श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा ॥ जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥ तेल जले बाती ठहरानी सूंना मंदरु होई ॥१॥

पद्अर्थ: मुखि = मुंह में। बाती = बत्ती। सूझै = नजर आता है। सभु कोई = हरेक चीज। ठहरानी = खड़ी हो गई, सूख गई, बुझ गई। सूंना = सूना, खाली। मंदरु = घर।1।

अर्थ: (जैसे) जब तक दीपक में तेल है, और दीए के मुंह में बाती है, तब तक (घर में) हरेक चीज नजर आती है। तेल जल जाए, बाती बुझ जाए, तो घर सूना हो जाता है (वैसे ही, शरीर में जब तक श्वास हैं तो जिंदगी कायम है, तब तक हरेक चीज ‘अपनी’ प्रतीत होती है, पर श्वास खत्म हो जाएं और जिंदगी की ज्योति बुझ जाए तो ये शरीर अकेला रह जाता है)।1।

रे बउरे तुहि घरी न राखै कोई ॥ तूं राम नामु जपि सोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रे बउरे = हे कमले जीव! तुहि = तुझे। सोई = सार लेने वाला, सच्चा साथी।1। रहाउ।

अर्थ: (उस वक्त) हे कमले! तुझे किसी ने एक घड़ी भी घर में रहने नहीं देना। सो, रब का नाम जप, वही साथ निभाने वाला है।1। रहाउ।

का की मात पिता कहु का को कवन पुरख की जोई ॥ घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥२॥

पद्अर्थ: का की = किस की? जोई = जोरू, स्त्री, पत्नी। घट = शरीर। फूटे = टूट जाने पर।2।

अर्थ: यहाँ बताओ, किस की माँ? किस का पिता? और किस की पत्नी? जब शरीर-रूप बर्तन टूटता है, कोई (इसकी) बात नहीं पूछता, (तब) यही पड़ा होता है (भाव, हर तरफ से यही आवाज आती है) इसको जल्दी बाहर निकालो।2।

देहुरी बैठी माता रोवै खटीआ ले गए भाई ॥ लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंसु इकेला जाई ॥३॥

पद्अर्थ: देहुरी = दहलीज़। खटीआ = चारपाई। लट छिटकाए = केस खोल के, सिर के बाल बिखरा के। तिरीआ = पत्नी। हंसु = जीवात्मा।3।

अर्थ: घर की दहलीज़ पर बैठी माँ रोती है, चारपाई उठा के भाई (शमशान को) ले जाते हैं। लटें बिखरा के पत्नी पड़ी रोती है, (पर) जीवात्मा अकेले (ही) जाती है।3।

कहत कबीर सुनहु रे संतहु भै सागर कै ताई ॥ इसु बंदे सिरि जुलमु होत है जमु नही हटै गुसाई ॥४॥९॥

पद्अर्थ: भै सागरु = तौख़लों का समुंदर, भय से भरा संसार समुंदर। कै ताई = की बाबत, के बारे। गुसाई = हे संत जी!

अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनो! इस डरावने समुंदर के बारे में सुनो (भाव, आखिर नतीजा ये निकलता है) (कि जिनको ‘अपना’ समझता रहा था, उनसे साथ टूट जाने पर, अकेले) इस जीव पर (इसके किए विकर्मों के अनुसार) मुसीबत आती है, जम (का डर) सिर से टलता नहीं है।4।9।

नोट: दो-दो तुकों के ‘बंद’ वाले ये 9 शब्द हैं।

दुतुके    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा स्री कबीर जीउ के चउपदे इकतुके ॥

सनक सनंद अंतु नही पाइआ ॥ बेद पड़े पड़ि ब्रहमे जनमु गवाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: सनक सनंद = ब्रहमा के पुत्रों के नाम हैं। ब्रहमे बेद = ब्रहमा के रचे हुए वेद। पढ़े पढ़ि = पढ़ पढ़ के।1।

अर्थ: सनक सनंद (आदि ब्रहमा जी के पुत्रों) ने भी (परमात्मा के गुणों का) अंत नहीं पाया। उन्होंने ब्रहमा के रचे वेद पढ़-पढ़ के ही उम्र (व्यर्थ) गवा ली।1।

हरि का बिलोवना बिलोवहु मेरे भाई ॥ सहजि बिलोवहु जैसे ततु न जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिलोवना = मथना। हरि का बिलोवना = जैसे दूध को बार बार खासी देर मथते हैं, उसी तरह परमात्मा की बार बार याद। सहजि = सहज अवस्था में (टिक के); जैसे दूध को सहजे सहज मथते हैं, जल्दबाजी करने से मक्खन बीच में ही घुल जाता है, वैसे ही मन को सहज अवस्था में रख के प्रभु का स्मरण करना है। ततु = (दूध का तत्व) मक्खन। सिमरन का तत्व = प्रभु का मिलाप)।1। रहाउ।

(नोट: यहाँ शब्द ‘सहज’ को ‘दूध मथने’ और ‘स्मरण’ के साथ दो तरीकों में बरतना है; सहजे सहज मथना; सहज अवस्था में टिक के स्मरण करना)।

अर्थ: हे मेरे वीर! बार-बार परमात्मा का स्मरण करो, सहज अवस्था में टिक के स्मरण करो ता कि (इस उद्यम का) तत्व हाथों से जाता ना रहे (भाव, प्रभु से मिलाप बन सके)।1। रहाउ।

तनु करि मटुकी मन माहि बिलोई ॥ इसु मटुकी महि सबदु संजोई ॥२॥

पद्अर्थ: मटुकी = मटकी, चाटी। मन माहि = मन के अंदर ही (भाव, मन को अंदर ही रखना, मन को भटकना से बचाए रखना, ये मथानी हो)। संजोई = जाग, जो दूध को दही बनाने के लिए लगाते हैं।2।

अर्थ: हे भाई! अपने शरीर को मटकी (चाटी) बनाओ (भाव, शरीर के अंदर ही ज्योति तलाशनी है); मन को भटकने से बचाए रखो- ये मथानी बनाओ; इस (शरीर रूप) चाटी में (सतिगुरु का) शब्द-रूप जाग लगाओ (जो स्मरण रूप दूध में से प्रभु-मिलाप का तत्व निकालने में सहायता करे)।2।

हरि का बिलोवना मन का बीचारा ॥ गुर प्रसादि पावै अम्रित धारा ॥३॥

पद्अर्थ: अंम्रित धारा = अमृत का श्रोत।3।

अर्थ: जो मनुष्य अपने मन में प्रभु की याद रूपी मथने का काम करता है, उसे सतिगुरु की कृपा से (हरि-नाम रूप) अमृत का श्रोत प्राप्त हो जाता है।3।

कहु कबीर नदरि करे जे मींरा ॥ राम नाम लगि उतरे तीरा ॥४॥१॥१०॥

पद्अर्थ: मींरा = बादशाह। लगि = लग के, जुड़ के। तीरा = किनारा। कहु = कह (भाव, असल बात ये है)।4।

अर्थ: हे कबीर! दरअसल बात ये है कि जिस मनुष्य पर पातशाह (ईश्वर) मेहर करता है वह परमात्मा का नाम स्मरण करके (संसार समुंदर से) पार जा लगता है।4।1।10।

आसा ॥ बाती सूकी तेलु निखूटा ॥ मंदलु न बाजै नटु पै सूता ॥१॥

पद्अर्थ: नटु = नट जीव जो माया का नचाया नाच रहा था। पै = बेपरवाह हो के, माया की तरफ से बेफिक्र हो के। सूता = सो गया है, शांत चित्त हो गया है, डोलने से हट गया है। मंदलु = ढोल, माया का प्रभाव रूपी ढोल। तेलु = माया का मोह रूपी तेल। बाती = बत्ती जिसके आसरे तेल जलता है और दीया जगमगाता रहता है, मन की सूझ जो मोह में फसाई रखती है।1।

अर्थ: वह जीव-नट (जो पहले माया का नचाया हुआ नाच रहा था) अब (माया की ओर से) बेपरवाह हो गया है (इसलिए) भटकने से बच जाता है, उसकी तवज्जो (माया की ओर से) हट जाती है।1।

बुझि गई अगनि न निकसिओ धूंआ ॥ रवि रहिआ एकु अवरु नही दूआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अगनि = तृष्णा की आग। न...धूँआ = उस आग का धूंआ भी खत्म हो गया, उस तृष्णा में से उठने वाली वासनाएं खत्म हो गई। रवि रहिआ एकु = हर जगह एक प्रभु ही दिख रहा है।1। रहाउ।

अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है और तृष्णा में से उठने वाली वासनाएंसमाप्त हो जाती हैं, उसे हर जगह एक प्रभु ही व्यापक दिखता है, प्रभु के बिना कोई और नहीं प्रतीत होता।1। रहाउ।

टूटी तंतु न बजै रबाबु ॥ भूलि बिगारिओ अपना काजु ॥२॥

पद्अर्थ: न बजै रबाबु = रबाब बजने से हट गया है, शरीर से प्यार खत्म हो गया है, देह अध्यास खत्म हो गया है। तंतु = तार जिससे रबाब बजता है, माया की लगन।2।

अर्थ: (जिस शारीरिक मोह में) फंस के पहले मनुष्य अपना (असल करने वाला) काम खराब किए जा रहा था, अब वह शरीर मोह-रूपी रबाब बजता ही नहीं क्योंकि (तृष्णा के खत्म होने पर) मोह की तार टूट जाती है।2।

कथनी बदनी कहनु कहावनु ॥ समझि परी तउ बिसरिओ गावनु ॥३॥

अर्थ: अब जब (जीवन की) सही समझ आ गई तो शरीर की खातिर ही वह पहली बातें, वह तरले, वह मिन्नतें, सब भूल गए।3।

कहत कबीर पंच जो चूरे ॥ तिन ते नाहि परम पदु दूरे ॥४॥२॥११॥

पद्अर्थ: चूरे = नाश करे। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।4।

अर्थ: कबीर कहता है: जो मनुष्य पाँचों कामादिकों को मार लेते हैं, उन मनुष्यों से ऊँची आत्मिक अवस्था दूर नहीं रह जाती।4।2।11।

नोट: इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुक और आखिरी बंद को जरा ध्यान से पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि इस सारे शब्द में उस अवस्था का जिक्र है जब जीव को हर जगह प्रभु ही प्रभु व्यापक दिखता है। उस हालत में पहुँचे हुए जी पे कामादिक बलियों का जोर नहीं पड़ सकता, उस मनुष्य के अंदर से तृष्णा की अग्नि बुझ जाती है। तृष्णा की आग बुझने से पहले जीव-नट माया की रास डाल रहा था, माया का नचाया नाच रहा था। पर, जब माया के मोह की तारें टूट गई, रबाब बजनी बंद हो गई, शरीर की नित्य की वासनाओं का राग-रोना खत्म हो गया।

आसा ॥ सुतु अपराध करत है जेते ॥ जननी चीति न राखसि तेते ॥१॥

पद्अर्थ: सुतु = पुत्र। अपराध = गलतियां, भूलें। जेते = जितने भी, चाहे कितने ही। जननी = माँ। चीति = चित्त में। तेते = वह सारे ही।1।

अर्थ: पुत्र चाहे कितनी ही गलतियां क्यों ना करे, उसकी माँ वह सारी की सारी भुला देती है।1।

रामईआ हउ बारिकु तेरा ॥ काहे न खंडसि अवगनु मेरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रामईआ = हे सुंदर राम! हउ = मैं। बारिकु = बालक, अंजान बच्चा। न खंडसि = तू नहीं नाश करता।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) सुंदर राम! मैं तेरा अंजान बचा हूँ, तू (मेरे अंदर से) मेरी भूलों को क्यों दूर नहीं करता?।1। रहाउ।

जे अति क्रोप करे करि धाइआ ॥ ता भी चीति न राखसि माइआ ॥२॥

पद्अर्थ: अति = बहुत। क्रोप = क्रोध, गुस्सा। करे करि = कर कर, बार बार करके। धाइआ = दौड़े। माइआ = माँ।2।

अर्थ: अगर (मूर्ख बच्चा) बड़ा क्रोध कर करके माँ को मारने भी लगे, तो भी माँ (उसके मूर्खपने को) याद नहीं रखती।2।

चिंत भवनि मनु परिओ हमारा ॥ नाम बिना कैसे उतरसि पारा ॥३॥

पद्अर्थ: चिंत भवनि = चिन्ता के भवन में, चिन्ता के बवण्डर में।3।

अर्थ: हे मेरे राम! मेरा मन चिन्ता के कूँए में पड़ा हुआ है (मैं सदा भूलें ही करता रहा हूँ) तेरा नाम स्मरण के बिना कैसे इस चिन्ता में से पार लांघू?।3।

देहि बिमल मति सदा सरीरा ॥ सहजि सहजि गुन रवै कबीरा ॥४॥३॥१२॥

पद्अर्थ: बिमल मति = निर्मल बुद्धि, सुमति। सहजि = सहज अवस्था में टिक के। रवै = याद करे।4।

अर्थ: हे प्रभु! मेरे इस शरीर को (भाव, मुझे) सदा कोई सुमति दे, जिससे (तेरा बच्चा) कबीर अडोल अवस्था में रहके तेरे गुण गाता रहे।4।3।12।

आसा ॥ हज हमारी गोमती तीर ॥ जहा बसहि पीत्मबर पीर ॥१॥

पद्अर्थ: गोमती तीर = गोमती के किनारे। जहा = जहाँ। बसहि = बस रहे हैं। पीतंबर पीर = प्रभु जी।1।

अर्थ: हमारा हज और हमारी गोमती का किनारा (ये मनही है), जहाँ श्री प्रभु जी बस रहे हैं।1।

नोट: ये पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि कबीर जी ‘हज’ के मुकाबले में ‘गोमती तीर’ को अपना ईष्ट नहीं कह रहे।

‘पीतंबर पीर’ शब्द ‘कृष्ण जी’ के लिए भी नहीं है, क्योंकि कृष्ण जी का गोमती नदी से कोई संबंध नहीं है।

पहली तुक में किसी ऐसे ठिकाने की ओर इशारा है जिस की बाबत शब्द ‘जह’ (जहाँ) प्रयोग कर के कहा गया है कि ‘पीतांबर पीर’ वहाँ ‘बसहि’ बस रहे हैं।

अकाल पुरख के लिए शब्द ‘पीतंबर पीर’ का प्रयोग क्रिया (verb) बहुवचन (Plural Number) में केवल आदर वास्ते उपयोग की गई है, जैसे;

प्रभ जी बसहि साध की रसना॥
नानक जन का दासनि दसना॥ (सुखमनी साहिब)

‘रहाउ’ की तुक के साथ संबंध जोड़ने से पहली तुक का साधारण पाठ इस प्रकार है:

(हमारे) हज (और) हमारी गोमती तीर (यह मन ही है), जहां पीतंबर पीर बसहि।

वाहु वाहु किआ खूबु गावता है ॥ हरि का नामु मेरै मनि भावता है ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: वाहु वाहु = महिमा। खूबु = सुंदर। खूबु वाहु वाहु = सुंदर महिमा। मेरै मनि = मेरे मन में।1। रहाउ।

अर्थ: (मेरा मन) क्या सुन्दर महिमा कर रहा है (और) हरि का नाम मेरे मन में प्यारा लग रहा है (इसलिए ये मेरा मनही तीर्थ है और यही मेरा हज है)।1। रहाउ।

नोट: ये ‘रहाउ’ की तुक सारे शब्द का, मानो, धुरा है। यहाँ प्रश्न उठता है कि कौन ‘खूबु वाहु वाहु’ गाता है? ‘रहाउ’ की तुक के दूसरे हिस्से को ध्यान से पढ़ने पर क्रिया (verb) ‘गावता है’ का करता (Subject) मिल जाता है।

अर्थ करते समय तुक का साधारण पाठ (prose Order) इस तरह बनेगा: (मेरा मन) क्या खूबु वाहु वाहु गावता है, (और) हरि का नाम मेरै मनि भावता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh