श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 468 पउड़ी ॥ भगत तेरै मनि भावदे दरि सोहनि कीरति गावदे ॥ नानक करमा बाहरे दरि ढोअ न लहन्ही धावदे ॥ इकि मूलु न बुझन्हि आपणा अणहोदा आपु गणाइदे ॥ हउ ढाढी का नीच जाति होरि उतम जाति सदाइदे ॥ तिन्ह मंगा जि तुझै धिआइदे ॥९॥ पद्अर्थ: तेरै मनि = तेरे मन में। दरि = दरवाजे पर। कीरति = शोभा, बड़ाई। करमा बाहरे = भाग्यहीन। ढोअ = आसरा। धावदे = भटकते फिरते हैं। इकि = कई जीव। मूलु = आदि, प्रभु। अणहोदा = (घर में) पदार्थ के बिना ही। आपु = आपने आप को। गणाइदे = बड़ा जतलाते हैं। हउ = मैं। ढाढी = स्तुति करने वाला, वार गाने वाला, भट्ट। ढाढी का = अदना सा ढाढी (जैसे ‘घट’ का ‘घटुका’ = छोटा सा घड़ा)। नीच जाति = नीच जाति वाला। होरि = और लोग। उतम जाति = ऊँची जाति वाले। अर्थ: (हे प्रभु!) तुझे अपने मन में भक्त प्यारे लगते हैं, जो तेरी महिमा कर रहे हैं और तेरे दर पर शोभा पा रहे हैं। हे नानक! भाग्यहीन मनुष्य भटकते फिरते हैं, उन्हें प्रभु के दर पर जगह नहीं मिलती, (क्योंकि) ये (विचारे) अपने असल को नहीं समझते, (ईश्वरीय गुणों की पूंजी अपने अंदर) हुए बिना ही अपने आप को बड़ा जतलाते हैं। (हे प्रभु!) मैं नीच जाति वाला (तेरे दर का) एक अदना सा ढाढी हूँ, और लोग (अपने आप को) ऊँची जाति वाला कहलवाते हैं। जो तेरा भजन करते हैं, मैं उनसे (तेरा ‘नाम’) मांगता हूँ।9। सलोकु मः १ ॥ कूड़ु राजा कूड़ु परजा कूड़ु सभु संसारु ॥ कूड़ु मंडप कूड़ु माड़ी कूड़ु बैसणहारु ॥ कूड़ु सुइना कूड़ु रुपा कूड़ु पैन्हणहारु ॥ कूड़ु काइआ कूड़ु कपड़ु कूड़ु रूपु अपारु ॥ कूड़ु मीआ कूड़ु बीबी खपि होए खारु ॥ कूड़ि कूड़ै नेहु लगा विसरिआ करतारु ॥ किसु नालि कीचै दोसती सभु जगु चलणहारु ॥ कूड़ु मिठा कूड़ु माखिउ कूड़ु डोबे पूरु ॥ नानकु वखाणै बेनती तुधु बाझु कूड़ो कूड़ु ॥१॥ पद्अर्थ: कूड़ु = कूड़, झूठ, छल, भ्रम। मंडप = शामियाने। माढ़ी = महल। बैसणहारु = (महल में) बसने वाला। रूपा = चाँदी। काइआ = शरीर। अपारु = बेअंत, बहुत। मीआ = पति। बीबी = बीवी, और, स्त्री। खपि = खचित हो के। खारु = ख्वार, जलील, बेइज्जत। कूड़ि = झूठ में, छल में। कूड़ै = झूठे मनुष्य का, छल में फसे हुए जीव का। कीचै = की जाए। मिठा = मीठा, स्वादिष्ट। पूरु = (जिंदगी रूपी बेड़ी है, सारे जीव इसके ‘पूर’ हैं); सारे जीव। नानकु वखाणै = नानक कहता है। कूड़ो कूड़ी = झूठ ही झूठ, छल ही छल।1। नोट: शब्द ‘कूड़’ विशेषण नहीं है, ‘संज्ञा’ है और पुलिंग है। यही कारण है कि ‘माड़ी’, ‘काइआ’, ‘बीबी’ आदि स्त्रीलिंग शब्दों के साथ भी शब्द ‘कूड़’ पुलिंग एक वचन ही है। नोट: इस श्लोक में शब्द ‘कूड़ु’, ‘कूड़ि’ और ‘कूड़ै’ तीनों समझने जरूरी हैं। ‘कूड़ु’ संज्ञा है, कर्ताकारक, एकवचन। ‘कूड़ि’ शब्द ‘कूड़ु’ से अधिकर्ण कारक, एक वचन है। ‘कूड़ै’ शब्द ‘कूड़ा’ से संबंध कारक, एक वचन है। स्मरणीय है कि शब्द ‘कूड़ै’ शब्द ‘कूड़ा’ से है, ‘कूड़ु’ से नहीं। शब्द ‘कूड़ा’ संस्कृत के शब्द ‘कूकट’ का प्राकृत और पंजाबी रूप है, जो विशेषण है और जिसका अर्थ है ‘झूठा, छल में फंसा हुआ’। अर्थ: ये सारा जगत छल रूप है (जैसे मदारी का सारा तमाशा एक छलावा है), (इसमें कोई) राजा (है, और कई लोग) प्रजा हैं। ये भी (मदारी के रूपए और खोपे आदि दिखाने के तरह) छल ही हैं। (इस जगत में कहीं इन राजाओं के) शामियाने व महल-माढ़ियां (है, ये) भी छल रूप हैं, और इनमें बसने वाला (राजा) भी छल ही है। सोना, चाँदी (और सोने-चाँदी को पहनने वाले भी) भ्रम ही हैं। ये शारीरिक आकार, (सुंदर-सुंदर) कपड़े और (शरीरों का) बेअंत सुंदर रूप ये भी सारे ही छलावे ही हैं। (प्रभु-मदारी, ये तमाशे आए हुए जीवों को खुश करने के लिए दिखा रहा है)। (प्रभु ने कहीं) मनुष्य (बना दिए, तो कहीं) स्त्रीयां; ये सारे भी छल रूप हैं, जो (इस स्त्री-मर्द वाले संबंध-रूपी छल में) खचित हो के ख्वार हो रहे हैं। (इस दृष्टमान) छल में फसे हुए जीव का छल में ही मोह बन गया है, इसलिए इसे अपने को पैदा करने वाला भूल गया है। (इसे याद नहीं रह गया कि) सारा जगत नाशवान है, किसी के साथ भी मोह नहीं डालना चाहिए। (ये सारा जगत है तो छल, पर ये) छल (सारे जीवों को) प्यारा लग रहा है, शहद (की तरह) मीठा लगता है, इस तरह ये छल सारे जीवों को डुबो रहा है। (हे प्रभु!) नानक (तेरे आगे) अर्ज करता है कि तेरे बिना (ये जगत) छल है।1। मः १ ॥ सचु ता परु जाणीऐ जा रिदै सचा होइ ॥ कूड़ की मलु उतरै तनु करे हछा धोइ ॥ सचु ता परु जाणीऐ जा सचि धरे पिआरु ॥ नाउ सुणि मनु रहसीऐ ता पाए मोख दुआरु ॥ सचु ता परु जाणीऐ जा जुगति जाणै जीउ ॥ धरति काइआ साधि कै विचि देइ करता बीउ ॥ सचु ता परु जाणीऐ जा सिख सची लेइ ॥ दइआ जाणै जीअ की किछु पुंनु दानु करेइ ॥ सचु तां परु जाणीऐ जा आतम तीरथि करे निवासु ॥ सतिगुरू नो पुछि कै बहि रहै करे निवासु ॥ सचु सभना होइ दारू पाप कढै धोइ ॥ नानकु वखाणै बेनती जिन सचु पलै होइ ॥२॥ पद्अर्थ: ता परु = तब ही, तभी। जाणीऐ = जाना जा सकता है। सचु = (शब्द ‘कूड़’ का विलोम है ‘सचु’; ‘कूड़ु’ का अर्थ है ‘छलु’ जो वास्तव में नहीं है अस्लियत नहीं है, उतनी ही देर है जब तक उसे बनाने वाला उसकी मौजूदगी चाहता है। इसके उलट ‘सचु’ का अर्थ है) अस्लियत। रिदै = हृदय में। सचा = अस्लियत वाला, हरि। कूड़ु की मलु = माया रूपी छल की (मन पर) मैल। रहसीऐ = खिल जाता है। मोख दुआरु = मुक्ति का दरवाजा, माया रूपी छल की जंजीरों से छूटने का रास्ता। जुगति = जिंदगी सुंदर तरीके से गुजारने का ढंग। धरति काइआ = शरीर रूपी धरती। देइ = दे दे, बीज दे। करता बीउ = कर्तार का (‘नाम’ रूप) बींज आतम तीरथि = आतम रूपी तीर्थ पर। बहि रहै = बैठा रहे, मन को विकारों की तरफ दौड़ने से रोके रखे। अर्थ: (जगत रूपी छल की ओर से वासना पलट के, जगत की) अस्लियत की समझ तभी आती है जब वह अस्लियत का मालिक (ईश्वर) मनुष्य के हृदय में टिक जाए। तब माया के छल का असर मन से दूर हो जाता है (फिर मन के साथ शरीर भी सुंदर हो जाता है, शारीरिक इंद्रिय भी गलत राह पर जाने से हट जाती हैं, जैसे) शरीर धुल के साफ हो जाता है। (माया-छल की ओर से मन के विचार हट के, कुदरत की) अस्लियत की समझ तभी आती है, जब मनुष्य उस अस्लियत में मन जोड़ता है, (तभी उस अस्लियत वाले का) नाम सुन के मनुष्य का मन खिलता है और उसे (माया के बंधनों से) स्वतंत्र होने का रास्ता मिल जाता है। जगत के असल, प्रभु की समझ तब ही पड़ती है, जब मनुष्य ईश्वरीय जीवन (गुजारने की) युक्ति जानता हो, भाव, शरीर रूपी धरती को तैयार करके इसमें प्रभु का नाम बीज दे। सच की परख तभी होती है, जब सच्ची शिक्षा (गुरु से) ले और (उस शिक्षा पर चल के) सब जीवों पर तरस करने की विधि सीखे और (जरूरतमंदों को) कुछ दान-पुन्न करे। उस धुर-अंदर की अस्लियत से तभी जान-पहिचान बनती है जब मनुष्य धुर-अंदर के तीर्थ में टिके, अपने गुरु से उपदेश ले के उस अंदर के तीर्थ में बैठा रहे, वहीं सदा निवास रखे। नानक अर्ज करता है जिस मनुष्यों के हृदय में अस्लियत का मालिक प्रभु टिका हुआ है, उनके सारे दुखों का इलाज वह स्वयं बन जाता है, (क्योंकि वह) सारे विकारों को (उस हृदय में से) धो के निकाल देता है (जहाँ वह बस रहा है)।2। पउड़ी ॥ दानु महिंडा तली खाकु जे मिलै त मसतकि लाईऐ ॥ कूड़ा लालचु छडीऐ होइ इक मनि अलखु धिआईऐ ॥ फलु तेवेहो पाईऐ जेवेही कार कमाईऐ ॥ जे होवै पूरबि लिखिआ ता धूड़ि तिन्हा दी पाईऐ ॥ मति थोड़ी सेव गवाईऐ ॥१०॥ पद्अर्थ: दानु = बख्शिश। महिंडा = मेरा, भाव मेरे वास्ते। तली खाकु = (पैरों की) तलियों की ख़ाक, चरण धूल। त = तो। कूड़ा = झूठ में फंसने वाला। अलखु = अदृष्ट। तेवेहो = वैसा ही। जेवेही = जिस तरह की। पूरबि = पहले से, आदि से, धुर से। लिखिआ = पिछलें किए हुए कर्मों के संस्कारों का वजूद। मति थोड़ी = अपनी मति थोड़ी हो, अगर अपनी थोड़ी मति की टेक रखें।10। अर्थ: (मेरा ये चित्त करता है कि मुझे संतों के) पैरों की ख़ाक का दान मिले। अगर ये दान मिल जाए, तो माथे पर लगानी चाहिए। (और) लालच, जो माया के जाल में ही फसाता है, छोड़ देना चाहिए, और मन को केवल प्रभु में जोड़ के उसकी भक्ति करनी चाहिए, (क्योंकि) मनुष्य जिस तरह की कार करता है, वैसा ही फल उसे मिल जाता है। पर, संत-जनों के पैरों की ख़ाक तभी मिलती है अगर अच्छे भाग्य हों। (गुरमुखों का आसरा छोड़ के) यदि अपनी होछी सी मति (तुच्छ बुद्धि) की टेक रखें तो (इस के आसरे) की हुई मेहनत व्यर्थ जाती है।10। सलोकु मः १ ॥ सचि कालु कूड़ु वरतिआ कलि कालख बेताल ॥ बीउ बीजि पति लै गए अब किउ उगवै दालि ॥ जे इकु होइ त उगवै रुती हू रुति होइ ॥ नानक पाहै बाहरा कोरै रंगु न सोइ ॥ भै विचि खु्मबि चड़ाईऐ सरमु पाहु तनि होइ ॥ नानक भगती जे रपै कूड़ै सोइ न कोइ ॥१॥ पद्अर्थ: सचि = सच में। सचि कालु = सच का काल पड़ गया है, अस्लियत की परख नहीं रही। कालख = कालापन, विकारों की स्याही। बेताल = भूत प्रेत। बीउ = नाम रूपी बींज बीजि = बीज के। किउ उगवै = क्यों उगे? , नहीं उग सकती। दालि = बीज के दोनों हिस्से अलग हो के दाल बन जाए। इकु = साबत बीज। रुती हू रुति = ऋतुओं में ऋतु, भाव अच्छी ऋतु। पाह = लाग, कपड़े को पक्का रंग चढ़ाने के लिए पानी में रंग से पहले जो चीज डाली जाती है। कोरै = कोरे (कपड़े) को। रंगु सोइ = वह (पक्का) रंग जो (होना चाहिए, भाव) बढ़िया पक्का रंग। सरमु = मेहनत। रपै = रंगा जाए। कूड़ै = झूठ की छल ठगी की। सोइ = सूह, खबर, भनक।1। नोट: इस शलोक में दो दृष्टांत दिए गए हैं पहली तीन तुकों में खेती बीजने का और दूसरी तीन तुकों में कपड़े रंगने का। पहले दृष्टांत में बताया गया है कि जैसे साबत दाना ही बीजने से उग सकता है, अगर दाना दल दिया जाए, तो नहीं उगता। इसी तरह अगर मन दो-फाड़ रहे, अर्थात अगर मन में दुचित्ता-पन रहे, तो ‘नाम’ का बीज नहीं उग सकता, फल फूल नहीं सकता। दूसरे दृष्टांत में लिखा है कि कोरे कपड़े को पक्का रंग नहीं चढ़ सकता। पहले खुंब पे चढ़ाने की जरूरत है, फिर रंग देने से पहले पाह देनी पड़ती है। इसी तरह इस कोरे मन को नाम में रंगने के वास्ते पहले ईश्वर के डर रूपी खुंब में चढ़ाने की जरूरत है। इस तरह इसका कोरापन (निर्दयता) दूर हो जाती है, जीव रब के डर में रहके जीवों पर तरस करने लग जाता है। फिर इस मन को मेहनत की पाह दी जाए, भाव आलस त्याग के उद्यमी बना रहे। तभी ईश्वर के भक्ति-रंग में रंगा हुआ सुंदर मनमोहक रंग वाला हो जाता है। अर्थ: (संसारिक जीवों के हृदय में से) सच उड़ गया है और झूठ ही झूठ प्रधान हो रहा है, कलियुग की (पापों की) कालिख के कारण जीव भूतने बन रहे हैं (भाव, जगत का मोह प्रबल हो रहा है, जगत के विधाता से सांझ बनाने का ख्याल जीवों के दिलों में से दूर हो रहा है, और स्मरण के बिना जीव मानो भूतने हैं)। जिन्होंने (हरि का नाम) बीज (अपने हृदयों में) बीजा, वे इस जगत से शोभा कमा के गए। पर अब (नाम का) अंकुर फूटने से रह गया है (क्योंकि मन) दाल की तरह (दो-फाड़ हो रहे हैं, भाव, दुचित्तेपन के कारण जीवों का मन नाम में नहीं जुड़ता)। बीज उगता तब ही है, अगर दाना (बीज) साबत हो और बीजने की ऋतु भी फबवीं हो, (इसी तरह रब का नाम-अंकुर भी तभी फूटता है अगर मन साबत हो, अगर पूर्ण तौर पर ईश्वर की ओर लगा रहे और समय अमृत बेला भी गवाया ना जाए)। हे नानक! अगर लाग ना बरती जाए तो कोरे कपड़े को वह (सुंदर पक्का) रंग नहीं चढ़ता (जो लाग बरतने से चढ़ता है। इस तरह अगर इस कोरे मन को रब के नाम-रंग में सुंदर रंग देना हो, तो पहले इसे) ईश्वर के डर रूपी खुंब में रखें; फिर मेहनत और उद्यम की पाह दें। (इसके बाद) हे नानक! अगर (इस मन को) रब की भक्ति में रंगा जाए, तो माया-छल इसके नजदीक भी नहीं फटकती।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |