श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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महला २ ॥ जे सउ चंदा उगवहि सूरज चड़हि हजार ॥ एते चानण होदिआं गुर बिनु घोर अंधार ॥२॥

पद्अर्थ: सउ चंदा = एक सौ चंद्रमा। एते चानण = इतने प्रकाश। गुर बिनु = गुरु के बिना। घोर अंधार = घुप अंधकार।

अर्थ: यदि (एक) सौ चंद्रमा चढ़ जाएं और हजार सूरज चढ़ जाएं, और इतने प्रकाश के बावजूद (भाव, प्रकाश करने वाले जितने भी ग्रह सूर्य व चंद्रमा अपनी रोशनी देने लगें, पर) गुरु के बिना (फिर भी) घोर अंधकार ही है।2।

मः १ ॥ नानक गुरू न चेतनी मनि आपणै सुचेत ॥ छुटे तिल बूआड़ जिउ सुंञे अंदरि खेत ॥ खेतै अंदरि छुटिआ कहु नानक सउ नाह ॥ फलीअहि फुलीअहि बपुड़े भी तन विचि सुआह ॥३॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! न चेतनी = नहीं चेतते। मनि आपणे = अपने मन में। तिल बूआड़ जिउ = बूआड़ तिलों की तरह, अंदर से जले हुए तिलों की फली की तरह। बूआड़ = जला हुआ (संस्कृत: व्युष्ट)। छुटे = त्याग हुए पड़े हैं, बिना संभाले बिखरे पड़े हैं, जिन्हें कोई सम्भालता नहीं क्योंकि वे किसी काम के नहीं। छुटिआं = जो त्याग हुए पड़े है उनको। सउ = (एक) सौ। नाह = नाथ (खसम)। बपुड़े = बिचारे।

नोट: उपरोक्त श्लोक नंबर 2 में ‘सउ चंदा’ पद आया है। और इस श्लोक में ‘सउ नाह’ पद बरता गया है। कई सज्जन पहले ‘सउ’ का अर्थ ‘सैकड़ा’ करते हैं और दूसरे ‘सउ’ का अर्थ ‘सहु’ ‘खसम’ ‘पति’ करते हैं। ये बिल्कुल ही गलत है। दोनों जगह शब्द ‘सउ’ का जोड़ एक ही है। दूसरी जगह ‘सउ’ का उच्चारण करने के समय ‘ह’ का उच्चारण करके ‘सहु’ कहना बड़ी भूल है। इस दूसरे ‘सउ’ का उच्चारण और अर्थ ‘सहु’ करने वाले सज्जन ‘नाह’ का अर्थ ‘नहीं’ करते हैं। ये एक और गलती है। इस तरह वे सज्जन इस शब्द ‘नाह’ को क्रिया-विशेषण (Adverb) बना देते हैं। गुरबाणी को व्याकरण अनुसार पढ़ने वाले सज्जन जानते हैं कि जब कभी ये शब्द क्रिया-विशेषण हो, तो इसका रूप ‘नाहि’ होता है, भाव इसके अंत में ‘ि’ मात्रा होती है, क्योंकि ये ‘नाहि’ शब्द असल में संस्कृत के दो शब्दों ‘न’ और ‘हि’ के जोड़ से बना हुआ है।

शब्द ‘नाह’ संस्कृत के शब्द ‘नाथ’ का प्राकृत रूप है। ‘थ से ‘ह’ क्यों हो गया, इस विषय पर ‘गुरबाणी व्याकरण’ में विस्तार से चर्चा की गई है। गुरबाणी में कई जगह शब्द ‘नाह’ आया है, जिसका अर्थ है ‘खसम’ ‘पति’। ‘नाहु’ एक खसम (एक वचन, singular); ‘नाह’ (एक से ज्यादा) खसम (बहुवचन, Plural) – देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

अर्थ: हे नानक! (जो मनुष्य) गुरु को याद नहीं करते अपने आप में चतुर (बने हुए) हैं, वे ऐसे हैं जैसे किसी सूंने खेत में अंदर से जले हुए तिल पड़े हुए हैं जिनका कोई मालिक नहीं बनता। हे नानक! (बेशक) कह कि खेत के मालिकाना बगैर पड़े हुए (निखसमें) उन बुआड़ के तिलों के सौ खसम हैं, वे विचारे फूलते हैं (भाव, उनमें फल भी लगते हैं), फलते भी हैं, फिर भी उनके तन में (भाव, उनकी फली में तिलों की जगह) राख ही होती है।

नोट: शब्द ‘सउ’ के अर्थ ‘सहु’ व ‘नाह’ का अर्थ ‘नाहि’ करने वाले सज्जन शायद यहाँ ये एतराज करें कि निखसमे पौधों के सौ खसम कैसे हुए। इसके जवाब में केवल ये विनती है किसी सज्जन के अपने मन के ख्यालों की पुष्टि करने के लिए गुरबाणी के अर्थ गुरबाणी के प्रत्यक्ष व्याकरण के उलट नहीं किए जा सकते। वैसे ये बात है भी बड़ी साफ। कभी-कभी बे-ऋतु बरखा व बिजली की चमक के कारण चनों की फसलों की फसल जल जाती है। ना तो उनमें दाने ही आते हैं और ना ही वह पशुओं के खाने के काम आ सकते हैं। जिमींदारों के पास समय ना होने के कारण, वह फसल निखसमी ही खेतों में पड़ी रहती है। तब गाँवों के गरीब व जरूरतमंद लोग ईधन के बाबत गाँठें भर भर के ले आते हैं। वहाँ ये बात स्पष्ट होती हैकि एक जिमींदार खसम के ना होने के कारण गरीब-गुरबे आदि उनके कई खसम आ बनते हैं।

इसी तरह जब हम अपने मन में चतुर बन के गुरु को मन से बिसार देते हैं, गुरु की रहबरी की आवश्यक्ता को नहीं समझते, तो कामादिक सौ खसम मन पर हावी हो जाते हैं, मन कभी किसी विकार कभी किसी विकार का शिकार बनता रहता है।

पउड़ी ॥ आपीन्है आपु साजिओ आपीन्है रचिओ नाउ ॥ दुयी कुदरति साजीऐ करि आसणु डिठो चाउ ॥ दाता करता आपि तूं तुसि देवहि करहि पसाउ ॥ तूं जाणोई सभसै दे लैसहि जिंदु कवाउ ॥ करि आसणु डिठो चाउ ॥१॥

पद्अर्थ: आपीने = आप ही ने, (अकाल-पुरख) ने खुद ही। आपु = अपने आप को। नाउ = नाम, बड़ाई। दुई = दूसरी। साजीऐ = बनाई है। करि = कर के, बना के। चाउ = तमाशा। तुसि = त्रुठ के, प्रसन्न हो के। देवहि = तू देता है। करहि = तू करता है। पसाउ = प्रसाद, किरपा, बख्शिश। जाणेई = जाननेवाला, जानकार। सभसै = सबका। दे = दे कर। लैसहि = ले लेगा। जिंदु कवाउ = जीवात्मा और जीवात्मा का कवाउ (लिबास, पोशाक), भाव, शरीर।1।

अर्थ: अकाल-पुरख ने अपने आप ही खुद को साजा (बनाया), और खुद ही अपने आप को प्रसिद्ध किया। फिर उसने कुदरत रची (और उस में) आसन जमा के (भाव, कुदरत में व्यापक हो के, इस जगत का) खुद तमाशा देखने लग पड़ा।

(हे प्रभु!) तू खुद ही (जीवों को) दातें देने वाला है और स्वयं ही (इनको बनाने वाला है। (तू) खुद ही प्रसन्न हो के (जीवों को) देता है और बख्शिशें करता है। तु सब जीवों के जीओं की जानने वाला है। जिंद और शरीर दे कर (तू खुद ही) ले लेगा (भाव, तू खुद ही जीवात्मा और उसका लिबास शरीर देता है, खुद वापस ले लेता है)। तू (कुदरति में) आसन जमा के तमाशा देख रहा है।1।

सलोकु मः १ ॥ सचे तेरे खंड सचे ब्रहमंड ॥ सचे तेरे लोअ सचे आकार ॥ सचे तेरे करणे सरब बीचार ॥ सचा तेरा अमरु सचा दीबाणु ॥ सचा तेरा हुकमु सचा फुरमाणु ॥ सचा तेरा करमु सचा नीसाणु ॥ सचे तुधु आखहि लख करोड़ि ॥ सचै सभि ताणि सचै सभि जोरि ॥ सची तेरी सिफति सची सालाह ॥ सची तेरी कुदरति सचे पातिसाह ॥ नानक सचु धिआइनि सचु ॥ जो मरि जमे सु कचु निकचु ॥१॥

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर रहने वाले। खंड = टुकड़े, हिस्से, सृष्टि के हिस्से। ब्रहमण्ड = सृष्टि, जगत। लोअ = चौदह लोक। आकार = स्वरूप, शकल, रंग रंग के जीव-जंतु, पदार्थ आदि जो दिखाई दे रहे हैं। करणे = काम। सरब = सारे। अमरु = हुक्म, बादशाही। दीबाणु = दीवान, कचहरी, दरबार। नीसाणु = निशान, जलवा, जहूर। करमु = बख्शिश। सचे = (वह जीव) सच्चे हैं, सदा स्थिर हैं। सचै = सच्चे के। ताणि = ताकत में। सचै जोरि = सच्चे के जोर में। सचे पातिशाह = हे सच्चे पातशाह! कुदरति = रचना। मरि = मर के। मरि जंमे = मर के जनमे, भाव, मरते हैं और पैदा होते हैं, जनम मरन के चक्कर में पड़ते हैं। सु = वह जीव। कचु = बिलकुल कच्चे।1।

अर्थ: हे सच्चे पातशाह! तेरे (पैदा किए हुए) खंड और ब्रहमंड सच्चे हैं (भाव, खंड और ब्रहमण्ड साजने वाला तेरा ये सिलसिला सदा के लिए अटल है)।

तेरे (द्वारा बनाए हुए चौदह) लोक और (ये बेअंत) आकार भी सदा स्थिर रहने वाले हैं; तेरे काम और सारी विरासतें नाश-रहित हैं।

हे पातशाह! तेरी बादशाही और तेरा दरबार अटल हैं, तेरा हुक्म और तेरा (शाही) फुरमान भी अटल हैं। तेरी बख्शिश सदा के लिए स्थिर है, और तेरी बख्शिशों के निशान भी (भाव, ये बेअंत पदार्थ जो तू जीवों को दे रहा है) सदा के वास्ते कायम हैं।

लाखों-करोड़ों जीव, जो तुझे स्मरण कर रहे हैं, सच्चे हैं (भाव, बेअंत जीवों का तुझे स्मरणा- ये भी तेरा एक ऐसा चलाया हुआ काम है जो सदा के लिए स्थिर है)। (ये खंड-ब्रहमंड-लोक-आकार-जीव-जंतु आदि) सारे ही सच्चे हरि के ताण और जोर में हैं (भाव, इन सबकी हस्ती, सबका आसरा प्रभु खुद ही है)।

तेरी महिमा करनी तेरा एक अटल सिलसिला है; हे सच्चे पातशाह! ये सारी रचना ही तेरा एक ना समाप्त होने वाला प्रबंध है।

हे नानक! जो जीव उस अविनाशी प्रभु को स्मरण करते हैं, वे भी उसका रूप हैं; पर जो जनम-मरन के चक्कर में पड़े हुए हैं, वे (अभी) बिल्कुल कच्चे हैं (भाव, उस असल ज्योति का रूप नहीं हुए)।1।

नोट: शब्द ‘सचु’ संस्कृत के ‘सत्य’ का पंजाबी रूप है, सत्य का अर्थ है ‘असली’, जो सचमुच अस्तित्व में है।

कई मतों का ये विचार है कि जगत असल में कुछ नहीं है। गुरु नानक साहिब इस श्लोक में फरमाते हैं कि खंडों-ब्रहमंडों आदि वाला ये सारा सिलसिला भ्रम-रूप नहीं है; हस्ती वाले रब का ये सचमुच हस्ती वाला ही पसारा है। पर, है ये सारी खेल उसके अपने हाथ में। समूचे तौर पर ये सारी कुदरति उसका एक अटल प्रबंध है, पर इसके बीच अगर अलग-अलग पदार्थ, जीव-जंतुओं के शरीर आदि लें तो ये नाशवान हैं। हां, जो उसे स्मरण करते हैं, वे उसका रूप हो जाते हैं।

मः १ ॥ वडी वडिआई जा वडा नाउ ॥ वडी वडिआई जा सचु निआउ ॥ वडी वडिआई जा निहचल थाउ ॥ वडी वडिआई जाणै आलाउ ॥ वडी वडिआई बुझै सभि भाउ ॥ वडी वडिआई जा पुछि न दाति ॥ वडी वडिआई जा आपे आपि ॥ नानक कार न कथनी जाइ ॥ कीता करणा सरब रजाइ ॥२॥

पद्अर्थ: जा = जिसका, जिस प्रभु का, कि उस प्रभु का। नाउ = नाम, यश। निहचल = अचल, न चलने वाला, अविनाशी। आलाउ = अलाप, जीवों के अलाप, जीवों के वचन, जो कुछ जीव बोलते हैं, जीवों की अरदासें। भाउ = (मन के) भाव, तरंगें। जा = कि वह। पुछि = (किसी को) पूछ के। आपे आपि = खुद ही खुद है, भाव स्वतंत्र है। कार = उसका रचा हुआ ये सारा खेल, उसकी कुदरती कला। कीता करणा = उसकी रची हुई सृष्टि। रजाइ = ईश्वर के हुक्म में।

अर्थ: उस प्रभु की कीर्ति नहीं की जा सकती जिसका बहुत नाम है (बहुत यशष्वी है)। प्रभु का एक ये बड़ा गुण है कि उसका नाम (सदा) अटल है। उसकी ये एक बड़ी कीर्ति है कि उसका आसन अडोल है। प्रभु की ये एक बड़ी बड़ाई है कि वह सारे जीवों की अरदासों को जानता है और वह सभी के दिलों के भावों को समझता है।

ईश्वर की ये एक महानता है कि वह किसी की सलाह ले के (जीवों को) दातें नहीं दे रहा (अपने आप बेअंत दातें बख्शता है) (क्योंकि) उस जैसा और कोई नहीं है।

हे नानक! ईश्वर की कुदरति बयान नहीं की जा सकती, सारी रचना उसने अपने हुक्म में रची है।2।

महला २ ॥ इहु जगु सचै की है कोठड़ी सचे का विचि वासु ॥ इकन्हा हुकमि समाइ लए इकन्हा हुकमे करे विणासु ॥ इकन्हा भाणै कढि लए इकन्हा माइआ विचि निवासु ॥ एव भि आखि न जापई जि किसै आणे रासि ॥ नानक गुरमुखि जाणीऐ जा कउ आपि करे परगासु ॥३॥

पद्अर्थ: सचै की है कोठड़ी = सदा कायम रहने वाले ईश्वर की जगह है। इकना = कई जीवों को। हुकमि = अपने हुक्म अनुसार। समाइ लए = अपने में समा लेता है। भाणै = अपनी रजा के अनुसार। कढि लए = (माया के मोह में से) निकाल लेता है। एव भि = इस तरह भी, ये बात भी। आखि न जापई = नहीं कही जा सकती। जि = कि। किसै = किस जीव को। आणै रासि = रास लाता है, सीधे रास्ते डालता है, बेड़ा पार करता है। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जाणीऐ = समझ आती है। जा कउ = जिस मनुष्य पर।3।

अर्थ: ये जगत प्रभु के रहने की जगह है, प्रभु इसमें बस रहा है। कई जीवों को अपने हुक्म अनुसार (इस संसार-सागर में से बचा के) अपने चरणों में जोड़ लेता है और कई जीवों को अपने हुक्म अनुसार ही इसमें डुबो देता है। कई जीवों को अपनी रजा अनुसार माया के मोह में से निकाल लेता है, कईयों को इसी में फसाए रखता है।

ये बात भी बताई नहीं जा सकती कि रब किस का बेड़ा पार करता है। हे नानक! जिस (भाग्यशाली) मनुष्य को प्रकाश बख्शता है, उसको गुरु के द्वारा समझ पड़ जाती है।3।

पउड़ी ॥ नानक जीअ उपाइ कै लिखि नावै धरमु बहालिआ ॥ ओथै सचे ही सचि निबड़ै चुणि वखि कढे जजमालिआ ॥ थाउ न पाइनि कूड़िआर मुह काल्है दोजकि चालिआ ॥ तेरै नाइ रते से जिणि गए हारि गए सि ठगण वालिआ ॥ लिखि नावै धरमु बहालिआ ॥२॥

पद्अर्थ: जीअ उपाइ कै = जीवों को पैदा करके। धरमु = धर्म राज। लिखि नावै = नाम लिखने के लिए, जीवों के किए कर्मों का लेखा लिखने के लिए। ओथै = उस धर्मराज के आगे। निबड़ै = निबड़ती है। चुणि = चुन के। जजमालिआ = जजामी जीव, कोहड़ ग्रसित जीव, गंदे जीव, मंद कर्मी जीव। सचे ही सचि = केवल सत्य द्वारा, वहाँ निस्तारे का माप ‘केवल सच’ है।

नोट: इस पौड़ी की दूसरी तुक का पाठ आम तौर पे गलत किया जा रहा है,‘सचे ही सचि’ की जगह ‘सचो ही सचु’ प्रचलित हो गया है। व्याकरण से नावाकिफ होने के कारण ‘सचे ही सचि’ अशुद्ध प्रतीत होने लग पड़ा। शायद किसी सज्जन को ये ख्याल आ गया हो कि छपने में गलती के कारण ‘सचे ही सचि’ छप गया है, चाहिए ‘सचो ही सचु’ था। कई सज्जन गुटकों में और टीकों में ‘सचे ही सचि’ की जगह ‘सचो ही सचु’ छापने लग पड़े हैं।

पद्अर्थ: थाउ न पाइनि = जगह नहीं पाते। मुह काल्है = काले मुंह से, मुंह काला करके। दोजकि = नर्क में। चालिआ = डाले जाते हैं, धकेले जाते हैं। तेरै नाइ = तेरे नाम में। जिणि = जीत के। हारि = (बाजी) हार के। सि = वह मनुष्य। ठगण वालिआ = ठगने वाले मनुष्य, छल फरेब करने वाले मनुष्य।2।

अर्थ: हे नानक! जीवों को पैदा करके परमात्मा ने धर्म-राज को (उनके सिर पर) स्थापित किया हुआ है कि जीवों के किए कर्मों का लेखा लिखता रहे।

धर्मराज की कचहरि में केवल सत्य द्वारा (जीवों के कर्मों का) निबेड़ा होता है (भाव, वहां निर्णय का माप ‘केवल सच’ है, जिनके पल्ले ‘सच’ होता है उनको आदर मिलता है और) बुरे कामों वाले जीव चुन के अलग कर दिए जाते हैं। झूठ-ठगी करने वाले जीवों को वहाँ ठिकाना नहीं मिलता; काला मुंह करके उन्हें नरक में धकेल दिया जाता है।

(हे प्रभु!) जो मनुष्य तेरे नाम में रंगे हुए हैं, वे (यहाँ से) बाजी जीत के जाते हैं और ठगी करने वाले बंदे (मानव जनम की बाजी) हार के जाते हैं। (तूने हे प्रभु!) धर्म-राज को (जीवों के किए कर्मों का) लेखा लिखने के लिए (उन पर) नियुक्त किया हुआ है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh