श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नारद सारद करहि खवासी ॥ पासि बैठी बीबी कवला दासी ॥२॥

पद्अर्थ: खवासी = टहल, चौबदारी। बीबी कवला = लक्षमी। दासी = सेविका।2।

अर्थ: नारद भक्त की शारदा देवी भी उस श्री प्रभु जी की सेवा कर रही है (जो मेरे मन रूपी तीर्थ पे बस रहा है) और लक्ष्मी उसके पास सेविका बन के बैठी हुई है। मैं हजार नाम ले ले के प्रणाम करता हूँ।2।

कंठे माला जिहवा रामु ॥ सहंस नामु लै लै करउ सलामु ॥३॥

पद्अर्थ: कंठे = गले में। सहंस = हजारों।3।

अर्थ: जीभ पर राम का नाम जपना ही मेरे लिए गले की माला (सिमरनी) है, उस राम को (जो मेरे मन रूपी तीर्थ और जीभ पे बस रहा है) मैं हजार नाम ले ले के प्रणाम करता हूँ।3।

कहत कबीर राम गुन गावउ ॥ हिंदू तुरक दोऊ समझावउ ॥४॥४॥१३॥

अर्थ: कबीर कहता है कि मैं हरि के गुण गाता हूँ और हिन्दू व मुसलमान दोनों को समझाता हूँ (कि मन ही तीर्थ और हज है, जहाँ ईश्वर बसता है और उसके अनेक नाम हैं)।4।4।13।

नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन इस शब्द के बारे में यूँ लिखते हैं: “भक्त जी अपने स्वामी गुरु रामानंद जी की उपमा करते हैं। तब आप पीर-पीतांबर वैश्नव थे। गोमती नदी के किनारे स्वामी रामानंद के तीर्थों का हज करना उत्तम बताते हैं। वहाँ रहके जोग-अभ्यास करते थे।

पर, पाठक सज्जन इस शब्द के अर्थों को देख आए हैं कि यहाँ ना कहीं रामानंद जी का वर्णन है और ना ही किसी योगाभ्यास का।

नोट: हरेक शब्द का ठीक अर्थ समझने के लिए ये जरूरी है कि पहले ‘रहाउ’ की तुक को अच्छी तरह समझा जाए। ‘रहाउ’ की तुक, मानो, शब्द का धुरा है, जिसके इर्द-गिर्द शब्द के सारे बंद घूमते हैं।

इस शब्द के ठीक अर्थ करने के लिए उपरोक्त लिखे गुर के अतिरिक्त शब्द की आखिरी तुक की ओर ध्यान देना भी जरूरी हैइस तुक से पूर्णतया स्पष्ट होता हैकि कबीर जी सिर्फ मुसलमानों के ‘हज’ का ही जिक्र नहीं कर रहे, हिंदुओं के तीर्थों की ओर भी इशारा करते हैं, क्योंकि केवल ‘हज’ का वर्णन करने से ‘हिंदू तुरक दोऊ’ को उपदेश नहीं हो सकता।

‘गोमती’ नदी हिन्दुओं का तीर्थ है। भाई गुरदास जी जहाँ ‘गुर चरण हज’ को सारे तीर्थों से श्रेष्ठ बताते हैं वहीं और तीर्थों के साथ ‘गोमती’ का भी वर्णन करते हैं। नामदेव जी भी रामकली राग में ‘गोमती’ को हिन्दू-तीर्थ बताते हैं।

गंगा जउ गोदावरी जाईऐ, कुंभि जउ केदार न्हाईऐ, गोमती सहस गऊ दान कीजै॥ कोटि जउ तीरथ करै, तनु जउ हिवाले गारै, राम राम सरि तऊ न पूजै॥२॥४॥ (रामकली नामदेउ जी)

इसलिए कबीर जी की भी इस शब्द में ‘हज’ के मुकाबले में ‘गोमती तीर’ को प्रवानगी नहीं दे रहे। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का वाणी का हरेक शब्द (चाहे किसी भक्त जी ने उचारा है, चाहे सतिगुरु जी का अपना है) एक ही गुरमति की लड़ी में है।

शब्द ‘गोमती’ को तोड़-मोड़ के इसके कोई और अर्थ गुरमति अनुसार बनाने भी बेमायने हैं, क्योंकि उपरोक्त प्रमाण में ये ‘गोमती’ स्पष्ट तौर पर हिन्दू-तीर्थ का नाम है।

शब्द का अर्थ करने से पहले खोजी-सज्जनों के लिए एक और शब्द दिया जा रहा है, जो ऊपर दिए विचार को स्पष्ट करने में बहुत सहायक साबित होगा;

वरत न रहउ न मह रमदाना॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना॥१॥
एक गुसाई अलहु मेरा॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा॥१॥ रहाउ॥
हज काबै जाउ न तीरथ पूजा॥ एको सेवी अवर न दूजा॥२॥
पूजा करउ न निवाज गुजारउ॥ एक निरंकार ले रिदै नमसकारउ॥३॥
न हम हिंदू न मुसलमान॥ अलह राम के पिंड परान॥४॥
कहु कबीर इहु कीआ बखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥५॥३॥ (भैरउ महला ५ घरु १)

जैसे जैसे इस शब्द की हरेक तुक को ध्यान से पड़ें और विचारें तो उपरोक्त शब्द के अर्थ स्पष्ट होते चले जाते हैं। हज और तीर्थ, दोनों का वर्णन करके मुसलमान और हिन्दुओं दोनों को उपदेश दिया है।

आसा स्री कबीर जीउ के पंचपदे ९ दुतुके ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥ जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥

पद्अर्थ: पाती = पत्र, पत्ती। पाती पाती = हरेक पत्र में। जीउ = जीवन। पाहन = पत्थर। निरजीउ = निर्जीव।1।

अर्थ: (मूर्ति के आगे भेटा धरने के लिए) मालिनि पत्तियां तोड़ती है, (पर ये नहीं जानती कि) हरेक पत्ती में जीव है। जिस पत्थर (की मूर्ति) की खातिर (मालनि) पत्तियां तोड़ती है, वह पत्थर (की मूर्ती) निर्जीव है।1।

भूली मालनी है एउ ॥ सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: एउ = इस तरह।1। रहाउ।

अर्थ: (ये निर्जीव मूर्ति की सेवा करके) इस तरह (ये) मालनि भूल रही है, (असली ईष्ट) सतिगुरु तो (जीता) जागता देवता है।1। रहाउ।

ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥ तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥

पद्अर्थ: ब्रहमु = ब्रहमा। डारी = डाली, टहनी। संकर = शिव। प्रतखि = प्रत्यक्ष, सामने। तोरहि = तोड़ रही है। सेउ = सेवा।2।

अर्थ: (हे मालिनि!) पत्तियां ब्रहमा रूप हैं, डाली विष्णु रूप और फूल शिव रूप। इन तीनों देवताओं को तो तू अपने सामने ही नाश कर रही है, (फिर) सेवा किस की करती है?।2।

पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥ जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥

पद्अर्थ: पाखान = पत्थर। गढि कै = घड़ के। पाउ = पाँव, पैर।3।

अर्थ: (मूर्ति घड़ने वाले ने) पत्थर घड़ के, और (घड़ने के समय मूर्ति की) छाती पर पैर रख कर मूर्ति तैयार की है। अगर ये मूर्ति असल देवता है तो (इस निरादरी के कारण) बनाने वाले को ही खा जाती।3।

भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥ भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥

पद्अर्थ: भातु = चावल। पहिति = दाल। लापसी = पतला कड़ाह। करकरा कासारु = खस्ता पंजीरी। छारु = राख। मुखि छारु = मुंह में राख; भाव, कुछ ना मिला।4।

अर्थ: चावल, दाल, हलवा और करकरी पंजीरी तो खाने वाला (पुजारी ही) खा जाता है, इस मूर्ति के मुंह में कुछ भी नहीं पड़ता (क्योंकि ये तो निर्जीव है, खाए कैसे?)।4।

मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥ कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥

पद्अर्थ: क्रिपा करि = कृपा करके। राखे = रख लिया है, भुलेखे से बचा लिया है।5।

अर्थ: हे कबीर! कह: मालिनि (मूर्ति पूजने के) भुलेखे में पड़ी हुई है, जगत भी यही गलती कर रहा है, पर हमने ये भुलेखा नहीं खाया, क्योंकि परमात्मा ने अपनी मेहर करके हमें इस गलती से बचा लिया है।5।1।14।

नोट: कुछ सज्जन आजकल यह नई रीति चला रहे हैं कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में रोटी का थाल ला के रखते हैं, और भोग लगवाते हैं। क्या इस तरह श्री गुरु ग्रंथ साहिब को मूर्ति का दर्जा दे के निरादरी नहीं की जा रही? पंथ को सुचेत रहने की आवश्यक्ता है।

आसा ॥ बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ ॥ तीस बरस कछु देव न पूजा फिरि पछुताना बिरधि भइओ ॥१॥

पद्अर्थ: बालपन = अज्ञानता।1।

अर्थ: (उम्र के पहले) बारह साल अंजानपने में गुजर गए, (और) बीस बरस (गुजर गए, भाव, तीस सालों को पार कर गया, तब तक भी) कोई तप ना किया; तीस साल (और बीत गए, उम्र साठ को पार कर गई, तो भी) कोई भजन-बंदगी ना की, अब हाथ मलने लगा (क्योंकि) बुड्ढा हो गया।1।

मेरी मेरी करते जनमु गइओ ॥ साइरु सोखि भुजं बलइओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरी मेरी करते = इन ख्यालों में ही कि ये चीज मेरी है यह धन मेरा है, ममता में ही। साइरु = समुंदर, सागर। सोखि = सूख के, सूख जाने पर। भुजं बलइओ = भुजाओं का बल, बाहों की ताकत।1। रहाउ।

अर्थ: ‘ममता’ में ही (जवानी की) उम्र बीत गई, शरीर रूपी समुंदर सूख गया, और बाहों की ताकत (भी समाप्त हो गई)।1। रहाउ।

सूके सरवरि पालि बंधावै लूणै खेति हथ वारि करै ॥ आइओ चोरु तुरंतह ले गइओ मेरी राखत मुगधु फिरै ॥२॥

पद्अर्थ: सरवरि = तालाब में। पालि = दीवार। लूणै खेति = कटे हुए खेत में। हथ = हाथों से। वारि = वाड़। मुगधु = मूर्ख।2।

अर्थ: (अब बुढ़ापा आने पर भी मौत से बचने के उपाय करता है, पर इसके उद्यम ऐसे हैं जैसे) सूखे हुए तालाब के किनारे बाँध रहा है (ता कि पानी तालाब में से बाहर ना निकल जाए), और कटे हुए खेत के किनारे बाड़ दे रहा है। मूर्ख मनुष्य जिस शरीर को अपना बनाए रखने के यत्न करता फिरता है, पर (पर जब जम रूप) चोर (भाव, चुप करके ही जम) आता है और (जीवन को) ले के चला जाता है।2।

चरन सीसु कर क्मपन लागे नैनी नीरु असार बहै ॥ जिहवा बचनु सुधु नही निकसै तब रे धरम की आस करै ॥३॥

पद्अर्थ: कर = हाथ। कंपन = कंबणी। असार = खुद ब खुद, विना रुकने के। रे = हे भाई!।3।

अर्थ: पैर, सिर, हाथ काँपने लग जाते हैं, आँखों में से खुद-ब-खुद पानी बहता जाता है, जीभ में से कोई शब्द साफ नहीं निकलता। हे मूर्ख! (क्या) उस वक्त तू धर्म कमाने की बात करता है?।3।

हरि जीउ क्रिपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नामु लीओ ॥ गुर परसादी हरि धनु पाइओ अंते चलदिआ नालि चलिओ ॥४॥

पद्अर्थ: लाहा = लाभ। परसादी = किरपा से।4।

अर्थ: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उसकी तवज्जो (अपने चरणों में) जोड़ता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम-रूप लाभ कमाता है। जगत से चलने के वक्त भी यही नाम-धन (मनुष्य के) साथ जाता है (पर) ये धन मिलता है सतिगुरु की कृपा से।4।

कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनु धनु कछूऐ लै न गइओ ॥ आई तलब गोपाल राइ की माइआ मंदर छोडि चलिओ ॥५॥२॥१५॥

पद्अर्थ: तलब = सदा। मंदर = घर। अनु धनु = कोई और धन।5।

अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनों! सुनो, (कोई भी जीव मरने के वक्त) कोई और धन-पदार्थ अपने साथ नहीं ले जाता, क्योंकि जब परमात्मा की ओर से निमंत्रण आता है तो मनुष्य दौलत के घर (सब कुछ यहीं) छोड़ के चल पड़ता है।5।2।15।

आसा ॥ काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा ॥ काहू गरी गोदरी नाही काहू खान परारा ॥१॥

पद्अर्थ: पटंबर = पट के अंबर, पट के कपड़े। गरी गोदरी = गली फटी हुई गोदड़ी, जुल्ली। परारा = पराली। खान = घरों में।1।

अर्थ: (परमात्मा ने) कई लोगों को रेशम के कपड़े (पहनने को) दिए हैं और निवारी पलंघ (सोने के लिए); पर, कई (बिचारों) को सड़ी-गली जुल्ली भी नहीं मिलती, और कई घरों में (बिस्तरों की जगह) पराली ही है।1।

अहिरख वादु न कीजै रे मन ॥ सुक्रितु करि करि लीजै रे मन ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अहिरख = हिरख, ईष्या, गिला। वादु = झगड़ा। सुक्रितु = नेक कमाई।1। रहाउ।

अर्थ: (पर) हे मन! ईष्या और झगड़ा क्यों करता है? नेक कमाई किए जा और तू भी ये सुख हासिल कर ले।1। रहाउ।

कुम्हारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ॥ काहू महि मोती मुकताहल काहू बिआधि लगाई ॥२॥

पद्अर्थ: बहु बिधि = कई किस्मों की। बानी = रंगत, वन्नी। मुकताहल = मुक्ताहल, मोतियों की माला। बिआधि = मध,शराब आदि रोग लगाने वाली चीजें।2।

अर्थ: कुम्हार ने एक ही मिट्टी गूँदी और उसे कई किस्म के रंग लगा दिए (भाव, कई तरह के बर्तन बना दिए)। किसी बर्तन में मोती और मोतियों की माला (मनुष्य ने) डाल दीं और किसी में (शराब आदि) रोग लगाने वाली चीजें।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh