कोई किआ करे जिन्ह हरि नामु पिआरा ॥ जिन हरि सेती मनु मानिआ सभ दुसट झख मारा ॥ जन नानक नामु धिआइआ हरि रखणहारा ॥३॥ पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए राह पर चलने से। रखणहारा = बचाने की सामर्थ्य वाला। किआ करे = क्या कर सकता है? नहीं कर सकता (क्योंकि उनमें कोई विकार ही नहीं रह जाता जिसको भंडा जा सके)। सेती = साथ। मानिआ = पतीज गया। दुसट = दुरजन, बुरे मनुष्य। झख = व्यर्थ यत्न।3। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के बताए रास्ते पर चल के जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा की प्रीति पैदा हो जाती है, बचाने की सामर्थ्य वाला परमात्मा (उन्हें विकारों से बचा लेता है), जिस मनुष्यों को परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग पड़ता है, कोई मनुष्य उनकी निंदा नहीं कर सकता क्योंकि कोई निंदनेयोग्य बुराई उनके जीवन में रह ही नहीं जाती। सो, जिस मनुष्यों का मन परमात्मा के साथ रम जाता है, बुरे मनुष्य (उन्हें बदनाम करने के लिए ऐसे ही) व्यर्थ की टक्करें मारते रहते हैं। हे दास नानक! (कह:) जो मनुष्य हरि-नाम स्मरण करते हैं, बचाने की सामर्थ्य वाला हरि (उनको विकारों से बचा लेता है)।3। हरि जुगु जुगु भगत उपाइआ पैज रखदा आइआ राम राजे ॥ हरणाखसु दुसटु हरि मारिआ प्रहलादु तराइआ ॥ अहंकारीआ निंदका पिठि देइ नामदेउ मुखि लाइआ ॥ जन नानक ऐसा हरि सेविआ अंति लए छडाइआ ॥४॥१३॥२०॥ पद्अर्थ: जुगु जुगु = हरेक युग में (देखें -- गुरबाणी व्याकरण)। उपाइआ = पैदा करता आ रहा है। पैज = इज्जत। देइ = दे के। मुखि लाइआ = अपने मुंह लगाया, आदर सम्मान दिया। ऐसा = एसी सामर्थ्य वाला। अंति = आखिर को।4। अर्थ: परमात्मा हरेक युग में ही भक्त पैदा करता है, और, (बुरे समय में) उनकी इज्जत रखता आ रहा है (जैसे कि, प्रहलाद के जालिम पिता) चंदरे हरणाक्षस को परमात्मा ने (आखिर जान से) मार दिया (और अपने भक्त) प्रहलाद को (पिता के दिए कष्टों से) सही सलामत बचा लिया (जैसे कि मंदिर में धक्के देने वाले) निंदकों और (जाति-) अभिमानियों को (परमात्मा ने) पीठ दे के (मात दे के) (अपने भक्त) नामदेव को दर्शन दिए। हे दास नानक! जो भी मनुष्य ऐसे सामर्थ्य वाले परमात्मा की सेवा भक्ति करता है परमात्मा उसे (दोखियों द्वारा दिए जा रहे सब कष्टों से) आखिर बचा लेता है।4।13।20। आसा महला ४ छंत घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मन परदेसी वे पिआरे आउ घरे ॥ हरि गुरू मिलावहु मेरे पिआरे घरि वसै हरे ॥ रंगि रलीआ माणहु मेरे पिआरे हरि किरपा करे ॥ गुरु नानकु तुठा मेरे पिआरे मेले हरे ॥१॥ पद्अर्थ: वे मन! = हे मन! परदेसी = पराए देशों में रहने वाले, जगह-जगह भटकने वाले। घरे = घर में, प्रभु चरणों में। मिलावहु = मिल। वसै = बसता है। हरे = हरी। रंगि = प्रेम में (टिक के)। रलीआं = मौजें। तुठा = दयावान, प्रसन्न।1। अर्थ: हे जगह-जगह भटकने वाले मन! हे प्यारे मन! कभी तो प्रभु चरणों में जुड़। हे मेरे प्यारे मन! हरि-रूप गुरु को मिल (तुझे समझ आ जाएगी कि सब सुखों का दाता) परमात्मा तेरे अंदर ही बस रहा है। हेमेरे प्यारे मन! प्रभु के प्रेम में टिक के आत्मिक आनंद ले (अरदास करता रह कि तेरे पर) प्रभु ये मेहर (की दाति) करे। नानक (कहता है:) हे मेरे प्यारे मन! जिस मनुष्य पे गुरु दयावान होता है उसे परमात्मा से मिला देता है।1। मै प्रेमु न चाखिआ मेरे पिआरे भाउ करे ॥ मनि त्रिसना न बुझी मेरे पिआरे नित आस करे ॥ नित जोबनु जावै मेरे पिआरे जमु सास हिरे ॥ भाग मणी सोहागणि मेरे पिआरे नानक हरि उरि धारे ॥२॥ पद्अर्थ: भाउ करे = प्यार करके। मनि = मन में (बस रही)। आस = (माया की) आशाएं। जोबनु = जवानी। जावै = बीतता जा रहा है। हिरे = हेरे, ताक रहा है। भागमणी = भाग्य की मणी। उरि = हृदय में।2। अर्थ: हे मेरे प्यारे! मैंने (प्रभु चरणों में) प्रेम जोड़ के उसके प्यार का स्वाद (कभी भी) नहीं चखा, (क्योंकि) हे मेरे प्यारे! मेरे मन में (बस रही माया की) तृष्णा कभी खत्म ही नहीं हुई, (मेरा मन) सदा (माया की ही) आशाएं बनाता रहता है। हे मेरे प्यारे! सदा (इसी हालत में ही) मेरी जवानी गुजरती जा रही है, और मौत का देवता मेरी सांसों को (ध्यान से) ताक रहा है (कि सांसें पूरी हों और इसे आ पकड़ूँ)। हे नानक! (कह:) हे मेरे प्यारे! वही जीव-स्त्री भाग्यशाली बनती है उसी के माथे पे भाग्यों की मणि चमकती है जो परमात्मा (की याद) अपने हृदय में टिकाए रखती है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |