श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 465 पउड़ी ॥ नदरि करहि जे आपणी ता नदरी सतिगुरु पाइआ ॥ एहु जीउ बहुते जनम भरमिआ ता सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ सतिगुर जेवडु दाता को नही सभि सुणिअहु लोक सबाइआ ॥ सतिगुरि मिलिऐ सचु पाइआ जिन्ही विचहु आपु गवाइआ ॥ जिनि सचो सचु बुझाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: नदरि = मिहर की नजर। करहि = (हे प्रभु! तू) कर। नदरी = तेरी मेहर की नजर से। भरमिआ = भटक चुका। सतिगुरि = सतिगुरु ने। सभि लोक सबाइआ = हे सारे लोगो! सतिगुरि मिलीऐ = अगर सतिगुरु मिल जाए (कौन सा सतिगुरु? उत्तर: ‘जिनि सचो सचु बुझाइआ”)। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। जिनी = जिस मनुष्यों ने। आपु = अपना आप, अपनत्व, अहंकार। सचो सचु = सत्य ही सत्य, केवल सच। बुझाइआ = समझा दिया। जिनि = जिस (गुरु) ने। अर्थ: हे प्रभु! अगर तू (जीव पर) मेहर की नजर करे, तो उसे तेरी कृपा-दृष्टि से सतिगुरु मिल जाता है। ये (बेचारा) जीव (जब) बहुते जन्मों में भटक चुका (और तेरी मेहर की नजर हुई) तो इसे सतिगुरु ने अपना शब्द सुनाया। हे सारे लोगो! ध्यान दे के सुनो, सतिगुरु के बराबर का और कोई दाता नहीं है। जिस मनुष्यों ने अपने अंदर से आपा-भाव गवा दिया है, उनको उस सतिगुरु के मिलने से सच्चे प्रभु की प्राप्ति हो गई, जिस सतिगुरु ने केवल सच्चे प्रभु की समझ पाई है (भाव, जो मनुष्य अपने अंदर से स्वैभाव गवाते हैं, उनको उस सतिगुरु के मिलने से सच्चे रब की प्राप्ति हो जाती है, जो सतिगुरु सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की सूझ देता है)।4। सलोक मः १ ॥ घड़ीआ सभे गोपीआ पहर कंन्ह गोपाल ॥ गहणे पउणु पाणी बैसंतरु चंदु सूरजु अवतार ॥ सगली धरती मालु धनु वरतणि सरब जंजाल ॥ नानक मुसै गिआन विहूणी खाइ गइआ जमकालु ॥१॥ पद्अर्थ: घड़ीआ = जैसे संस्कृत का ‘घट’ से ‘घड़ा’ पंजाबी शब्द है, जैसे संस्कृत के ‘कटक’ से ‘कड़ा’ पंजाबी शब्द है, वैसे ही संस्कृत ‘घटिका’ से पंजाबी में ‘घड़ी’ है। ‘घड़ी’ समय के भाग का नाम है, जो 24 मिनटों को बराबर होती है। गोपी = गायों की रक्षा करने वाली, गुजराणी। ये शब्द ‘गोपी’ खास तौर पर बिंद्रावन की गुजराणियों के वास्ते बरता जाता है जो कृष्ण जी के गोकुल रहने के समय उनके साथ खेला करती थीं। कृष्ण जी का जन्म तो मथुरा में हुआ था, जो हिन्दू मत के अनुसार भारत सब से ज्यादा सात पवित्र नगरियों में से एक है। वे सात नगरियां हैं: अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका और पुरी। पहर = सारे दिन का आठवां हिस्सा, जो 3 घंटे के बराबर होता है। कंन्ह = संस्कृत शब्द ‘कृष्ण’ का प्राकृत रूप है। गोपाल = कृष्ण जी का नाम है। बैसंतर = आग। मुसै = ठगी जा रही है। विहूणी = खाली, वंचित। अर्थ: (सारी) घड़ियां (जैसे) गोपियां हैं; (दिन के सारे) पहर (जैसे) कान्ह हैं; पवन पानी और आग (जैसे) गहने हैं (जो उन गोपियों ने डाले हुए हैं)। (रासों में रासधारिए अवतारों के स्वांग बना-बना के गाते हैं, कुदरति की रास में) चंद्रमा और सूर्य (जैसे) दो अवतार हैं। सारी धरती (रास डालने के लिए) माल धन है, और (जगत के धंधे) रास का वरतण-ववेला हैं। (माया की इस रास में) ज्ञान से वंचित दुनिया ठगी जा रही है, और इसको जमकाल खाए जा रहा है।1। भाव: ये जगत ईश्वर की नृत्यकारी का स्थल है, इसमें पवन, पानी, अग्नि, धरती आदि तत्वों से बने हुए सुंदर पदार्थ देख के जीव मोहित हो रहे हैं, और अपनी उम्र इसी मस्ती में व्यर्थ ही गवा रहे हैं। मः १ ॥ वाइनि चेले नचनि गुर ॥ पैर हलाइनि फेरन्हि सिर ॥ उडि उडि रावा झाटै पाइ ॥ वेखै लोकु हसै घरि जाइ ॥ रोटीआ कारणि पूरहि ताल ॥ आपु पछाड़हि धरती नालि ॥ गावनि गोपीआ गावनि कान्ह ॥ गावनि सीता राजे राम ॥ निरभउ निरंकारु सचु नामु ॥ जा का कीआ सगल जहानु ॥ सेवक सेवहि करमि चड़ाउ ॥ भिंनी रैणि जिन्हा मनि चाउ ॥ सिखी सिखिआ गुर वीचारि ॥ नदरी करमि लघाए पारि ॥ कोलू चरखा चकी चकु ॥ थल वारोले बहुतु अनंतु ॥ लाटू माधाणीआ अनगाह ॥ पंखी भउदीआ लैनि न साह ॥ सूऐ चाड़ि भवाईअहि जंत ॥ नानक भउदिआ गणत न अंत ॥ बंधन बंधि भवाए सोइ ॥ पइऐ किरति नचै सभु कोइ ॥ नचि नचि हसहि चलहि से रोइ ॥ उडि न जाही सिध न होहि ॥ नचणु कुदणु मन का चाउ ॥ नानक जिन्ह मनि भउ तिन्हा मनि भाउ ॥२॥ पद्अर्थ: वाइनि = (साज) बजाते हैं। रावा = घट्टा, धूल। झाटै = झाटे में। पूरहि ताल = ताल मिलाते हैं, नाचते हैं। पछाड़हि = पछाड़ते हें, मरते हैं। गावनि गोपीआ = गोपियों (का स्वांग बना के) गाते हैं। करमि = (प्रभु की) बख्शिश से। चढ़ाउ = चढ़दी कला, प्रगति। रैणि = रात, जिंदगी रूप रात। सिखी = सीख ली। गुर वीचारि = गुरु के विचार द्वारा। थल वारोले = कुम्हार के चक्के का चक्कर। अनगाह = अंन गाहने वाले फले। भउदीआ = भंभीरियां। बधन बंधि = बंधनों में बंध के। पइऐ किरति = किए हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार। होइ = हो के। उडि न जाही = (किसी ऊँची अवस्था पर) उड़ के नहीं पहुँचते। अर्थ: (जब रास डालते हैं) चेले साज बजाते हैं, और उन चेलों के गुरु नाचते हैं। (नाच के समय वे गुरु) पैरों को हिलाते हैं सिर फेरते हें। (उनके पैरों से) धूल उड़-उड़ के सिर में पड़ती है, (रास तमाशा देखने आए हुए) लोग (उनको नाचता) देखते हैं और हसते हैं (शब्दों में-लोक देखता है और हसता है)। (पर वह रासधारिए) रोजी की खातिर नाचते हैं और अपने आप को जमीन पे मारते हैं। गोपियों (के स्वांग बन-बन के) गाते हैं, कान्ह (के स्वांग बन के) गाते हैं, सीता राम जी व और राजाओं के स्वांग बन के गाते हैं। जिस प्रभु का सारा जगत बनाया हुआ है, जो निडर है, आकार-रहित है और जिस का नाम सदा अटल है, उसको (केवल वही) सेवक स्मरण करते हैं, जिनके अंदर (ईश्वर की) मेहर से चढ़दीकला है। जिस के मन में (स्मरण करने का) उत्साह है, उन सेवकों की जिंदगी रूपी रात अच्छी गुजरती है; ये शिक्षा जिन्होंने गुरु की मति से सीख ली है, मेहर की नजर वाला प्रभु अपनी बख्शिश द्वारा उनको संसार समुंदर से पार लंघा देता है। (नाचने और फेरियां लेने वाले जीवन का उद्धार नहीं हो सकता, देखो बेअंत पदार्थ और जीव हमेशा भटकते रहते हैं) कोल्हू, चर्खा, चक्की, कुम्हार के चक थल के बेअंत चक्कर, लट्टू, मथानियां, फले, पंछी, भंभीरियां जो एक सांस में उड़ती रहती हैं: ये सब चक्कर खाते रहते हैं। सूल पर चढ़ा के कई जंतु घुमाए जाते हैं। हे नानक! भटकने वाला जीवों का अंत नहीं पड़ सकता। (इसी तरह) वह प्रभु जीवों को (माया की) जंजीरों में जकड़ के घुमाता है, हरेक जीव अपने किए कर्मों के अनुसार नाच रहा है। जो जीव नाच-नाच के हसते हैं, वे (अंत में यहाँ से) रो के जाते हैं। (वैसे) भी नाचने-कूदने को उच्च अवस्था पर नहीं पहुँच सकता, ना ही वह सिद्ध बन जाता है। नचना-कूदना (केवल) मन का शौक है, हे नानक! प्रेम केवल उनके मन में ही है जिनके मन में रब का डर है।2। पउड़ी ॥ नाउ तेरा निरंकारु है नाइ लइऐ नरकि न जाईऐ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा दे खाजै आखि गवाईऐ ॥ जे लोड़हि चंगा आपणा करि पुंनहु नीचु सदाईऐ ॥ जे जरवाणा परहरै जरु वेस करेदी आईऐ ॥ को रहै न भरीऐ पाईऐ ॥५॥ पद्अर्थ: नाइ लइऐ = अगर (तेरा) नाम स्मरण करें। पिंडु = शरीर। तिस दा = उस (ईश्वर) का। खाजे = खाजा, खुराक, भोजन। लोड़हि = तू चाहता है। करि पुंनहु = भलाई करके। जरवाण = बलवान। जरु = बुढ़ापा। परहरै = छोड़ना चाहता है। वेस करेदी = वेश धार धार के। आईऐ = (बुढ़ापा) आ रहा है। भरीऐ पाईऐ = जब पाई भर जाती है, जब स्वास पूरे हो जाते हैं। अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा नाम निरंकार है, अगर तेरा नाम स्मरण करें तो नर्क में नहीं पड़ते। ये जिंद और शरीर सब कुछ प्रभु का ही है, वही (जीवों को) खाने के लिए (भोजन) देता है, (कितना देता है) ये अंदाजा लगाना व्यर्थ का प्रयत्न है। हे जीव! अगर तू अपनी भलाई चाहता है, तो अच्छे काम करके भी अपने आप को छोटा कहलवा। अगर (कोई जीव) बुढ़ापे को परे हटाना चाहे (भाव, बुढ़ापे से बचना चाहे, तो ये यत्न फजूल है) बुढ़ापा वेष धार के आ ही जाता है। जब स्वास पूरे हो जाते हैं, तो कोई जीव यहाँ रह नहीं सकता।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |