श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूमहि धनु राखन कउ दीआ मुगधु कहै धनु मेरा ॥ जम का डंडु मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ॥३॥

पद्अर्थ: मूंड = सिर।3।

अर्थ: कंजूस धन जोड़ने जुटा हुआ है, (और) मूर्ख (कंजूस) कहता है: ये धन मेरा है। (पर जिस वक्त) जम का डण्डा सिर पर आ बजता है तब एक पलक में फैसला कर देता है (कि दरअसल ये धन किसी का भी नहीं)।3।

हरि जनु ऊतमु भगतु सदावै आगिआ मनि सुखु पाई ॥ जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंनि वसाई ॥४॥

पद्अर्थ: मनि = मान के। सति = अटल। मंनि = मन में।4।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का सेवक (बन के रहता) है, वह परमात्मा का हुक्म मान के सुख भोगता है और जगत में नेक भक्त कहलवाता है (भाव, शोभा पाता है), प्रभु की रजा मन में बसाता है, जो प्रभु को भाता है उसको ही ठीक समझता है।4।

कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी ॥ चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी ॥५॥३॥१६॥

पद्अर्थ: चिरगट = पिंजरा। चटारा = चिड़ा। तरी तागरी = कुज्जी और ठूठी। छूटी = छूट जाती है, धरी ही रह जाती है।5।

अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनो! सुनो, ‘ये धन-पदार्थ मेरा है’-ये ख्याल झूठा है (भाव, दुनिया के पदार्थ सदा के लिए अपने नहीं रह सकते); (जैसे, अगर) पिंजरे को फाड़ के (कोई बिल्ला) चिड़े को पकड़ के ले जाए तो (उस पिंजरें वाले पक्षी की) कुज्जी और ठूठी ही रह जाती है (वैसे ही मौत आने पर बंदे के खाने-पीने वाले पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं)।5।3।16।

आसा ॥ हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै ॥ अलह अवलि दीन को साहिबु जोरु नही फुरमावै ॥१॥

पद्अर्थ: मसकीन = आजिज, निमाने। खुदाई बंदे = ईश्वर के पैदा किए हुए बंदे। राजसु = हकूमत। तुम = तुम्हें। अलह = रब। अवलि = पहला (भाव, सबसे बड़ा)। दीन = धर्म, मजहब। जोरु = धक्का।1।

(नोट: 'मसकीन, खुदाई बंदे, राजसु, तुम, अलह, अवल, दीन' सारे इस्लामी शब्द हैं)

अर्थ: (हे काज़ी!) हम तो बेचारे लोग हैं, पर हैं (हम भी) रब के पैदा किए हुए। तुम्हें अपने मन में हकूमत अच्छी लगती है (भाव, तुम्हें हकूमत का गुमान है)। मज़हब का सबसे बड़ा मालिक तो रब है, वह (किसी पर भी) जोर-जबरदस्ती की आज्ञा नहीं देता।1।

काजी बोलिआ बनि नही आवै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: काजी = हे काज़ी!।1। रहाउ।

अर्थ: हे काज़ी! तेरी (ज़बानी) बातें जचती नहीं।1। रहाउ।

रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥ सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥

पद्अर्थ: रोजा धरै = रोजा रखता है। सतरि = गुप्त। काबा = रब का घर। घट ही भीतर = दिल के अंदर ही।2।

अर्थ: (सिर्फ) रोजा रखने से, नमाज अदा करने से और कलमा पढ़ने से भिस्त नहीं मिल जाता। रब का गुप्त घर तो मनुष्य के दिल में है, (पर मिलता तब ही है) अगर कोई समझ ले।2।

निवाज सोई जो निआउ बिचारै कलमा अकलहि जानै ॥ पाचहु मुसि मुसला बिछावै तब तउ दीनु पछानै ॥३॥

पद्अर्थ: अकलहि = अकल से। मुसि = ठग के, वश में कर के। पाचहु = कामादिक पाँचों को।3।

अर्थ: जो मनुष्य न्याय करता है वह (मानो) नमाज पढ़ रहा है, और जो रब को अकल से पहचानता है तो कलमा अदा कर रहा है; कामादिक पाँचों (बलवान विकारों) को अपने वश में करता है तो (मानो) मुसला बिछाता है, और मज़हब को पहचानता है।3।

खसमु पछानि तरस करि जीअ महि मारि मणी करि फीकी ॥ आपु जनाइ अवर कउ जानै तब होइ भिसत सरीकी ॥४॥

पद्अर्थ: जीअ महि = अपने हृदय में। मणी = अहंकार। आपु = अपने आप को। जनाइ = समझा के। सरीकी = भाईवाल, सांझीवाल।4।

अर्थ: हे काज़ी! मालिक प्रभु को पहचान, अपने हृदय में प्यार बसा, मणी को फीकी जान के मार दे (अर्थात, अहंकार को बुरा जान के त्याग दे)। जब मनुष्य अपने आप को समझा के दूसरों को (अपने जैसा) समझता है, तब भिष्त उसे नसीब होता है।4।

माटी एक भेख धरि नाना ता महि ब्रहमु पछाना ॥ कहै कबीरा भिसत छोडि करि दोजक सिउ मनु माना ॥५॥४॥१७॥

पद्अर्थ: पछाना = पहचानता है। नाना = अनेक। ता महि = इन (वेशों) में।5।

अर्थ: मिट्टी एक ही है, (प्रभु ने इसके) अनेक वेश धारे हुए हैं। (असल मोमन ने) इन (वेशों) में रब को पहचाना है (और यही है भिष्त का रास्ता); पर, कबीर कहता है, (हे काज़ी!) तुम तो (दूसरों पर जोर-ज़बरदस्ती करके) भिष्त (का रास्ता) छोड़ के दोज़क से मन जोड़े बैठे हो।5।4।17।

आसा ॥ गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना ॥ पारब्रहम परमेसुर माधो परम हंसु ले सिधाना ॥१॥

पद्अर्थ: गगन = आकाश, चिदाकाश; दिमाग़, दसवां द्वार। गगन नगरि = गगन रूपी नगर में, दसवें द्वार रूपी नगर में, दिमाग़ में। इक बूंद = एक रत्ती भी। नादु = आवाज, शोर, जोर, माया का शोर, लोभ का शोर। नादु जु = जो (चित्त में) लोभादिक का शोर था। कहा समाना = पता नहीं कहाँ लीन हो गया, कहाँ खत्म हो गया है। परम हंसु = सबसे ऊँचा हंस, सबसे ऊँची पवित्र आत्मा, परमात्मा। ले सिधाना = ले के चला गया है, (उस ‘नाद’ को) ले गया है (क्योंकि उस ‘नाद’ की एक बूँद भी ‘गगन नगर’ में नहीं बरसती)।1।

अर्थ: हे बाबा! शारीरिक मोह आदि का वह शोर कहाँ गया (जो हर वक्त तेरे मन में टिका रहता था)? अब तो तेरे मन में कोई एक फुरना भी नहीं उठता। (ये सब मेहर) उस पारब्रहम परमेश्वर माधो परम हंस (की है जिस) ने मन के ये सारे मायावी शोर नाश कर दिए हैं।1।

बाबा बोलते ते कहा गए देही के संगि रहते ॥ सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाबा = हे बाबा! हे भाई! ते बोलते = (‘नाद’ के) वह बोल, लोभादिक माया के शोर के वह बोल। देही = शरीर। देही के संगि रहते = जो ‘बोलते’ देही के संग रहते, जो बोल शरीर के साथ रहते थे, जो ख्याल शरीर के संबंध में ही बने रहते थे। कहा गए = पता नहीं कहाँ चले गए, कहीं गायब ही हो गए हैं। जो = जो ‘बोलते’, जो बोल, जो विचार। निरते = नृत्य, नाच। जो निरते करते = माया के जो विचार नाच करते रहते थे। कथा बारता = बातचीत। कथा बारता करते = जो सिर्फ माया के ही बोल थे, जो सिर्फ माया की ही बातें करते थे।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम-जपने की इनायत से तेरे अंदर आश्चर्यजनक तबदीली पैदा हो गई है) तेरे वह बोल कहाँ गए जो सदा शरीर संबंधी ही रहते थे? कभी (वो वक्त था जब) तेरी सारी बातें शारीरिक मोह के बारे ही थीं, तेरे मन में मायावी विचार ही नृत्य किया करते थे- वो सब कहीं अलोप ही हो गए हैं।1। रहाउ।

बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीन्हा ॥ साखी सबदु सुरति नही उपजै खिंचि तेजु सभु लीन्हा ॥२॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मन) ने। मंदरु = मांदल, ढोल, शरीर के मोह का ढोल, देह अध्यास का ढोल। जिनि मंदरु कीना = जिस मन ने देह अध्यास का ढोल बनाया हुआ था। बजावनहारो = बजाने वाला, ढोल को बजाने वाला, जो मन शरीर का मोह रूपी ढोल बजा रहा था। साखी सबदु सुरति = (शारीरिक मोह की) कोई बात कोई बोल कोई विचार। तेजु = (उस बजावनहार मन का) तेज प्रताप। खिंचि लीना = (पारब्रहम परमेश्वर माधो परमहंस ने) खींच लिया है।2।

अर्थ: (शारीरिक मोह के वह फुरने कहाँ रह सकते हैं? अब तो वह मन ही नहीं रहा जिस मन ने शारीरिक मोह की ये ढोलकी बनाई हुई थी। मायावी मोह की ढोलकी को) बजाने वाला वह मनही कहीं अलोप हो गया है। (पारब्रहम परमेश्वर ने मन का वह पहला) तेज-प्रताप ही खींच लिया है, मन में अबवह पहली बात, पहला बोल, पहला फुरना कहीं पैदा ही नहीं होता।2।

स्रवनन बिकल भए संगि तेरे इंद्री का बलु थाका ॥ चरन रहे कर ढरकि परे है मुखहु न निकसै बाता ॥३॥

पद्अर्थ: संगि = (देही के) संगि, देह अध्यास के संग, शारीरिक मोह में। बिकल = व्याकुल। तेरे स्रवनन = (श्रवण, कान) तेरे कानों का। इंद्री = (भाव) काम चेष्टा। चरन = पैर (जो पहले ‘देही के संगि रहते’)। कर = हाथ (जो पहले ‘देही के संगि रहते’)। बाता = बात (शारीरिक मोह की)।3।

अर्थ: हे भाई! तेरे वह कान कहाँ गए जो पहले शारीरिक मोह में फंसे हुए सदा व्याकुल रहते थे? तेरी काम-चेष्टा का जोर भी थम गया है। तेरे ना वह पैर हैं, ना वह हाथ हैं जो देह अध्यास की दौड़-भाग में रहते थे। तेरे मुंह से भी अब शारीरिक मोह की बातें नहीं निकलती हैं।3।

थाके पंच दूत सभ तसकर आप आपणै भ्रमते ॥ थाका मनु कुंचर उरु थाका तेजु सूतु धरि रमते ॥४॥

पद्अर्थ: पंज दूत = काम आदि पाँचों वैरी। तसकर = चोर (जो भले गुणों को चुराए जा रहे थे)। भ्रम = भटकना। ते = से। आप आपणै = अपनी अपनी। कुंचर = हाथी। उरु = हृदय, मन (जो पहले ‘देही के संगि रहते’)। तेजु सूतु धरि = (जिस ‘मन’ और ‘उरु’ का) तेज सूत धारण करके। सूतु = धागा, सूत्र, आसरा। रमते = (‘पंच दूत’) रमते, (पाँचों कामादिक) दौड़ भाग करते थे।4।

(नोट: माला के मणकों के लिए धागा, मानो, आसरा है, जिसके माध्यम से मणके माला में टिके रहते हैं)।

अर्थ: कामादिक तेरे पाँचों वैरी हार चुके हैं, वे सारे चोर अपनी-अपनी भटकना से हट गए हैं (क्योंकि जिस मन का) तेज और आसरा ले के (ये पाँचों कामादिक) दौड़-भाग करते थे वह मन हाथी ही ना रहा, वह हृदय ही ना रहा।4।

मिरतक भए दसै बंद छूटे मित्र भाई सभ छोरे ॥ कहत कबीरा जो हरि धिआवै जीवत बंधन तोरे ॥५॥५॥१८॥

पद्अर्थ: मिरतक = मृतक, मरे हुए, देह अध्यास की तरफ से मरे हुए, शारीरिक मोह से मरे हुए। दसै बंद = दस इंद्रिय। छूटे = ढीले पड़ गए, ‘देही के संग’ से छूट गए, शारीरिक मोह से आजाद हो गए। मित्र भाई = इन्द्रियों के मित्र भाई (आशा-तृष्णा आदि विकार)। जीवत = जीते ही, इसी शरीर में। बंधन = देह अध्यास वाले बंधन, शारीरिक मोह के जंजाल।5।

नोट: जिस अवस्था का वर्णन सारे शब्द में किया गया है, उसको समूचे तौर पर आखिरी तुक में इस प्रकार बयान किया गया है “जीवत बंधन तोरे”।

अर्थ: (हे भाई! हरि नाम-जपने की इनायत से) तेरी दसों ही इंद्रिय शारीरिक मोह की ओर से मर चुकी हैं (निर्लिप हो चुकीं हैं), शारीरिक मोह से आजाद हो चुकी हैं, इन्होंने आशा तृष्णा आदि जैसे सारे सज्जन-मित्रों को भी त्याग दिया है।

कबीर कहता है: जो जो मनुष्य परमात्मा को स्मरण करता है वह जीते-जी ही (दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही, इस तरह) शारीरिक मोह के बंधन तोड़ लेता है।5।5।18।

नोट: इस शब्द का अर्थ करते वक्त कई टीकाकार सज्जन लिखते हैं कि कबीर जी अपने एक मित्र परम हंस जोगी को मिलने गए। आगे उसे काल-वश हुआ देख के ये शब्द उचारा। पीछे गउड़ी राग में भी हम कबीर जी का शब्द नं: 52 देख आए हैं। उस संबंधी भी कई टीकाकारों ने ऐसा ही लिखा है कि अपने अक्सर मिलने वाले एक घनिष्ठ मित्र जोगी के कुछ अधिक समय तक ना मिल सकने के बाद स्वयं भक्त जी उसके आश्रम पर गए। पर वहाँ पहुँच के अचानक ही आपको पता चला कि जोगी जी तो कूच कर गए हैं। तो उस समय प्यारे मित्र के विछोड़ें में द्रवित हो के आपने ये शब्द उचारा था।

पर गउड़ी रागों के शबदों के अर्थ करते वक्त हम देख आए हैं कि उस शब्द नं: 52 के साथ किसी जोगी के मरने की कहानी जोड़ने की आवश्क्ता नहीं पड़ती। ना ही ऐसी कोई कहानी शब्द के साथ फिट ही बैठती है। अगर गउड़ी राग वाला शब्द किसी जोगी के मरने पर उचारा होता, और उस समय कबीर जी को ये ख्याल पैदा हुआ होता कि उस शरीर में बोलने वाली जीवात्मा कहाँ चली गई, तो ये नहीं हो सकता था कि ये ‘संशय’ कबीर जी को रोज ही लगी रहती। जिनके अपने परम-स्नेही सगे-संबंधी मर जाते हैं, वह भी समय के साथ भूल जाते हैं, पर इतने महान ब्रहम-ज्ञानी कबीर जी को उस जोगी के मरने पे हर रोज क्यों ‘संशय’ रहना था? उस शब्द के ‘रहाउ’ में कबीर जी लिखते हैं;

तागा तूटा, गगनु बिनसि गइआ, तेरा बोलत कहा समाई॥
एह संसा मो कउ अनदिनु बिआपै, मो कउ को न कहै समझाई॥

उस शब्द में हम लिख आए हैं कि वहाँ मन की उस तब्दीली का जिक्र किया गया है जो ‘लिव लागि रही है’ की इनायत से पैदा होती है।

अब उस ‘रहाउ’ की तुकों को इस आसा राग वाले शब्द के ‘रहाउ’ के मुकाबलें में देखें;

बाबा बोलते ते कहा गए॥ देही के संगि रहते॥
सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते॥ रहाउ॥

‘तेरा बोलत कहा समाई’ और ‘बोलते ते कहा गए॥ देही के संगि रहते॥’ दोनों में एक ही ख्याल साफ दिखाई दे रहा है। पहले में कहते हैं कि ‘मेर तेर’ बोलने वाला मन मर गया है। दूसरे में कहते हैं कि जो सदा शरीर की ही बातें करता था वह कहीं चला गया है।

अब लेते हैं इस शब्द का बंद नं: 2:

‘बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीना॥’

जिस टीकाकारों ने शब्द के साथ किसी जोगी के मरने की कहानी जोड़ दी है, उन्होंने ‘मंदरु’ का अर्थ सहजे ही ‘शरीर’ कर दिया है कि जिस आत्मा ने ये शरीर बना रखा था वह उसमें से चला गया है। पर इसी आसा राग में कबीर जी का शब्द नं: 28 पढ़ के देखें;

जउ मै रूप कीए बहुतेरे, अब फुनि रूपु न होई॥ तागा तंतु साजु सभ थाका, राम नाम बसि होई॥१॥ अब मोहि नाचनो न आवै॥ मेरा मनु, मंदरीआ न बजावै॥१॥ रहाउ॥ काम क्रोध माइआ लै जारी, त्रिसना गागरि फूटी॥ काम चोलना भइआ है पुराना, गइआ भरमु, सभ छूटी॥२॥ सरब भूत एकै करि जानिआ, चूकै बाद बिबादा॥ कहि कबीर मै पूरा पाइआ, भए राम परसादा॥३॥६॥२८॥

इस शब्द नं: 28 की ‘रहाउ’ वाली तुक को ध्यान से पढ़ें;

‘मेरा मनु, मंदरीआ न बजावै॥ ”

यहाँ ‘मंदरीआ’ वही चीज़ है जिस को शब्द नं: 18 के बंद 2 में ‘मंदरु’ कहा गया है। शब्द ‘मंदरीआ’ के साथ ये भी साफ कहा है कि “अब मोहि नाचनो न आवै”। नाचने के साथ किसी ढोलकी का वर्णन है। माया के हाथों पर नाचना समाप्त हो गया है, मोह की ढोलकी बजनी बंद हो गई। शब्द ‘मांदल’ए ‘मंदर’, ‘मंदरीआ’; ये सारे एक ही शब्द के अलग-अलग स्वरूप हैं। ‘मांदल’ का अर्थ है ‘ढोल’।

बंद 2 में भी ‘बजावनहारो’ और ‘मंदरु’ का वर्णन है। दोनों शबदों में सांझा ख्याल है कि मन ने माया के हाथों नाचना छोड़ के मोह की ढोलकी बजानी बंद कर दी है।

इस सारी विचार से यही नतीजा निकलता है इस शब्द में जोगी के मरने पर कोई अफसोस आदि नहीं किया गया। गौड़ी राग के शब्द नं: 52 और आसा राग के शब्द नं: 28 की तरह, यहाँ भी मन की सुधरी हुई हालत का जिक्र है।

आसा इकतुके ४ ॥ सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ ॥ जिनि ब्रहमा बिसनु महादेउ छलीआ ॥१॥

पद्अर्थ: सरपनी = सपनी, मोह का डंग मारने वाली माया। ते ऊपरि = उससे ऊपर। जिनि = जिस सपनी ने। महादेउ = शिव।1।

अर्थ: जिस माया ने ब्रहमा, विष्णु और शिव (जैसे बड़े-बड़े देवते) छल लिए हैं, उस (माया) से ज्यादा बलवान (जगत में और कोई) नहीं है।1।

मारु मारु स्रपनी निरमल जलि पैठी ॥ जिनि त्रिभवणु डसीअले गुर प्रसादि डीठी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मारु मारु = मारा मार करती, बड़े जोरों से आई हुई। जलि = जल में। निरमल जलि = पवित्र जल में, शांत सर में, सत्संग में। पैठी = आ टिकती है, शांत हो जाती है। त्रिभवणु = सारा संसार। डीठी = दिखाई दी है।1। रहाउ।

अर्थ: पर, ये बड़े जोरों से आई (मारो मार करती) माया सत्संग में आकर शांत हो जाती है, (भाव, इस मारो मार करती माया का प्रभाव सत्संग में आकर ठंडा पड़ जाता है), क्योंकि जिस माया ने सारे जगत को (मोह का) डंग मारा है (संगति में) गुरु की कृपा से (उसकी हकीकत) दिखाई देने लगती है।1। रहाउ।

स्रपनी स्रपनी किआ कहहु भाई ॥ जिनि साचु पछानिआ तिनि स्रपनी खाई ॥२॥

पद्अर्थ: स्रपनी....भाई = हे भाई! सपनी से इतना क्यों डरते हो? तिनि = उस मनुष्य ने। खाई = खा ली, वश में कर ली।2।

अर्थ: सो, हे भाई! इस माया से इतना डरने की जरूरत नहीं। जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के साथ जान-पहचान बना ली है, उसने इस माया को अपने वश में कर लिया।2।

स्रपनी ते आन छूछ नही अवरा ॥ स्रपनी जीती कहा करै जमरा ॥३॥

पद्अर्थ: आन अवरा = कोई और, सच पहचानने वाले के बिना कोई और। छूछ = खाली, बचा हुआ। स्रपनी ते छूछ = सपनी के असर से बचा हुआ। जमरा = विचारा जम। कहा करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकता।3।

अर्थ: (प्रभु के साथ जान-पहिचान बनाने वाले के बिना) और कोई जीव इस सपनी के असर से नहीं बचा हुआ। जिस ने (गुरु की कृपा से) इस सपनी माया को जीत लिया है, जम बिचारा भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh