श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 481 इह स्रपनी ता की कीती होई ॥ बलु अबलु किआ इस ते होई ॥४॥ पद्अर्थ: ता की = उस (परमात्मा) की। बलु = जोर, जीत। अबलु = कमजोरी, हार।4। अर्थ: यह माया उस परमात्मा की बनाई हुई है (जिसने सारा जगत रचा है; सो प्रभु के हुक्म के बिना) इस के अपने वश की बात नहीं कि किसी पर जोर डाल सके अथवा किसी से मात खा जाए।4। इह बसती ता बसत सरीरा ॥ गुर प्रसादि सहजि तरे कबीरा ॥५॥६॥१९॥ पद्अर्थ: इह बसती = (जब तक) ये (सपनी मनुष्य के मन में) बसती है। सरीरा = शरीरों में। सहजि = सहज में, सपनी के प्रभाव से अडोल रह के।5। अर्थ: जब तक ये माया मनुष्य के मन में बसती है, तब तक जीव शरीरों में (भाव, जनम-मरण के चक्कर में) पड़ा रहता है। कबीर अपने गुरु की कृपा से अडोल रहके (जनम-मरण के चक्र-व्यूह में से) पार लांघ गया है।5।6।19। आसा ॥ कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए ॥ कहा साकत पहि हरि गुन गाए ॥१॥ पद्अर्थ: कहा = क्या लाभ? कोई फायदा नहीं। सुआन = कुक्ता। साकत = ईश्वर से टूटा हुआ जीव। पहि = पास।1। अर्थ: (जैसे) कुत्ते को स्मृतियां सुनाने का कोई लाभ नहीं होता, वैसे ही साकत के पास परमात्मा के गुण गाने से साकत पर असर नहीं पड़ता।1। राम राम राम रमे रमि रहीऐ ॥ साकत सिउ भूलि नही कहीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रमे रमि रहीऐ = सदा स्मरण करते रहें। भूलि = भूल के, कभी भी। कहीऐ = स्मरण का उपदेश करें। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! आप ही) सदा परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, कभी भी किसी साकत को स्मरण करने की शिक्षा नहीं देनी चाहिए।1। रहाउ। कऊआ कहा कपूर चराए ॥ कह बिसीअर कउ दूधु पीआए ॥२॥ पद्अर्थ: कपूर = मुश्क कपूर। चराए = खिलाने से। कह = क्या लाभ? बिसीअर = सांप।2। अर्थ: कौए को मुश्क कपूर खिलाने से कोई गुण नहीं निकलता (क्योंकि कौए की गंद खाने की आदत नहीं जा सकती, इसी तरह) सांप को दूध पिलाने से भी कोई फायदा नहीं हो सकता (वह डंग मारने से फिर भी नहीं टलेगा)।2। सतसंगति मिलि बिबेक बुधि होई ॥ पारसु परसि लोहा कंचनु सोई ॥३॥ पद्अर्थ: बिबेक बुधि = अच्छा बुरा परखने की बुद्धि। परसि = छूह के। कंचनु = सोना। सोई = वही लोहा।3। अर्थ: यह अच्छे-बुरे काम की परख करने वाली अक्ल साधु-संगत में बैठ के ही आती है, जैसे पारस को छू के वह लोहा भी सोना हो जाता है।3। साकतु सुआनु सभु करे कराइआ ॥ जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: धुरि = धुर से, आदि से, जीव के किए कर्मों के अनुसार।4। अर्थ: कुक्ता और साकत जो कुछ करते हैं, प्रेरित हुए ही करते हैं, पिछले किए कर्मों के अनुसार जो कुछ आदि से इनके माथे पर लिखा है (भाव, जो संस्कार इसके मन में बन चुके हैं) उसी तरह अब किए जाते हैं।4। अम्रितु लै लै नीमु सिंचाई ॥ कहत कबीर उआ को सहजु न जाई ॥५॥७॥२०॥ पद्अर्थ: नीमु = नीम का पौधा। सिंचाई = पानी देना। उआ को = उस नीम के पौधे का। सहजु = पैदायशी स्वभाव।5। अर्थ: कबीर कहता है: अगर अमृत (भाव, मिठास वाला जल) ले के नीम के पौधे को बारंबार सींचते रहें, तो भी उस पौधे का मूल स्वभाव (कड़वापन) दूर नहीं हो सकता।5।7।20। शब्द का भाव: हरेक मनुष्य अपने पिछले किए कर्मों के संस्कारों का प्रेरित हुआ पुरानी लीहों पे चलता जा रहा है। सो, किसी को दी हुई शिक्षा कोई काट नहीं करती। पर, अगर विकारी मनुष्य किसी सबब से साधु-संगत में आ जाए, सहजे सहज नई सोच से (नए कर्मों से) पुराने बुरे संस्कार मिटने शुरू हो जाते हैं, और आखिर मनुष्य शुद्ध सोना बन जाता है।20। आसा ॥ लंका सा कोटु समुंद सी खाई ॥ तिह रावन घर खबरि न पाई ॥१॥ पद्अर्थ: सा = जैसा। सी = जैसी। कोटु = किला। खाई = चौड़ी और गहरी खाली खोद के किलों के चौगिर्दे बनाई जाती है और इसे किले की हिफाजत के लिए पानी से भर के रखते हैं। घर खबरि = घर की खबर, घर का नाम निशान। न पाई = नहीं मिलता।1। अर्थ: जिस रावण का लंका जैसा किला था, और समुंदर जैसी (उस किले की रक्षा के लिए बनी हुई) खाई थी, उस रावण के घर का आज निशान नहीं मिलता।1। किआ मागउ किछु थिरु न रहाई ॥ देखत नैन चलिओ जगु जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मागउ = मैं मांगूँ। देखत नैन = आँखों सें देखते, हमारे सामने। जाई = जा रहा है, नाश हो रहा है।1। रहाउ। अर्थ: मैं (परमात्मा से दुनिया की) कौन सी चीज माँगू? कोई भी चीज सदा रहने वाली नहीं है; मेरी आँखों के सामने सारा जगत चलता जा रहा है।1। रहाउ। इकु लखु पूत सवा लखु नाती ॥ तिह रावन घर दीआ न बाती ॥२॥ पद्अर्थ: नाती = पौत्र। दीया = दीपक। बाती = बक्ती।2। अर्थ: जिस रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र (बताए जाते हैं), उसके महलों में कहीं दीया-बाती जलता ना रहा।2। चंदु सूरजु जा के तपत रसोई ॥ बैसंतरु जा के कपरे धोई ॥३॥ पद्अर्थ: जा के = जिस के घर। तपत रसोई = रसोई तपाते हैं, रोटी तैयार करते हैं। बैसंतर = आग। धोई = धोता है।3। अर्थ: (ये उस रावण का वर्णन है) जिसकी रसोई चंद्रमा और सूरज तैयार करते थे, जिसके कपड़े बैसंतर देवता धोता था (भाव, जिस रावण के पुत्र-पौत्रों की रोटी पकाने के लिए दिन-रात रसोई तपती रहती थी और उनके कपड़े साफ करने के लिए हर वक्त आग की भट्ठियां जलती रहती थीं)।3। गुरमति रामै नामि बसाई ॥ असथिरु रहै न कतहूं जाई ॥४॥ पद्अर्थ: नामि = नाम में। न कत हूँ = किसी और जगह नहीं।4। अर्थ: (सो) जो मनुष्य (इस नाशवान जगत की ओर से हटा के अपने मन को) सतिगुरु की मति ले के प्रभु के नाम में टिकाता है, वह सदा अडोल रहता है, (इस जगत माया की खातिर) भटकता नहीं है।4। कहत कबीर सुनहु रे लोई ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई ॥५॥८॥२१॥ पद्अर्थ: रे लोई = हे लोगो! हे जगत! मुकति = जगत की माया के मोह से मुक्ति।5। नोट: शब्द ‘रे’ पुलिंग है, इस वास्ते शब्द ‘लोई’ भी पुलिंग ही है। देखें इसी राम कबीर जी का शब्द नं: 35। अर्थ: क्बीर कहता है: सुनो, हे जगत के लोगो! प्रभु का नाम स्मरण के बिना (जगत के इस मोह से खलासी नहीं हो सकती)।5।8।21। नोट: लोगों की जो राय रावण के बड़प्पन बाबत आम तौर पर बनी हुई थीं, उसका हवाला देते हुए कबीर जी कहते हैं कि जो रावण तुम्हारे ख्याल से इतना बली, धनी और परिवार वाला था, उसका भी कहीं अब नामो-निशान नहीं रह गया। रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र वास्तव में थे या नहीं, कबीर जी का इससे कोई मतलब नहीं है। आसा ॥ पहिला पूतु पिछैरी माई ॥ गुरु लागो चेले की पाई ॥१॥ पद्अर्थ: पहिला = पहला। पूतु = पवित्र (प्रभु की अंश) थी। माई = माया की, माया के असर वाला। गुरु = जीव (जो बड़े असले वाला था)। चेले की पाई = मन रूपी चेले के पैरों में।1। अर्थ: ये जीवात्मा तो पवित्र (परमात्मा का अंश) थी, पर इस पर माया का प्रभाव पड़ गया, और बड़े असले वाला जीव (अपने ही बनाए हुए) मन चेले के पैरों में लगने लग पड़ा (अर्थात, मन के पीछे चलने लगा)।1। एकु अच्मभउ सुनहु तुम्ह भाई ॥ देखत सिंघु चरावत गाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सिंघु = शेर, निडर,निर्भीक जीव। गाई = गाएं, इंद्रिय। चरावत = चरा रहा है, संतुष्ट कर रहा है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सुनो एक आश्चर्यजनक खेल (जो जगत में बरत रही है) हमारे देखते ही ये निडर असले वाला जीव इन्द्रियों को प्रसन्न करता फिरता है, जैसे, शेर गाएं चराता फिरता है।1। रहाउ। जल की मछुली तरवरि बिआई ॥ देखत कुतरा लै गई बिलाई ॥२॥ पद्अर्थ: जल की मछुली = पानी के आसरे जीने वाली मछली, सत्संग के आसरे जीने वाली जीवात्मा। तरवरि = वृक्ष पर, इस संसार जहाँ बसेरा इस तरह है जैसे पक्षियों का वृक्ष पे। बिआई = सू पाई, व्यस्त हो गई। कुतरा = कतूरे को, संतोख को। बिलाई = बिल्ली, तृष्णा।2। (नोट: कुत्ते का संतोष वाला स्वभाव प्रसिद्ध है)। अर्थ: सत्संग के आसरे जीने वाली जिंद सांसारिक कामों में व्यस्त हो गई है, तृष्णा रूपी बिल्ली इसके संतोष को हमारे देखते ही पकड़ के ले गई है।2। तलै रे बैसा ऊपरि सूला ॥ तिस कै पेडि लगे फल फूला ॥३॥ पद्अर्थ: रे = हे भाई! तलै = निचली तरफ। बैसा = टहनियां, शाखाएं (राजपुरे-अंबाले वाली बोली)। बैसा तलै = टहनियां (अपने पैरों के) नीचे कर लीं, सांसारिक पसारे को आसरा बना लिया। सूला = शूल, आदि, असली मूल प्रभु। ऊपरि = ऊपर, बाहर निकाल दिया। पेडि = तन पर।3। अर्थ: हे भाई! जिस जीव ने सांसारिक पसारे को अपना आसरा बना लिया है और असली मूल प्रभु को अपने अंदर से बाहर निकाल दियार है। अब ऐसे (जीव) वृक्ष को फल फूल भी ऐसी ही वासना के ही लग रहे हैं।3। घोरै चरि भैस चरावन जाई ॥ बाहरि बैलु गोनि घरि आई ॥४॥ पद्अर्थ: चरि = चढ़ के। घोरै = मन घोड़े पर। भैस = भैंस, वासना। बैलु = बैल (का धैर्य वाला स्वभाव)। गोनि = (तृष्णा की) थैली। घरि = हृदय घर में।4। अर्थ: (जीवात्मा के कमजोर पड़ने के कारण) वासना भैंस मन-घोड़े पर सवार हो के इसे विषौ भोगने के लिए भगाए फिरती है। (अब हालत ये बन गई है कि) धैर्य-रूपी बैल बाहर निकल गया है (भाव, धीरज नहीं रह गया), और तृष्णा की थैली जीव पर आ पड़ी है।4। कहत कबीर जु इस पद बूझै ॥ राम रमत तिसु सभु किछु सूझै ॥५॥९॥२२॥ बाईस चउपदे तथा पंचपदे पद्अर्थ: पद = अवस्था। बूझै = समझ ले।5। अर्थ: कबीर कहते हैं - जो मनुष्य इस (घटने वाली घटना की) हालत को समझ लेता है, परमात्मा का स्मरण करके उसको जीवन के सही रास्ते की सारी सूझ आ जाती है (और, वह इस तृष्णा-जाल में नहीं फंस जाता)।5।9।22। आसा स्री कबीर जीउ के तिपदे ८ दुतुके ७ इकतुका १ बिंदु ते जिनि पिंडु कीआ अगनि कुंड रहाइआ ॥ दस मास माता उदरि राखिआ बहुरि लागी माइआ ॥१॥ पद्अर्थ: बिंदु ते = बिंदु से, एक बूँद से। जिनि = जिस (प्रभु) ने। पिंडु = शरीर। अगनि कुंड = आग के कुंड में। रहाइआ = रखा, बचाए रखा। मास = महीने। माता उदरि = माँ के पेट में। बहुरि = दुबारा, उससे पीछे (भाव, जनम लेने से)। लागी = आ दबाया।1। अर्थ: जिस प्रभु ने (पिता की) एक बूँद से (तेरा) शरीर बना दिया, और (माँ के पेट की) आग के कुंड में तुझे बचाए रखा, दस महीने माँ के पेट में तेरी रक्षा की, (उसे बिसारने के कारण) जगत में जनम लेने पर तुझे माया ने आ दबाया है।1। प्रानी काहे कउ लोभि लागे रतन जनमु खोइआ ॥ पूरब जनमि करम भूमि बीजु नाही बोइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: काहे कउ = किस वास्ते, क्यों? लोभि = लोभ में। खोइआ = गवा लिया। पूरब = पिछला। भूमि = धरती (शरीर रूपी)। जनमि = जनम में।1। रहाउ। अर्थ: हे बंदे! क्यों लोभ में फंस रहा है और हीरे जैसा जनम गवा रहा है? पिछले जनम में (किए) कर्मों के अनुसार (मिले इस मानव-) शरीर में क्यों तू प्रभु के नाम का बीज नहीं बीजता?।1। रहाउ। बारिक ते बिरधि भइआ होना सो होइआ ॥ जा जमु आइ झोट पकरै तबहि काहे रोइआ ॥२॥ पद्अर्थ: बिरधि = बुढा। होना सो होइआ = बीता समय दुबारा हाथ नहीं आता। झोट = जूड़ा, केस। तबहि = तभी।2। अर्थ: अब तू बालक से बूढ़ा हो गया है, पिछला बीता समय हाथ नहीं आना। जिस समय जम सिर से आ पकड़ेगा, तब रोने का क्या लाभ होगा?।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |