श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 466 सलोक मः १ ॥ मुसलमाना सिफति सरीअति पड़ि पड़ि करहि बीचारु ॥ बंदे से जि पवहि विचि बंदी वेखण कउ दीदारु ॥ हिंदू सालाही सालाहनि दरसनि रूपि अपारु ॥ तीरथि नावहि अरचा पूजा अगर वासु बहकारु ॥ जोगी सुंनि धिआवन्हि जेते अलख नामु करतारु ॥ सूखम मूरति नामु निरंजन काइआ का आकारु ॥ सतीआ मनि संतोखु उपजै देणै कै वीचारि ॥ दे दे मंगहि सहसा गूणा सोभ करे संसारु ॥ चोरा जारा तै कूड़िआरा खाराबा वेकार ॥ इकि होदा खाइ चलहि ऐथाऊ तिना भि काई कार ॥ जलि थलि जीआ पुरीआ लोआ आकारा आकार ॥ ओइ जि आखहि सु तूंहै जाणहि तिना भि तेरी सार ॥ नानक भगता भुख सालाहणु सचु नामु आधारु ॥ सदा अनंदि रहहि दिनु राती गुणवंतिआ पा छारु ॥१॥ पद्अर्थ: बंदे से = (शरा अनुसार ये विचार करते हैं कि) बंदे वही हैं। बंदी = (शरा की) बंदिश। दरसन = शास्त्र। सालाहनि = सराहना करते हैं। दरसनि = शास्त्र द्वारा। सालाही = साराहनीय हरि को। रूपि = सुंदर। तीरथि = तीर्थ पर। अरचा = आदर सत्कार, पूजा। अगरवासु = चंदन की वासना। बहकारु = महक, खुशबो। सुंनि = सुंन्न में। सूखम मूरति = ईश्वर का वह स्वरूप जो इन स्थूल इन्द्रियों से नहीं देखा जा सकता। सती = दानी मनुष्य। देणै के वीचारि = (किसी को कुछ) देने के ख्याल में। संतोखु = खुशी, उत्साह। सहसा गूणा = (अपने दिए हुए से) हजार गुना (ज्यादा)। जारा = पर स्त्री गामी। तै = और। कूड़िआर = झूठ बोलने वाले। खराब = बुरे। वेकार = मंदकर्मी। इकि = कई मनुष्य। होदा = पास होती वस्तु। ऐथाऊ = यहाँ से, इस जगत से। खाइ चलहि = खा के चल पड़ते हैं। तिना भि = उनको भी। काई कार = कोई न कोई सेवा। जलि = जल में। जीआ = जीव। लोअ = लोग। आकारा आकार = सारे दृष्टमान ब्रहमण्डों के। ओइ = वह सारे जीव। जि = जो कुछ। तूं है = तू ही (हे प्रभु!)। सार = बल, ताकत, आसरा। भुख सालाहणु = महिमा रूपी भूख। आधारु = आसरा। पा छारु = पैरों की खाक।1। अर्थ: मुसलानों को शरह की महिमा (सबसे ज्यादा अच्छी लगती है), वे शराह को पढ़-पढ़ के (ये) विचार करते हैं (कि) रब का दीदार देखने के लिए जो मनुष्य (शरह की) बंदिश में पड़ते हैं, वही रब के बंदे हैं। (नोट: गुरबाणी को ध्यान से पढ़ के विचारने वाले सज्जन जानते हैं कि जब कभी सतिगुरु जी एक या कई मतों पर कोई विचार करते हैं, तो पहले आप उन मतों के विचार लिखते हैं, आखिर में अपना ज्ञान पेश करते हैं। इस श्लोक की अगर दो-दो तुकों को ध्यान से देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि इस्लाम, हिन्दू मत, जोग मत, दानी और विकारी आदि संबंधी गुरु साहिब ख्याल बता रहे हैं। कुल मिला के यही प्रतीत होता है कि इन सबका जिकर करके गुरु साहिब अपना सांझा ख्याल आखिर में बताते। इसलिए, ऊपर की दो तुकों में से पहली को इस्लाम संबंधी बरत के दूसरी को गुरमति का सिद्धांत बताना भूल है, क्योंकि ये नियम अगली दो तुकों में कहीं नहीं बरता गया। असल ‘वार’ निरी पौड़ियों से बनी हुई है। हरेक पौड़ी के साथ सटीक बैठते शब्द गुरु अरजन साहिब जी ने लिखे हुए हैं। जब इस पौड़ी के भाव को ध्यान से विचारें, तो भी: “उतमु एहु बीचारु है जिनि सचे सिउ चित लाइआ॥ जग जीवनु दाता पाइआ॥ ” वाला सिद्धांत श्लोक की आखिरी तुकों “नानक भगता भुख सालाहणु सचु नामु आधारु॥ सदा अनंदि रहहि दिनु राती गुणवंतिआ पा छारु” में से मिलता है।) अर्थ: हिन्दू, शास्त्र द्वारा सालाहने-योग्य सुंदर व बेअंत हरि को सालाहते हैं, हरेक तीर्थ पर नहाते हैं। (उनके मति के अनुसार जिसका वे समाधि में ध्यान धरते हैं वह) सूक्षम स्वरूप वाला है, उस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता और ये सारा (जगत रूप) आकार (उसी की ही) काया (शरीर) का है। जो मनुष्य दानी हैं उनके मन में खुशी पैदा होती है, जब (वे किसी जरूरतमंद को) कुछ देने की विचार करते हैं; (पर जरूरतमंदों को) दे दे के (वे अंदर-अंदर कर्तार से उससे) हजारों गुना ज्यादा मांगते हैं और (बाहर) जगत (उनके दान की) उपमा करता है। (दूसरी तरफ, जगत में) बेअंत चोर, पर-स्त्रीगामी, झूठे, बुरे और विकारी भी हैं, जो (विकार कर-कर के) पिछली की कमाई को खत्म कर के (यहाँ से खाली हाथ) चले जाते हैं (पर ये कर्तार के रंग हैं) उनको भी (उसी ने ही) कोई ऐसा काम सौंपा हुआ है। जल में रहने वाले, धरती पर बसने वाले, बेअंत पुरियां, लोक और ब्रहमाण्ड के जीव- वह सारे जो कुछ कहते हैं सब कुछ, (हे कर्तार!) तू जानता है, उनको तेरा ही आसरा है। हे नानक! भक्त-जनों को केवल प्रभु की महिमा करने की चाहत लगी हुई है, हरि का सदा अटल रहने वाला नाम ही उनका आसरा है। वह सदा दिन-रात आनंद में रहते हैं और (खुद को) गुणवानों के पैरों की ख़ाक समझते हैं।1। मः १ ॥ मिटी मुसलमान की पेड़ै पई कुम्हिआर ॥ घड़ि भांडे इटा कीआ जलदी करे पुकार ॥ जलि जलि रोवै बपुड़ी झड़ि झड़ि पवहि अंगिआर ॥ नानक जिनि करतै कारणु कीआ सो जाणै करतारु ॥२॥ पद्अर्थ: कीआ = बनाई। करे पुकार = (वह मिट्टी, मानो) पुकार करती है। जलि जलि = जल जल के। पवहि = (जमीन पे) गिरते हैं। जिनि करतै = जिस कर्तार ने। कारणु = जगत की माया।2। अर्थ: (मुसलमानों का ये विचार है कि मरने के बाद जिनका शरीर जलाया जाता है वे दोज़क की आग में जलते हैं, पर) उस जगह की मिट्टी भी जहाँ मुसलमान मुर्दे दबाते हैं (कई बार) कुम्हार के हाथ आ जाती है (भाव, वह मिट्टी चिकनी होने के कारण कुम्हार उस मिट्टी को बर्तन बनाने के लिए ले आते हैं); (कुम्हार उस मिट्टी को) घड़ के (उसके) बर्तन और ईटें बनाता है। (और भट्ठी में पड़ के, वह मिट्टी, मानो) जलती हुई पुकार करती है, जल के बिचारी रोती है और उस में से अंगिआरे झड़-झड़ के गिरते हैं, (पर निजात अथवा दोजक का, मुर्दा शरीर जलाने या दबाने से कोई संबंध नहीं है), हे नानक! जिस कर्तार ने जगत की माया रची है,वह (असल भेद को) जानता है।2। भाव: जब जीवात्मा अपना शरीर चोला छोड़ जाए, तो उस शरीर के दबाने अथवा जलाने आदि किसी क्रिया से जीवात्मा पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। जब तक जीवात्मा शरीर में थी, तब तक किए कर्मों के अनुसार ही उसकी किस्मत के अनुसार ही उसकी किस्मत का फैसला होता है। वह फैसला क्या है? हरेक जीव के संबंध में इस प्रश्न के उत्तर को तो एक ईश्वर ही जानता है, जिसने ये जगत-मर्यादा रची है (भाव, रब ही जानता है कि जीव अपनी कमाई के अनुसार उसके हुक्म में कहाँ जा पहुँचा है)। सो, ये झगड़ा व्यर्थ है। एक विचार जो हरेक जीव के लिए लाभदायक है, वह ये है; ‘उतमु ऐहु बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ॥ जग जीवनु दाता पाइआ॥’ तीसरे गुरु पातशाह जी भी इसी ख्याल को यूँ बयान करते हैं; ‘इक दझहि इक दबीअहि इकना कुते खाहि॥ इकि पाणी विचि उसटीअहि इकि भी फिरि हसणि पाहि॥ नानक ऐव न जापई किथै जाइ समाहि॥२॥१६॥’ सोरठि की वार म: ३ पउड़ी ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ ॥ सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ ॥ सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ ॥ उतमु एहु बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ ॥ जगजीवनु दाता पाइआ ॥६॥ नोट: ‘पाइओ’ और ‘पाइआ’ के अर्थ ये करने कि बीते समय में ‘पाया’ और ‘अब पाया’ व्याकरण अनुसार अशुद्ध हैं। ‘पाइओ’ और ‘पाइआ’ दोनों ही भूतकाल के रूप हैं, दोनों के एक ही अर्थ है। (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। दानों बार वही कह के इस बात पे जोर दिया गया है कि गुरु के बिना किसी को ईश्वर नहीं मिला। पद्अर्थ: किनै = किसी ने ही। पाइओ = पाया। रखिओनु = उसने रख दिया है (इस क्रिया-रूप को समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। सतिगुर मिलिऐ = अगर (ऐसा) गुरु मिल जाए। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत की जान (प्रभु)। अर्थ: किसी मनुष्य को (‘जग जीवनु दाता’) सतिगुरु के बिना (भाव, सतिगुरु की शरण पड़े बिना) नहीं मिला, (ये सच जानो कि) किसी मनुष्य को सतिगुरु की शरण पड़े बिना (‘जग जीवनु दाता’) नहीं मिला। (क्योंकि प्रभु ने) अपने आप को रखा ही सतिगुरु के अंदर है, (भाव, प्रभु गुरु के अंदर साक्षात विद्यमान है) (हमने अब ये बात सबको) खुल्लम-खुल्ला कह के सुना दी है। अगर (ऐसा) गुरु, जिसने अपने अंदर से (माया का) मोह दूर कर दिया है, मनुष्य को मिल जाए तो मनुष्य मुक्त (भाव, मायावी बंधनों से आजाद) हो जाता है। (और सारी समझदारियों से) ये विचार सुंदर है कि जिस मनुष्य ने अपने गुरु के साथ चित्त जोड़ा है उसको जग जीवन दाता मिल गया है।6। सलोक मः १ ॥ हउ विचि आइआ हउ विचि गइआ ॥ हउ विचि जमिआ हउ विचि मुआ ॥ हउ विचि दिता हउ विचि लइआ ॥ हउ विचि खटिआ हउ विचि गइआ ॥ हउ विचि सचिआरु कूड़िआरु ॥ हउ विचि पाप पुंन वीचारु ॥ हउ विचि नरकि सुरगि अवतारु ॥ हउ विचि हसै हउ विचि रोवै ॥ हउ विचि भरीऐ हउ विचि धोवै ॥ हउ विचि जाती जिनसी खोवै ॥ हउ विचि मूरखु हउ विचि सिआणा ॥ मोख मुकति की सार न जाणा ॥ हउ विचि माइआ हउ विचि छाइआ ॥ हउमै करि करि जंत उपाइआ ॥ हउमै बूझै ता दरु सूझै ॥ गिआन विहूणा कथि कथि लूझै ॥ नानक हुकमी लिखीऐ लेखु ॥ जेहा वेखहि तेहा वेखु ॥१॥ पद्अर्थ: हउ = मैं, जीव की अपनी ‘मैं’ का ख्याल, अपनी अलग हस्ती का विचार, ईश्वर से अलग अस्तित्व का विचार। गइआ = गवाया, नुकसान हुआ। नरकि सुरगि अवतारु = नर्क या स्वर्ग में पड़ना। भरीऐ = (पापों की मैल से) मलीन हो जाता है। जाती जिनसी = जात पात। सार = समझ। छाइआ = (माया का) साया। सूझै = सूझ पड़ता है, दिख जाता है। कथि कथि = कह कह के। लूझै = लूझता है, खिझता है। हुकमि = (रब के) हुक्म मुताबिक। लेखु = (ये अहंकार वाला) लेख, जीव के अंदर के ये संस्कार कि मैं अलग हस्ती हूँ। वेखहि = (जीव) देखते हैं (औरों की तरफ) देखते हैं, जीवों की नीयति होती है। वेखु = दृश्य, शकल, स्वरूप, अलग वजूद, मैं। अर्थ: (जब तक जीव) अहम् में (है, भाव, ईश्वर से और ईश्वर की कुदरत से अपनी अलग हस्ती बनाए बैठा है, तब तक कभी) जगत में आता है (कभी) जगत से चला जाता है, कभी पैदा होता है, कभी मरता है। जीव इस अलग अस्तित्व की सीमा में रह के कभी (किसी जरूरतमंद को) देता है, कभी (अपनी जरूरत पूरी करने के लिए किसी से) लेता है। इसी ‘मैं-मैं’ के ख्याल में (कि ये काम ‘मैं’ करता हूँ, ‘मैं’ करता हूँ) कभी कमाता कभी गवाता है। जब तक जीव मेर-तेर वाली हदबंदी में है, (लोगों की नजरों में) कभी सच्चा है कभी झूठा है जब तक अपने कादर से अलग अस्तित्व के भ्रम में है, तब तक अपने किए पापों और पुंन्यों की गिनती रहता है (भाव, ये सोचता है कि ‘मैंने’ ये भले काम किए हैं, ‘मैंने’ ये बुरे काम किए हैं) और इसी दुविधा में रहने के कारण (भाव, ईश्वर में अपना आप एक-रूप ना करने के कारण) कभी नर्क में जाता है कभी स्वर्ग में। जब तक अपने कर्तार से अलग अस्तित्व में जीव बंधा पड़ा है, तब तक कभी हसता है कभी रोता है (भाव, अपने आप को कभी सुखी समझता है कभी दुखी)। रब से अपनी हस्ती अलग रखने के कारण कभी उसका मन पापों की मैल में लिबड़ जाता है, कभी वह (अपने ही उद्यम के आसरे) उस मैल को धोता है। इस अलग अस्तित्व में (अहंम् में) ग्रसा हुआ जीव कभी जाति-पाति के ख्याल में पड़ के (भाव, ये ख्याल करके कि मैं उच्च जाति का हूँ) अपना आप गवा लेता है। जब तक जीव अपने अलग अस्तित्व की चार दिवारी के अंदर है, ये (लोगों की नजर में) कभी मूर्ख (गिना जाता) है कभी सयाना (पर, चाहे ये मूर्ख समझा जाए चाहे समझदार, जब तक इस सीमा में बंधा हुआ है, इस हदबंदी से बाहर होने की, भाव) मोक्ष-मुक्ति की समझ इसे नहीं आ सकती। जब तक ईश्वर से विछोड़े की हालत में है, तब तक जीव ‘माया माया’ (चिल्लाता फिरता है), तब तक इस पर माया का प्रभाव पड़ा हुआ है; ईश्वर से विछुड़ा रहके जीव बारंबार पैदा होता है। जब ईश्वर से (अपनी) विछुड़ी हुई हालत को समझ लेता है, भाव, जब इसे समझ आ जाती है में अलगाव वाली हदबंदी में कैद हूँ (रब से टूटा हुआ हूँ) तब इसे रब का दरवाजा मिल जाता है, (नहीं तो) जब तक इस ज्ञान से वंचित है, तब तक (ज़बानी) ज्ञान की बातें कह: कह के (अपने आपको ज्ञानवान समझ के अपना अंदर) नहीं बदलता। हे नानक! जीव जैसे जैसे देखते हैं, वैसा ही उनका स्वरूप बन जाता है (भाव, जिस जिस नीयत से दूसरे मनुष्यों के साथ बरतते हैं, उसी तरह के अंदर संस्कार इकट्ठे हो के वैसा ही उनका अपना मानसिक-स्वरूप बन जाता है, वैसी ही उनकी अपनी अलग हस्ती बन जाती है, वैसा ही उनका ‘अहम्’ बन जाता है, पर) ये लेख (भी) ईश्वर के हुक्म में लिखा जाता है (भाव, हरेक जीव की ये अलग-अलग हस्ती, अलग-अलग ‘अहम्’ ईश्वर के हुक्म के अनुसार ही बनती है, ईश्वर का एक ऐसा नियम बना हुआ है कि हरेक मनुष्य के अपने किए कर्मों के संस्कार अनुसार, उसके आस-पास अपने ही इन संस्कारों का जाल तनता जाता है, और इस तरह ईश्वरीय नियम के अनुसार उस मनुष्य की अपनी ही एक स्वार्थी हस्ती बन जाती है)।1। महला २ ॥ हउमै एहा जाति है हउमै करम कमाहि ॥ हउमै एई बंधना फिरि फिरि जोनी पाहि ॥ हउमै किथहु ऊपजै कितु संजमि इह जाइ ॥ हउमै एहो हुकमु है पइऐ किरति फिराहि ॥ हउमै दीरघ रोगु है दारू भी इसु माहि ॥ किरपा करे जे आपणी ता गुर का सबदु कमाहि ॥ नानकु कहै सुणहु जनहु इतु संजमि दुख जाहि ॥२॥ पद्अर्थ: जाति = कुदरती स्वभाव, लक्षण। हउमै करम = अहंकार के काम, वह काम जिनसे ‘अहंकार’ बना रहे। एई = यही। कितु संजमि = किस जुगति से, किस तरीके से। पइऐ किरति फिराहि = मेहनत-कमाई के पाने के कारण जीव फिरते हैं, किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जीव पुनः उन्हीं कामों को करने के वास्ते दौड़ते हैं। दीरघु = लंबा, ज्यादा समय रहने वाला। (नोट: किसी कुसंगत में पड़ के जब एक-दो बार शराब पी के किसी मनुष्य को शराब पीने का चस्का पड़ जाता है, तो वह चस्का ही दुबारा अपने आप उसे शराब-खाने की ओर लिए फिरता है; इस तरह उसका चस्का और बढ़ता जाता है और ये एक दीर्घ रोग बन जाता है। इसी तरह जो भी आदत एक बार बनती है वह अपने आप इस नियम के मुताबिक लंबी होती जाती है।) दारू भी = इलाज भी है (भाव, ये अहंकार बे-इलाज नहीं है)। इसु माहि = इस अहम् में, इस अहंकार का। नानक कहै = कहता है। इतु संजमि = इस जुगती से। (नोट: दारू भी इसु माहि: शब्द ‘भी’ जिस शब्द के साथ बरता जाता है, उच्चारण में और अर्थ में उस पर जोर देते हैं। इस उपरोक्त तुक में शब्द ‘दारू’ को बाकी शब्दों से ज्यादा जोर दे के पढ़ना है। इस तरह पाठ करने से इसके अर्थ भी स्पष्ट हो जाते हैं। कई सज्जन पढ़ते वक्त ‘इसु’ पे जोर देते हैं, नतीजतन, अर्थ करने में भटक जाते हैं क्योंकि ध्यान ‘इसु’ पर चला जाता है। यही कारण है अर्थ करने के वक्त ये पूछते सुने जाते हैं कि ‘इस अहंकार में ही दारू कैसे है’)। अर्थ: ‘अहंम्’ का स्वभाव यही है (भाव, अगर ईश्वर से अलगाव बना रहे तो नतीजा ये निकलता है कि जीव) वही काम करते हैं, जिससे ये अलग अस्तित्व टिका रहे। इस अलग अस्तित्व के बंधन भी यही हैं (भाव, अलग अस्तित्व के आसरे किए हुए कामों की संस्कार-रूपी जंजीर भी यही है, जिनमें घिरे हुए जीव) बार-बार जूनियों में पड़ते हैं। (सहज ही मन में प्रश्न उठता है कि जीव का) इस अलग हस्ती वाला भ्रम कहाँ से पैदा होता है और किस तरीके से ये दूर हो सकता है। (इसका उक्तर ये है कि) ये अलग व्यक्तित्व बनाने वाले ईश्वर का रब का हुक्म है और जीव पिछले किए हुए कर्मों को करने की ओर दौड़ते हैं (भाव, पहले ही व्यक्तित्व को कायम रखने वाले काम करना चाहते हैं)। ये अहंकार एक लंबा रोग है, पर ये ला-इलाज नहीं है, अगर प्रभु अपनी मेहर करे, तो जीव गुरु का शब्द कमाते हैं। नानक कहता है, हे लोगो! इस तरीके से (अहंकार-रूपी दीर्घ रोग से पैदा हुए) दुख दूर हो जाते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |