श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 469 मः १ ॥ लबु पापु दुइ राजा महता कूड़ु होआ सिकदारु ॥ कामु नेबु सदि पुछीऐ बहि बहि करे बीचारु ॥ अंधी रयति गिआन विहूणी भाहि भरे मुरदारु ॥ गिआनी नचहि वाजे वावहि रूप करहि सीगारु ॥ ऊचे कूकहि वादा गावहि जोधा का वीचारु ॥ मूरख पंडित हिकमति हुजति संजै करहि पिआरु ॥ धरमी धरमु करहि गावावहि मंगहि मोख दुआरु ॥ जती सदावहि जुगति न जाणहि छडि बहहि घर बारु ॥ सभु को पूरा आपे होवै घटि न कोई आखै ॥ पति परवाणा पिछै पाईऐ ता नानक तोलिआ जापै ॥२॥ पद्अर्थ: लबु = जीभ का चस्का। महता = वजीर, मंत्री। सिकदारु = चौधरी। नेबु = नायब। सदि = बुला के। अंधी रयति = अंधी जनता, कामादिक विकारों के अधीन फसी हुए अंधे जीव। भाहि = आग, तृष्णा की आग। मुरदारु = हराम, रिश्वत। भरे मुरदारु = (जनता) चट्टी भरती है (व्यर्थ के धंधे में खचित रहती है)। गिआनी = और लोगों को उपदेश करने वाले। वावहि = बजाते हैं। रूप करहि = कई भेस बदलते हैं। वादा = वाद (डायलाग), झगड़े युद्धों के प्रसंग। जोधा का वीचारु = शूरवीरों की कहानियों की व्याख्या। हिकमति = चालाकी। हुजति = दलील। संजै = संचय, माया के इकट्ठा करने में। धरमी = अपने आपको धर्मी समझने वाले। गावावहि = गवा लेते हैं। मोख दुआरु = मुक्ति का दरवाजा। जती = वह मनुष्य जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को काबू में रखा हुआ है। जुगति = (जती बनने की) विधि। छडि बहहि = छोड़ बैठते हैं। घर बारु = गृहस्थ। सभु को = हरेक जीव। पूरा = मुकंमल, अमोध। घटि = कमी। पति = पत, इज्जत। परवाणा = बाँट (तराजू का)। पिछे = (तराजू के) पिछले छाबे में।2। अर्थ: (जगत में जीवों के लिए) जीभ का चस्का, मानो, राजा है, पाप मंत्री है और झूठ चौधरी है, (यहाँ लब और पाप के दरबार में काम नायब है, इसे) बुला के सलाह पूछी जाती है, यही इनका बड़ा सलाहकार है। (इनकी) प्रजा ज्ञान हीन (होने के कारण), जैसे अंधी हो के तृष्णा (आग) की चट्टी भर रही है (व्यर्थ की मेहनत में लगी हुई है)। जो मनुष्य अपने आप को ज्ञानवान (उपदेषक) कहलवाते हैं, वे नाचते हैं, बाजे बजाते हैं और कई तरह के भेस बदलते हैं और श्रृंगार करते हैं; वे ज्ञानी ऊँचा-ऊँचा चिल्लाते हैं, युद्धों के प्रसंग सुनाते हैं और योद्धाओं की वारों की व्याख्या करते हैं। पढ़े-लिखे मूर्ख निरी चालाकियां करनी और दलीलें देनी ही जानते हैं, (पर) माया इकट्ठी करने में ही जुटे हुए हैं। (जो मनुष्य अपने आप को) धर्मी समझते हैं, वे अपनी ओर से (तो) धर्म का काम करते हैं, पर (सारी) (मेहनत) गवा बैठते हैं, (क्योंकि इसके बदले में) मुक्ति का दर मांगते हैं कि हम मुक्त हो जाएं (भाव, धर्म का काम करते हैं पर निष्काम हो के नहीं, अभी भी वासना के बांधे हैं)। (कई ऐसे हैं जो अपने आप को) जती कहलवाते हैं, पर जती होने की जुगति नहीं जानते (ऐसे ही देखा-देखी) घर-घाट छोड़ जाते हैं। (इस लब, पाप, झूठ और काम का इतना प्रभाव है जबा है) (कि जिधर देखो) हरेक जीव अपने आप को पूरा समझदार समझता है। कोई मनुष्य ये नहीं कहता कि मेरे में कोई कमी है। पर, हे नानक! तभी मनुष्य तोल में (परख की कसौटी पर) पूरा उतरता है अगर तराजू के दूसरे पल्ले में (ईश्वर की दरगाह से मिली हुई) इज्जत रूपी बाँट रखा जाए, अर्थात वही मनुष्य कमी-रहित है, जिसे प्रभु की दरगाह में आदर मिले।2। मः १ ॥ वदी सु वजगि नानका सचा वेखै सोइ ॥ सभनी छाला मारीआ करता करे सु होइ ॥ अगै जाति न जोरु है अगै जीउ नवे ॥ जिन की लेखै पति पवै चंगे सेई केइ ॥३॥ पद्अर्थ: वदी = निहित की हुई, ईश्वर द्वारा नीयत की हुई। सु = वही बात। वजगि = बजेगी, प्रगट होगी। सचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। वेखै = (हरेक जीव की) संभाल कर रहा है। सभनी = सब जीवों ने। छाला मारीआ = छलांगें लगाई, भाव, अपना अपना जोर लगाया। सु होइ = वही कुछ होता है। अगै = इस शरीर को छोड़ के जहां जाना है वहाँ। जाति = भाव, किसी उच्च व नीच जाति का भेदभाव। जोरु = धक्का, जबरदस्ती। सेई केइ = वही कोई कोई (जीव)। लेखै = लेखा होने के समय।3। अर्थ: जो बात ईश्वर की ओर से स्थापित की जा चुकी है वही हो के रहेगी, (क्योंकि) वह सच्चा प्रभु (हरेक जीव की खुद) संभाल कर रहा है। सारे जीव अपना-अपना जोर लगाते हैं, पर होता वही है जो कर्तार करता है। ईश्वर की दरगाह में ना (किसी ऊँच-नीच) जाति (का भेदभाव) है, ना ही (किसी की) जोर-जबरदस्ती (चल सकती) है, क्योंकि वहाँ उन जीवों से वास्ता पड़ता है जो अजनबी हैं (भाव, जो किसी ऊँची जाति व जोर जबर को जानते ही नहीं, इसलिए किसी दबाव में नहीं आते)। वहाँ, वही कोई-कोई मनुष्य ही भले गिने जाते हैं, जिन्हें कर्मों का लेखा होने के समय आदर मिलता है (भाव, जिन्होंने जगत में भले काम किए थे, और इस कारण उन्हें ईश्वर के दर पे आदर मिलता है)।3। पउड़ी ॥ धुरि करमु जिना कउ तुधु पाइआ ता तिनी खसमु धिआइआ ॥ एना जंता कै वसि किछु नाही तुधु वेकी जगतु उपाइआ ॥ इकना नो तूं मेलि लैहि इकि आपहु तुधु खुआइआ ॥ गुर किरपा ते जाणिआ जिथै तुधु आपु बुझाइआ ॥ सहजे ही सचि समाइआ ॥११॥ पद्अर्थ: धुरि = धुर से आदि से। करमु = मेहर, बख्शिश। तुधु = तू हे कर्तार! वेकी = कई तरह का, कई रंगों का। इकना नो = कई जीवों को। इकि = कई जीव। आपहु = अपने आप से। तुधु = तू, हे प्रभु! खुआइआ = तोड़ दिया, परे किया हुआ। जाणिआ = (तुझे) जान लिया। जिथै = जिस मनुष्य के अंदर। आपु = अपना आपा, स्वै। बुझाइआ = समझा दिया है। सहजे ही = सहज ही। सचि = सच में, स्थिरता में, अडोलता में, अस्लियत में। समाइआ = लीन हो जाता है।11। अर्थ: (हे प्रभु!) जिस लोगों पर तूने धुर से ही बख्शिश की है, उन्होंने ही मालिक को (भाव, तुझे) स्मरण किया है। इन जीवों के अपने बस में कुछ भी नहीं है (कि तेरा सिररन कर सकें)। तूने रंग-बिरंगा जगत पैदा किया है; कई जीवों को तू अपने चरणों में जोड़े रखता है, पर कई जीवों को तूने अपने आप से विछोड़ा हुआ है। जिस (भाग्यशाली) मनुष्य के हृदय में तूने अपने आप की समझ डाल दी है, उसने सतिगुरु की मेहर से तुझे पहचान लिया है और वह सहज-स्वभाव ही (अपनी) अस्लियत के साथ ऐक-मेक हो गया है।11। सलोकु मः १ ॥ दुखु दारू सुखु रोगु भइआ जा सुखु तामि न होई ॥ तूं करता करणा मै नाही जा हउ करी न होई ॥१॥ बलिहारी कुदरति वसिआ ॥ तेरा अंतु न जाई लखिआ ॥१॥ रहाउ॥ जाति महि जोति जोति महि जाता अकल कला भरपूरि रहिआ ॥ तूं सचा साहिबु सिफति सुआल्हिउ जिनि कीती सो पारि पइआ ॥ कहु नानक करते कीआ बाता जो किछु करणा सु करि रहिआ ॥२॥ पद्अर्थ: तामि = तब। करणा = करने वाला। मै नाही = मैं कुछ भी नहीं, मेरी कोई बिसात नहीं। जा हउ करी = अगर मैं ‘अहम्’ करूँ, अगर मैं अपने आप को कुछ समझ बैठूँ। न होई = नहीं फबता, बात नहीं बनती। जाति = सृष्टि। जोति = ईश्वर का नूर। जोति महि = सारी जोतों में, सारे जीवों में। जाता = देखा जाता है, दिख रहा है। अकल = संपूर्ण। कला = टुकड़ा, हिस्सा। अकल कला = जिसके अलग अलग टुकड़े ना हों, एक रस संपूर्ण प्रभु। सुआलिउ = सोहानी, सुंदर। जिनि कीती = जिसने (तेरी स्तुति) की। नानक = हे नानक! कहु करते कीआ बाता = कर्तार की बातें बता। अर्थ: (हे प्रभु! तेरी अजब कुदरति है कि) बिपता (जीवों के रोगों का) इलाज (बन जाती) है, और सुख (उनके लिए) दुख का (कारण) हो जाता है। पर अगर (असली आत्मिक) सुख (जीव को) मिल जाए, तो (दुख) नहीं रहता। हे प्रभु! तू करणहार कर्तार है (तू खुद ही इन भेदों को समझता है), मेरी समर्थता नहीं है (कि मैं समझ सकूँ)। अगर मैं अपने आप को कुछ समझ लूँ (भाव, अगर मैं ये ख्याल करने लग जाऊँ कि मैं तेरे भेद को समझ सकता हूँ) तो ये बात फबती नहीं।1। हे कुदरति में बस रहे कर्तार! मैं तुझसे सदके हूँ, तेरा अंत नहीं पाया जा सकता।1। रहाउ। सारी सृष्टि में तेरा ही नूर बस रहा है, सारे जीवों में तेरा ही प्रकाश है, तू सब जगह एक-रस व्यापक है। हे प्रभु! तू सदा-स्थिर रहने वाला है, तेरी सुंदर सोहानी महानताएं हैं। जिस जिस ने तेरे गुण गाए हैं, वह संसार समुंदर से पार हो गया है। हे नानक! (तू भी) कर्तार की महिमा कर, (और कह कि) प्रभु जो कुछ करना ठीक समझता है वही वह कर रहा है (भाव, उसके कामों में किसी का दख़ल नहीं है)।1। मः २ ॥ जोग सबदं गिआन सबदं बेद सबदं ब्राहमणह ॥ खत्री सबदं सूर सबदं सूद्र सबदं परा क्रितह ॥ सरब सबदं एक सबदं जे को जाणै भेउ ॥ नानकु ता का दासु है सोई निरंजन देउ ॥३॥ पद्अर्थ: सबदं = गुरु का वचन, गुरु का उपदेश, गुरु का हुक्म, जीव का धर्म। जोग सबदं = जोग धर्म। सबदं ब्राहमणह = ब्राहमण का धर्म। पराक्रितह = दूसरों की सेवा करनी। सरब सबदं = सारे धर्मों का धर्म, भाव सबसे श्रेष्ठ धर्म। एक सबदं = एक प्रभु का स्मरण रूपी धर्म। भेउ = भेद। सोई = वही मनुष्य। निरंजन देउ = प्रभु (का रूप) है।2। अर्थ: जोग का धर्म ज्ञान प्राप्त करना है (ब्रहम की विचार करना है)। ब्राहमण का धर्म वेदों की विचार है। खत्रियों का धर्म सूरमे वाले काम करना है, और शूद्रों का धर्म दूसरों की सेवा करनी। पर सबका मुख्य धर्म ये है कि प्रभु का स्मरण करें। जो मनुष्य इस भेद को समझता है, नानक उसका दास है, वह मनुष्य प्रभु का रूप है।2। मः २ ॥ एक क्रिसनं सरब देवा देव देवा त आतमा ॥ आतमा बासुदेवस्यि जे को जाणै भेउ ॥ नानकु ता का दासु है सोई निरंजन देउ ॥४॥ पद्अर्थ: एक क्रिसनं = एक परमात्मा। सरब देव आतमा = सारे देवताओं की आत्मा। देव देवा आतमा = देवताओं के देवताओं की आत्मा। त = भी। वासदेव = (जैसे शब्द कृष्ण का अर्थ ‘परमात्मा’ भी है, वैसे ही ‘कृष्ण’ जी का ये नाम भी ‘परमात्मा’ अर्थ में ही लेना है) परमात्मा। बासुदेवसि = परमात्मा का। बासुदेवसि आतमा = प्रभु की आत्मा। निरंजन = अंजन (भाव, माया रूप) कालिख़ से रहित हरि।3। अर्थ: एक परमात्मा ही सारे देवताओं की आत्मा है, देवताओं के देवताओं की भी आत्मा है। जो मनुष्य प्रभु की आत्मा का भेद जान लेता है, नानक उस मनुष्य का दास है, वह परमात्मा का रूप है।3। मः १ ॥ कु्मभे बधा जलु रहै जल बिनु कु्मभु न होइ ॥ गिआन का बधा मनु रहै गुर बिनु गिआनु न होइ ॥५॥ पद्अर्थ: कुंभ = घड़ा। कुंभे = घड़े में ही। बधा = बंधा हुआ है। रहै = रहता है, टिक सकता है। कुंभु न होइ = घड़ा नहीं होता, घड़ा नहीं बन सकता। मनु रहै = मन टिकता है।4। अर्थ: (जैसे) पानी घड़े (आदि बरतनों) में ही बंधा हुआ (भाव, पड़ा हुआ एक जगह) टिका रह सकता है, (वैसे ही) (गुरु के) ज्ञान (भाव, उपदेश) का बंधा हुआ ही मन (एक जगह) टिका रह सकता है, (अर्थात, विकारों की तरफ नहीं दौड़ता)। (जैसे) पानी के बिना घड़ा नहीं बन सकता (वैसे ही) गुरु के बिना ज्ञान पैदा नहीं हो सकता।4। पउड़ी ॥ पड़िआ होवै गुनहगारु ता ओमी साधु न मारीऐ ॥ जेहा घाले घालणा तेवेहो नाउ पचारीऐ ॥ ऐसी कला न खेडीऐ जितु दरगह गइआ हारीऐ ॥ पड़िआ अतै ओमीआ वीचारु अगै वीचारीऐ ॥ मुहि चलै सु अगै मारीऐ ॥१२॥ पद्अर्थ: पढ़िआ = पढ़ा हुआ मनुष्य। गुनहगारु = बुरे काम करने वाला। ओमी = निरे शब्द ‘ओम’ को ही जानने वाला, अर्थात अनपढ़ मनुष्य। साधु = भला मनुष्य। न मारीऐ = मार नहीं खाता। घालणा घाले = कमाई करे। तेवेहो = वैसा ही। पचारीऐ = प्रचलित हो जाता है, मशहूर हो जाता है। कला = खेल। जितु = जिस के कारण। वीचारीऐ = विचारी जाती है, स्वीकार पड़ती है। मुहि चलै = मुंह के जोर चले, जो मनुष्य मुंह जोर हो, अपनी मर्जी के मुताबिक चले।12। अर्थ: अगर पढ़ा-लिखा मनुष्य मंदकर्मी हो जाए (तो इसे देख के अनपढ़ मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए कि पढ़े-लिखे का ये हाल, तो अनपढ़ का क्या बनेगा, क्योंकि अगर) अनपढ़ मनुष्य नेक है तो उसे मार नहीं पड़ती। (निपटारा मनुष्य की कमाई पर होता है, पढ़ने या ना पढ़ने का मूल्य नहीं पड़ता)। मनुष्य जैसी करतूत करता है, उसका वैसा ही नाम बन जाता है; (इसलिए) ऐसी खेल नहीं खेलनी चाहिए जिसके कारण दरगाह में जा के (मानव जनम की) बाजी हार बैठें। मनुष्य चाहे पढ़ा हो चाहे अनपढ़, प्रभु की दरगाह में केवल प्रभु के गुणो की विचार ही स्वीकार पड़ती है। जो मनुष्य (इस जगत में) अपनी मर्जी के अनुसार ही चलता है, वह आगे जा के मार खाता है।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |