श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 464 सलोक मः १ ॥ विसमादु नाद विसमादु वेद ॥ विसमादु जीअ विसमादु भेद ॥ विसमादु रूप विसमादु रंग ॥ विसमादु नागे फिरहि जंत ॥ विसमादु पउणु विसमादु पाणी ॥ विसमादु अगनी खेडहि विडाणी ॥ विसमादु धरती विसमादु खाणी ॥ विसमादु सादि लगहि पराणी ॥ विसमादु संजोगु विसमादु विजोगु ॥ विसमादु भुख विसमादु भोगु ॥ विसमादु सिफति विसमादु सालाह ॥ विसमादु उझड़ विसमादु राह ॥ विसमादु नेड़ै विसमादु दूरि ॥ विसमादु देखै हाजरा हजूरि ॥ वेखि विडाणु रहिआ विसमादु ॥ नानक बुझणु पूरै भागि ॥१॥ नोट: (विसमादु) संस्कृत की पुस्तकों में साधारण तौर पर काव्य के आठ रस (वलवले, तरंगें) गिने गए हैं, श्रृंगार, हास्य, करुणा, रौद्र वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत)। पर कई बार ‘शांति रस’ मिला के कुल नौ रस निहित किए जाते हैं। ‘अद्भुत’ रस क्या है? हैरानगी; आश्चर्यता, विस्माद। कुदरत के बेअंत रंगा = रंग पदार्थों को देख के मनुष्य के मन में एक हैरानगी पैदा होती है, जिससे एक ‘अद्भुत’ रस उत्पन्न होता है। कुदरति के बेअंत पदार्थों को देख के (जिन्हें देख के मनुष्य की बुद्धि चकित सी हो जाये, जिनसे कादर की कारीगरी का कमाल प्रकट हो) मनुष्य के मन में एक थर्राहट सी, एक कंपन सा आ जाता है। इस कंपकपी को ‘विसमाद’ कहा जाता है। पद्अर्थ: नाद = आवाज, राग। वेद = हिन्दू मत की धर्म पुस्तक। भेद = जीवों के भेद, जीवों की बेअंत किस्में। अगनी खेडहि विडाणी = अग्नि जो आश्चर्य खेलें खेलती हैं। नोट: अग्नि कई किस्मों की मानी जाती हैं: बड़वा अग्नि, जो समंद्र में है; दावा अग्नि, जंगल की आग; जठर अग्नि, पेट की आग जो भोजन पचाती है; कोप अग्नि; चिन्ता अग्नि; ज्ञान अग्नि; राज अग्नि। हवा की अग्नि तीन किस्म की हैं: गारपत्य, आहनीय, दक्षिण। खाणी = सृष्टि की उत्पत्ति की चारों खानें: अण्ड, जेर, उदक, सेत (अण्डा, जिउर, पानी और पसीना); इन चारों खाणियों की पैदायश के नाम इनके अनुसार ये हैं: अण्डज, जेरज, उत्भुज व सेतज। सादि = स्वाद में। संजोगु = मेल, जीवों का मेल। विजोगु = बिछोड़ा। भोगु = पदार्थों का बरतना। उझड़ = असली राह से विछुड़ के गलत रास्ते। विडाणु = आश्चर्य करिश्मा। वेखि = देख के। रहिआ विसमादु = विसमाद पैदा हो रहा है, हृदय में थर्राहट पैदा हो रही है, मन में कंपन छिड़ रही है। बुझणु = (इस करिश्में को) समझना। अर्थ: हे नानक! (ईश्वर की) आश्चर्यजनक कुदरति को पूरे भाग्यो से ही समझा जा सकता है; इस को देख के मन में कंपन छिड़ रहा है। कई नाद और कई वेद; बेअंत जीव और जीवों के कई भेद; जीवों के व अन्य पदार्थों के कई रूप और कई रंग - ये सब कुछ देख के विस्माद अवस्था बन रही है। कई जंतु (सदा) नंगे ही घूम रहे हैं; कहीं पवन है कहीं पानी है, कहीं कई अग्नि आश्चर्य खेल खेल रही हैं; धरती पे धरती के जीवों की उत्पत्ति की चारों खाणियां- ये कुदरति देख के मन में हलचल पैदा हो रही है। जीव पदार्थों के स्वाद में लग रहे हैं; कहीं जीवों का मेल है, कहीं विछोड़ा है; कहीं भूख (सता रही है), कहीं पदार्थों का भोग है (भाव, कहीं कई पदार्थ खाए जा रहे हैं), कहीं (कुदरति के मालिक की) महिमा हो रही है, कहीं गलत राह है, कहीं राह है; ये आश्चर्य देख के मन में हैरानी हो रही है। (कोई कहता है कि ईश्वर) नजदीक है (कोई कहता है कि) सब जगह व्यापक हो के जीवों की संभाल कर रहा है; इस आश्चर्यजनक करिश्मे को देख के झन्नाहट छिड़ रही है। हे नानक! इस इलाही तमाशे को बड़े भाग्यों से समझा जा सकता है।1। मः १ ॥ कुदरति दिसै कुदरति सुणीऐ कुदरति भउ सुख सारु ॥ कुदरति पाताली आकासी कुदरति सरब आकारु ॥ कुदरति वेद पुराण कतेबा कुदरति सरब वीचारु ॥ कुदरति खाणा पीणा पैन्हणु कुदरति सरब पिआरु ॥ कुदरति जाती जिनसी रंगी कुदरति जीअ जहान ॥ कुदरति नेकीआ कुदरति बदीआ कुदरति मानु अभिमानु ॥ कुदरति पउणु पाणी बैसंतरु कुदरति धरती खाकु ॥ सभ तेरी कुदरति तूं कादिरु करता पाकी नाई पाकु ॥ नानक हुकमै अंदरि वेखै वरतै ताको ताकु ॥२॥ पद्अर्थ: कुदरति = कला, आश्चर्य, आश्चर्य तमाशा। दिसै = जो कुछ दिख रहा है। सुख सारु = सुखों का सार। सरब आकारु = सारा दिखाई दे रहा स्वरूप, सारा जगत। कतेबां = मुसलमानों और इसाईयों की धर्म पुस्तकें। सरब वीचारु = सारा विचार, सारी विचार सत्ता। जीअ जहान = जगत के जीवों में। मानु = आदर। अभिमानु = अहंकार। बैसंतरु = आग। पाकी = पवित्र। नाई = बड़ाई, महिमा। पाकु = (तू स्वयं) पवित्र (है)। वेखै = संभाल करता है। ताको ताकु = अकेला खुद ही खुद। वरतै = बरत रहा है, मौजूद है। अर्थ: (हे प्रभु!) जो कुछ दिखाई दे रहा है और जो सुनाई दे रहा है, ये सब तेरी ही कला है; ये भव (भावना) जो सुखों का मूल है, ये भी तेरी कुदरति है। पातालों में आकाशों में तेरी ही कुदरति है, ये सारा आकार (भाव, ये सारा जगत जो दिखाई दे रहा है) तेरी ही आश्चर्यजनक खेल है। वेद, पुराण और कतेब, (और भी) सारी विचार-सत्ता तेरी ही कला है; (जीवों का) खाना, पीना, पहनना (ये विचार) और (जगत में) सारा प्यार (का जजबा) ये सब तेरी कुदरति है। जातियों में, जिनसों में, रंगों में, जगत के जीवों में तेरी ही कुदरति बरत रही है, (जगत में) कहीं भलाई के काम हो रहे हैं, कहीं विकार हैं; कहीं किसी का आदर हो रहा है, कहीं अहंकार प्रधान है - ये तेरा आश्चर्य भरा करिश्मा है। पवन, पानी, आग, धरती की खाक (आदि तत्व), ये सारे तेरा ही तमाशा हैं। (हे प्रभु!) सब तेरी ही कला बरत रही है, तू कुदरत का मालिक है, तू ही इस खेल का रचनहार है, तेरी बड़ाई स्वच्छ से स्वच्छ है, तू स्वयं पवित्र (हस्ती वाला) है। हे नानक! प्रभु (इस सारी कुदरति को) अपने हुक्म में (रख के) संभाल कर रहा है, (और सब जगह, अकेला) खुद ही खुद मौजूद है।2। पउड़ी ॥ आपीन्है भोग भोगि कै होइ भसमड़ि भउरु सिधाइआ ॥ वडा होआ दुनीदारु गलि संगलु घति चलाइआ ॥ अगै करणी कीरति वाचीऐ बहि लेखा करि समझाइआ ॥ थाउ न होवी पउदीई हुणि सुणीऐ किआ रूआइआ ॥ मनि अंधै जनमु गवाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: भोग = पदार्थों के भोग। भोगि कै = भोग के, इस्तेमाल करके। भसमति = भसम की मढ़ी, भस्म की ढेरी। भउरु = आत्मा। वडा होआ = मर गया। दुनीदारु = दुनियादार, दुनिया में खचित हुआ जीव। गलि = गले में। घति = डाल के। चलाइआ = आगे लगा लिया। अगै = परलोक में। करणी = मेहनत-कमाई, कार्य। कीरति = कीर्ति, बड़ाई, महिमा। वाचीऐ = वाची जाती है, लेखे में गिनी जाती है। बहि = बैठ के भाव धैर्य से अच्छी तरह। थाउ न होवी = जगह नहीं मिलती। पउदीई = पड़तीं, जुत्तियां पड़ती हैं। हुणि = अब, इस वक्त, जब मार पड़ती है। किआ रुआइआ = कौन सी पुकार, कौन सा रोना, कौन सा तरला। सुणीऐ = सुना जाता है। मनि = मन ने। अंधै = अंधे ने। गवाइआ = व्यर्थ कर लिया।3। अर्थ: ईश्वर स्वयं ही (जीव रूप हो के) पदार्थों के रंग भोगता है (ये भी उसकी आश्चर्यजनक कुदरति है)। (शरीर) मिट्टी की ढेरी हो जाता है (और आखिर जीवात्मा रूप) भौरा (शरीर को छोड़ के) चल पड़ता है। (इस तरह का) दुनिया के धंधों में फंसा हुआ जीव (जब) मरता है, (इसके) गले में संगल डाल के संगली डाल के आगे लगा लिया जाता है (भाव, माया ग्रसित जीव जगत को छोड़ना नहीं चाहता और ‘हंस चलसी डुमणा)। परलोक में (भाव, धर्मराज के दरबार में, देखें पौड़ी 2) ईश्वर की महिमा रूपी कमाई ही स्वीकार होती है, वहाँ (जीव के किए कर्मों का) हिसाब अच्छी तरह (इसे) समझा दिया जाता है। (माया के भोगों में ही फसे रहने के कारण) वहाँ मार पड़ते को कहीं जगह नहीं मिलती, उस वक्त इसकी कोई चीख-पुकार नहीं सुनी जाती। मूर्ख मन (वाला जीव) अपना (मानव) जनम व्यर्थ गवा लेता है।3। सलोक मः १ ॥ भै विचि पवणु वहै सदवाउ ॥ भै विचि चलहि लख दरीआउ ॥ भै विचि अगनि कढै वेगारि ॥ भै विचि धरती दबी भारि ॥ भै विचि इंदु फिरै सिर भारि ॥ भै विचि राजा धरम दुआरु ॥ भै विचि सूरजु भै विचि चंदु ॥ कोह करोड़ी चलत न अंतु ॥ भै विचि सिध बुध सुर नाथ ॥ भै विचि आडाणे आकास ॥ भै विचि जोध महाबल सूर ॥ भै विचि आवहि जावहि पूर ॥ सगलिआ भउ लिखिआ सिरि लेखु ॥ नानक निरभउ निरंकारु सचु एकु ॥१॥ नोट: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के कर्ता ने गुरु नानक साहिब पर ये दूषण लगाया है कि वे संस्कृत नहीं जानते थे, पर अपने आप को संस्कृत का विद्वान प्रगट करने की कोशिश करते थे, क्योंकि उन्होंने संस्कृत के ‘भय’ की जगह ‘भउ’ का प्रयोग किया है। इस विषय में जो सज्जन विस्तार से विचार पढ़ना चाहते हैं, वह मेरे ‘गुरबाणी व्याकरण’ के अंक ‘वर्णबोध’ को पढ़ें। पद्अर्थ: भै विचि = डर में। पवणु वहै = हवा बहती है। सदवाउ = सदा+एव, सदा ही। चलहि = चलते हैं। कढै वेगारि = वगार निकालती है। भारि = भार के तले। इंदु = इन्द्र देवता, बादल। फिरै = घूमता है। सिर भार = सिर के भार। राजा धरमु दुआरु = धर्म राज के द्वार। कोह करोड़ी = करोड़ों कोस। सिध = अणिमा आदि आठ सिद्धियों को जिस महात्माओं ने प्राप्त कर लिया होता था, उन्हे सिद्ध कहा जाता था; पहुँचे हुए जोगी। बुध = ज्ञानवान, जो जगत के मायावी बंधनों से मुक्त हैं। आडाणे = तने हुए। महाबल = बड़े बल वाले। आवहि = (जो भी जीव जगत में) आते हैं। पूर = सारे के सारे जीव जो इस संसार जगत में जिंदगी रूपी बेड़ी में बैठे हुए हैं। सगलिआ सिरि = सारे जीवों के सिर पर। लेखु लिखिआ = भउ रूपी लेख लिखा हुआ है। अर्थ: हवा सदा ही ईश्वर के डर में चल रही है। लाखों नदियां भी भय में बह रही हैं। आग जो सेवा कर रही है, ये भी रब के भय में ही है, सारी धरती ईश्वर के डर के कारण ही भार तले दबी हुई है। रब के भय में इन्द्र राजा सिर के बल घूम रहा है (भाव, बादल उसकी ही रजा में उड़ रहे हैं)। धर्मराज का दरबार भी रब के डर में है। सूर्य भी और चंद्रमा भी रब के हुक्म में हैं, करोड़ों कोस चलते (भी) हुए रास्ते का अंत नहीं आता। सिद्ध, बुद्ध, देवते और नाथ - सारे ही रब के भय में हैं। ये ऊपर तने हुआ आकाश (जो दिखते हैं, ये भी) भय में ही है। बड़े’बड़े बलशाली योद्धे और शूरवीर सब रब के भय में हैं। पुरों के पुर जीव जो जगत में पैदा होते हैं और मरते हैं, सब भय में है। सारे ही जीवों के माथे पर भउ-रूप लेख लिखा हुआ है, भाव, प्रभु का नियम ही ऐसा है कि सारे उस के भय में हैं। हे नानक! केवल एक सच्चा निरंकार ही भय-रहित है।1। मः १ ॥ नानक निरभउ निरंकारु होरि केते राम रवाल ॥ केतीआ कंन्ह कहाणीआ केते बेद बीचार ॥ केते नचहि मंगते गिड़ि मुड़ि पूरहि ताल ॥ बाजारी बाजार महि आइ कढहि बाजार ॥ गावहि राजे राणीआ बोलहि आल पताल ॥ लख टकिआ के मुंदड़े लख टकिआ के हार ॥ जितु तनि पाईअहि नानका से तन होवहि छार ॥ गिआनु न गलीई ढूढीऐ कथना करड़ा सारु ॥ करमि मिलै ता पाईऐ होर हिकमति हुकमु खुआरु ॥२॥ पद्अर्थ: होरि = (निरंकार के बिना) और सारे। रवाल = धूल, (भाव) तुच्छ। केतीआ = कितनी ही, बेअंत। कंन्ह कहाणीआ = कान्हा की कहानियां, कृष्ण की कहानियां। गिड़ि मुड़ि = पलट पलट के। बाजारी = रास धारने वाले। आइ कढहि बाजार = आ के रास डालते हैं। आल = चाल, ठगी। आल पताल = पाताल के आल, बड़ी गहरी चालों के वचन, वह वचन जो दूसरों की समझ में ना आएं। मुंदड़े = कानों के मुंदरे। जितु तनि = जिस जिस शरीर पर। पाईअहि = पाए जाते हैं। गलीई = बातों से। कथना = बयान करना। सारु = लोहा। करमि = (प्रभु की) किरपा से। हिकमति = चालाकी ढंग। अर्थ: हे नानक! एक निरंकार ही भय-रहित है, (अवतारी) राम (जी) जैसे कई और (उस निरंकार के सामने) तुच्छ हैं; (उस निरंकार के ज्ञान के मुकाबले में) कृष्ण (जी) की कई कहानियां व वेदों के कई विचार भी तुच्छ हैं। (उस निरंकार का ज्ञान प्राप्त करने के लिए) कई मनुष्य भिखारी बन के नाचते हैं और कई तरह के ताल पूरते हैं, रासधारिए भी बाजारों में आकर रास डालते हैं, राजे व राणियों के स्वरूप बना-बना कर गाते हैं और (मुंह से) कई ढंगों के वचन बोलते हैं, लाखों रुपयों के (भाव, कीमती) मुंदरे व हार पहनते हैं; पर, हे नानक! (वे बिचारे ये नहीं जानते कि ये मुंदरे और हार तो) जिस शरीर पर पहने जाते हैं, वह शरीर (अंत को) राख हो जाने हैं (और इस गाने-नाचने से, इन मुन्द्रियों व हारों से ज्ञान कैसे मिल सकता है?) |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |