श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आगम निरगम जोतिक जानहि बहु बहु बिआकरना ॥ तंत मंत्र सभ अउखध जानहि अंति तऊ मरना ॥२॥

पद्अर्थ: आगम = शास्त्र। निरगम = निगम, वेद। जानहि = (जो लोग) जानते हैं। तंत = टूणे जादू। अउखध = दवाईआं।2।

अर्थ: जो लोग शास्त्र-वेद-ज्योतिष और कई व्याकरण जानते हैं, जो मनुष्य जादू-टूणे मंत्र और दवाएं जानते हैं, उनका भी जनम-मरण का चक्कर नहीं खत्म होता।2।

राज भोग अरु छत्र सिंघासन बहु सुंदरि रमना ॥ पान कपूर सुबासक चंदन अंति तऊ मरना ॥३॥

पद्अर्थ: भोग = मौजें। सिंघासन = सिंहासन, तख्त। सुंदरि रमना = सुंदर स्त्रीयां। सुबासक चंदन = सोहणी सुगंधि देने वाला चंदन।3।

अर्थ: कई ऐसे हैं जो राज (पाट) की मौजें लेते हैं,सिंहासन पर बैठते हैं, जिनके सिर पर छत्र झूलते हैं, (महलों में) सुंदर नारियां हैं, जो पान-कपूर-सुगंधि देने वाले चंदन का प्रयोग करते हैं; मौत का चक्र उनके सिर पर भी मौजूद है।3।

बेद पुरान सिम्रिति सभ खोजे कहू न ऊबरना ॥ कहु कबीर इउ रामहि ज्मपउ मेटि जनम मरना ॥४॥५॥

पद्अर्थ: कहु = कहीं भी। ऊबरना = (जनम मरन के चक्कर से) बचाव। इउ = इस वास्ते। जंपउ = मैं जपता हूँ, मैं स्मरण करता हूँ। मेटि = मिटाता है।4।

अर्थ: हे कबीर! कह: वेद-पुराण-स्मृतियां सारे खोज के देखे हैं (प्रभु के नाम की ओट के बिना और कहीं भी जनम-मरन के चक्र से बचाव नहीं मिलता; सो मैं तो परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ, प्रभु का नाम ही जनम-मरण मिटाता है।4।5।

आसा ॥ फीलु रबाबी बलदु पखावज कऊआ ताल बजावै ॥ पहिरि चोलना गदहा नाचै भैसा भगति करावै ॥१॥

पद्अर्थ: फीलु = हाथी। पखावज = जोड़ी बजाने वाला। कऊआ = कौआ।1।

अर्थ: (मन का) हाथी (वाला स्वभाव) रबाबी (बन गया है), बैल (वाला स्वभाव) जोड़ी बजाने वाला (हो गया है) और कौए (वाला स्वभाव) ताल बजा रहा है। गधा (गधे वाला स्वभाव) (प्रेम रूपी) चोला पहन के नाच रहा है और भैंसा (अर्थात, भैंसे वाला स्वभाव) भक्ति करता है।1।

नोट: बैल का आम तौर पर ‘आलस’ का स्वभाव प्रसिद्ध है। हाथी का, गधे और भैंसे के लिए वाणी में निम्न लिखे प्रमाण हैं;

‘कऊआ काग कउ अंम्रित रसु पाईऐ, त्रिपतै विसटा खाइ मुखि गोहै॥’
‘हरी अंगूरी गदहा चरै॥’
‘माता भैसा अमुहा जाइ॥ कुदि कुदि चरै रसातलि पाइ॥’
‘हरि है खांड रेतु महि बिखरिओ, हाथी चुनी न जाइ॥’

इन प्रमाणों की सहायता से उपरोक्त त्रिगद जूनियों से मन के ‘अहंकार’, ‘अति चतुराई’, ‘काम’ और ‘अमोड़पना’; ये चारों स्वभाव लेने हैं।

भाव: स्वभाव बदलने से पहले मन अहंकार, आलस, चतुराई, काम और कठोरता- इन विकारों के अधीनस्त रहता था। पर, जब अंदर रस आया है, तो प्रेम में भीग के मन इस नए विवाह में उद्यम करके सहायक बनता है।1।

राजा राम ककरीआ बरे पकाए ॥ किनै बूझनहारै खाए ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राजा राम = हे सुंदर राम! ककरीआ = धतूरे की खखड़ियां। आबरे पकाए = पके हुए आम। किनै = किसी विरले ने। बूझनहारै = ज्ञानवान ने।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे सुंदर राम! धतूरे की खखड़ियां अब आम बन गई हैं, पर खाई किसी विरले विचारवान ने है।

भाव: जैसे धतूरे की खखड़ियां देखने में आमों की तरह प्रतीत होती हैं; वैसे ही मन पहले सारे काम दिखावे वाले करता था। अब विधाता की मेहर से सचमुच पके हुए आम बन गए हैं, भाव मन में स्वाद, मिठास और अस्लियत आ गई है। ये स्वाद विरले भाग्यशाली मनुष्यों को मिलता है।1। रहाउ।

बैठि सिंघु घरि पान लगावै घीस गलउरे लिआवै ॥ घरि घरि मुसरी मंगलु गावहि कछूआ संखु बजावै ॥२॥

पद्अर्थ: बैठि घर = अंदर टिक के। सिंघु = हिंसा वाला स्वभाव निर्दयता। पान लगावै = (बारातियों के लिए) पान तैयार करता है (अर्थात, सबकी सेवा करने का उद्यम करता है)। घीस = छछूंदर, मन की छछूंदर वाला स्वभाव, तृष्णा। गलउरे = पानों के बीड़े। ‘घीस...लिआवै’ = भाव, पहले मन इतना तृष्णा के अधीन था कि खुद ही नहीं संतुष्ट होता था, पर अब औरों की सेवा करता है। घरि घरि = हरेक घर में, हरेक गोलक स्थान में। मुसरी = चुहियां, इंद्रिय।

नोट: शब्द ‘मुसर’ व्याकरण के अनुसार बहुवचन है, क्योंकि इसकी क्रिया ‘गावहि’ बहुवचन है।

पद्अर्थ: कछूआ = मन का कछूए वाला स्वभाव, मनुष्यों से संकोच, कायरता, मन का सत्संग से डरना। संखु बजावै = भाव, वह मन जो पहले खुद सत्संग से डरता था, अब और लोगों को उपदेश करता है।2।

अर्थ: (मन-) सिंह अपने स्वै-स्वरूप में टिक के (अर्थात, मन का निर्दयता वाला स्वभाव हट के अब यह) सेवा के लिए तत्पर रहता है और (मन-) छछूंदर पानों के बीड़े बाँट रहा है (भाव, मन तृष्णा छोड़ के औरों की सेवा करता है)। सारी इंद्रिय अपने-अपने घरों में रह के हरि-यश रूपी मंगल गा रही हैं और (वही) मन (जो पहले) कछुआ (था, अर्थात, जो पहले सत्संग से दूर भागता था, अब) और लोगों को उपदेश कर रहा है।2।

बंस को पूतु बीआहन चलिआ सुइने मंडप छाए ॥ रूप कंनिआ सुंदरि बेधी ससै सिंघ गुन गाए ॥३॥

पद्अर्थ: बंस को पूतु = बाँझ स्त्री का पुत्र, माया का पुत्र, माया ग्रसित मन।

नोट: ‘माया’ को बाँझ स्त्री इसलिए माना गया है कि कुदरत के नियम के अनुसार माया पुत्र नहीं पैदा करती, जुगती (युक्ति) से पैदा करती है।

पंज पूत जणे इक माइ॥ उतभुज खेलु करि जगत विआइ॥
तीनि गुणां कै संगि रचि रसे॥ इन कउ छोडि ऊपरि जन बसे॥९॥१२॥ गौंड म: ५

बीआहन चलिआ = ब्याहने चल पड़ा।

नोट: आम तौर पर गुरबाणी में जीव को स्त्री-भाव में बताया गया है। इस तुक में ‘मन’ ब्याहने चला लिखा है। प्रश्न उठता है कि किसे ब्याहने चला? कबीर जी का ही एक शब्द इस अर्थ को समझने में सहायता देता है;

पहिली करूपि कुजाति कुलखनी, साहुरै पेईऐ बुरी॥ अब की सरूपि सुजानि सुलखनी, सहजे उदरि धरी॥१॥ भली सरी, मुई मेरी पहिली बरी॥ जुगु जुगु जीवउ मेरी अब की धरी॥१॥ रहाउ॥ कहु कबीर जब लहुरी आई, बडी का सुहागु टरिओ॥ लहुरी संगि भई अब मेरै, जेठी अउरु धरिओ॥२॥२॥३२॥ (आसा कबीर जी)

अगली तुक का पहला हिस्सा ‘रूप कंनिआ सुंदरि बेधी’ इस विचार को और भी ज्यादा स्पष्ट कर देता है।

सुइने मंडप छाए = सोने के शामयाने ताने गए, दसवाँ द्वार में प्रकाश ही प्रकाश हो गया, अंदर खिड़ाव ही खिड़ाव हो गया। रूप कंनिआ सुंदरि = वह सुंदरी जो कन्या रूप है, जो कुआरी है, विकारों के संग से बची हुई है, भाव, विकार रहित रुचि। बेधी = बेध दी, वश में कर ली, व्याह ली। ससै = सहे ने (खरगोश ने), विकारों में पड़ के कमजोर हो गए मन ने। सिंघ गुन = हरि के गुण।3।

अर्थ: (जो पहिले) माया में ग्रसित (था, वह) मन (स्वच्छ सूझ) बयाहने चल पड़ा है, (अब) अंदर आनंद ही आनंद बन गया है। उस मन ने (हरि के साथ जुड़ी वह सूझ-रूपी) सुंदरी से विवाह कर लिया है जो विकारों से कवारी है (और अब वह मन जो पहले विकारों में पड़ने के कारण) डरा था, (भाव, सहमा हुआ था, अब) निर्भय हरि के गुण गाता है।3।

कहत कबीर सुनहु रे संतहु कीटी परबतु खाइआ ॥ कछूआ कहै अंगार भि लोरउ लूकी सबदु सुनाइआ ॥४॥६॥

पद्अर्थ: कीटी = कीड़ी, नम्रता।

हरि है खांडु रेतु महि बिखरी हाथी चुनी न जाइ॥
कहि कबीर गुरि भली बुझाई कीटी होइ कै खाइ॥ (२३८)

परबत = (मन का) अहंकार। कछूआ = सर्द मेहरी, कोरापन।

नोट: कछूए के आम तौर पर दो स्वभाव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं: एक, मनुष्य से डरना, दूसरा ज्यादा समय पानी में रहना। यहाँ इसके ‘पानी के प्यार’ को ठंड, सर्द मेहरी, कोरापन के भाव में लेना है।

अंगारु = सेक, तपश, गर्मी, प्यार, हमदर्दी। लोरउ = चाहता हूँ। लूकी = गत्ती, जो अंधेरे में रहती है और डंक मारती है, भाव, (मन की) अज्ञानता जो जीव को अंधकार में रखती है और दुखी करती है। लूकी सबदु सुणाइआ = अज्ञानता पलट के ज्ञान बन गई है, और अब मन और लोगों को भी उपदेश देने लग पड़ा है।4।

अर्थ: कबीर कहता है: हे संत जनो! सुनो (अब मन की) विनम्रता ने अहंकार को मार दिया है। (मन का) कोरापन (हट गया है, और मन) कहता है, मुझे हमदर्दी (की तपश) चाहिए, (अब मन इमानदारी हमदर्दी के गुण का चाहवान है)। (मन की) अज्ञानता पलट के ज्ञान बन गई है और (अब मन और लोगों को) गुरु का शब्द सुना रहा है।4।6।

नोट 1. इस शब्द के अर्थ करने से पहले अर्थों को समझने के लिए एक-दो बातें बतानी जरूरी हैं। शब्द को समझने के लिए ‘रहाउ’ की पंक्ति में कबीर जी अपने प्यारे दातार के धन्यवादी अवस्था में आ के अपने मन की अवस्था को एक दृष्टांत की शकल में पेश करते हैं। ये दृष्टांत आक (धतूरे) की खखड़ियों का है।

नोट 2. ‘रहाउ’ वाली तुक में जो मुख्य भाव है उसे बाकी के शब्द में खेल के प्रकट किया गया है। इन सारे पदों में एक और दृष्टांत लिया गया है, ब्याह का।

नोट 3. ‘रहाउ’ की तुक में कबीर जी कहते हैं कि ये मन जो धतूरे के खखड़ी जैसा था, अब पका हुआ आम बन गया है। पर, ये स्वाद किसी विरले भाग्यशाली को मिलता है। शब्द के बाकी पदों में इस तबदीली के विस्तार से बयान करते हैं। मन की पहली वादियों (स्वभाव) को हाथी, बैल आदि पशुओं के प्रसिद्ध स्वभावों के द्वारा दिखाया गया है, और साथ-साथ ये भी बताया है कि पशु-वृति से उलट के मन अब क्या करने लगा है।

आसा ॥ बटूआ एकु बहतरि आधारी एको जिसहि दुआरा ॥ नवै खंड की प्रिथमी मागै सो जोगी जगि सारा ॥१॥

पद्अर्थ: बटूआ = (संस्कृत: वर्तुल; प्राकृत बट्ठल Plural बटूआ) वह थैला जिसमें जोगी विभूत डाल के रखता है। एकु = एक प्रभु नाम। बहतरि = बहत्तर बड़ी नाड़ियों वाला शरीर। आधारी = झोली। जिसहि = जिस शरीर रूपी झोली को। एको दुआरा = (प्रभु से मिलने के लिए) एक ही (दसवाँ द्वार रूप) दरवाजा है। नवै खंड की = नौ खंडों वाली, नौ गोलकों वाली (देही)। प्रिथमी = शरीर रूप धरती। जगि = जगत में। सारा = श्रेष्ठ।1।

अर्थ: वह जोगी एक प्रभु नाम को अपना बटूआ बनाता है, बहत्तर बड़ी नाड़ियों वाले शरीर को झोली बनाता है, जिस शरीर में प्रभु को मिलने के लिए (दिमाग़ रूप) एक ही दरवाजा है। वह जोगी इस शरीर के अंदर ही टिक के (प्रभु के दर से नाम की) भिक्षा मांगता है (हमारी नजरों में तो) वह जोगी जगत में सबसे श्रेष्ठ है।1।

ऐसा जोगी नउ निधि पावै ॥ तल का ब्रहमु ले गगनि चरावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नउ निधि = नौ खजाने। ब्रहमु = परमात्मा। तल का ब्रहमु = परमात्मा की वह अंशजो नीचे ही टिकी रहती है, माया में फसी आत्मा। गगनि = आकाश में, ऊपर माया के प्रभाव से ऊँचा।1। रहाउ।

नोट: ‘ब्रहम’ संस्कृत का शब्द है, इसका अर्थ ‘प्राण’ नहीं है; जोग-मत के सारे शब्द देख के हरेक शब्द के अर्थ जबरदस्ती जोग-मत से मेल खाने वाले किए जाना ठीक नहीं है। कबीर जी, तो हठ योग की जगह यहाँ नाम-जपने की महिमा बता रहे हैं। चौथे बंद में साफ बताते हैं कि नाम का स्मरण सबसे श्रेष्ठ ‘योग’ है। पहले बंद में भी यही बताते हैं कि हमारी नजरों में वह जोगी श्रेष्ठ है, जिसने ‘नाम’ को बटूआ बनाया है।

अर्थ: जो मनुष्य माया-ग्रसित आत्मा को उठा के माया के प्रभाव से ऊँचा ले जाता है, वह है असल जोगी, जिसे (मानो) नौ खजाने मिल जाते हैं।1। रहाउ।

खिंथा गिआन धिआन करि सूई सबदु तागा मथि घालै ॥ पंच ततु की करि मिरगाणी गुर कै मारगि चालै ॥२॥

पद्अर्थ: खिंथा = गोदड़ी। मथि = मथ के, मरोड़ के। घालै = पहनता है। पंच ततु = शरीर जो पाँच तत्वों का बना है। मिरगाणी = मृगछाला, आसन। पंज...मिरगाणी = शरीर को आसन बना के, शरीर के मोह को पैरों के नीचे रख के, देह अध्यास को समाप्त करके। मारगि = रास्ते पर। चालै = चलते है।2।

अर्थ: असल जोगी ज्ञान की गोदड़ी बनाता है, प्रभु चरणों में जुड़ी हुई तवज्जो की सूई तैयार करता है, गुरु का शब्द रूपी धागा मरोड़ के (भाव, बारंबार शब्द की कमाई करके) उस सूई में डालता है, शरीर के मोह को पैरों के तले दे के सतिगुरु के बताए हुए राह पर चलता है।2।

दइआ फाहुरी काइआ करि धूई द्रिसटि की अगनि जलावै ॥ तिस का भाउ लए रिद अंतरि चहु जुग ताड़ी लावै ॥३॥

पद्अर्थ: फाहुरी = धूएं की राख एकत्र करने वाली पहौड़ी। धूई = धूआँ, धूणी। दृष्टि = (हर जगह प्रभु को देखने वाली) नजर। तिस का = उस प्रभु का। भाउ = प्यार। चहु जुग = सदा ही, अटल। ताड़ी लावै = तवज्जो जोड़ी रखता है।3।

अर्थ: असल जोगी अपने शरीर की धूणी बना के उस में (प्रभु को हर जगह देखने वाली) नजर की आग जलाता है (और इस शरीर रूपी धूएं में भले गुण एकत्र करने के लिए) दया को पहौड़ी बनाता है, उस परमात्मा का प्यार अपने हृदय में बसाता है और इस तरह सदा के लिए अपनी तवज्जो प्रभु-चरणों में जोड़े रखता है।3।

सभ जोगतण राम नामु है जिस का पिंडु पराना ॥ कहु कबीर जे किरपा धारै देइ सचा नीसाना ॥४॥७॥

पद्अर्थ: जोगतण = योग कमाने का उद्यम। पिंडु = शरीर। देइ = देता है। सचा = सदा टिका रहने वाला। नीसाना = निशान, माथे पर नूर।4।

अर्थ: हे कबीर! कह: जिस प्रभु का दिया हुआ ये शरीर और जीवात्मा है, उसका नाम स्मरणा सबसे अच्छा योग का काम है। यदि प्रभु खुद मेहर करे तो वह ये सदा-स्थिर रहने वाला नूर बख्शता है।4।7।

आसा ॥ हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥ दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥

पद्अर्थ: कहा मे = कहाँ से? किनि = किस ने? एह राह = हिन्दू और मुसलमान की मर्यादा के ये रास्ते। कवादे = हे बुरे झगड़ालू!।1।

अर्थ: बुरे झगड़ालू (अपने मत को सच्चा साबित करने के लिए बहस करने की जगह, अस्लियत ढूँढने के लिए) अपने दिल में सोच और विचार कर कि हिन्दू और मुसलमान (एक परमात्मा के बिना और) कहाँ से पैदा हुए हैं, (प्रभु के बिना और) किस ने ये रास्ते चलाए; (जब दोनों मतों के बंदे रब ने ही पैदा किए हैं, तो वह किस तरह भेद-भाव कर सकता है? सिर्फ मुसलमान अथवा हिन्दू होने से ही) किसने बहिश्त पाया और किस ने दोजक? (भाव, सिर्फ मुसलमान कहलवाने से ही बहिश्त नहीं मिल जाता, और हिंदू रहने से दोजक नहीं मिलता)।1।

काजी तै कवन कतेब बखानी ॥ पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तै = तू। बखानी = बता रहा है। गुनत = विचारते।1। रहाउ।

अर्थ: हे काजी! तू कौन सी किताबों में से बता रहा है (कि मुसलमान को बहिश्त और हिन्दू को दोजक मिलेगा)? (हे काज़ी!) तेरे जैसे पढ़ने और विचारने वाले (भाव, जो मनुष्य तेरी तरह तअसुब की पट्टी आँखों के आगे बाँध के मज़हबी किताबें पढ़ते हैं) सब ख्वार होते हैं। किसी को अस्लियत की समझ नहीं पड़ी।1। रहाउ।

सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥ जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥

पद्अर्थ: सकति = स्त्री। सनेहु = प्यार। सुंनति = मुसलमानों की मज़हबी रस्म; छोटी उम्र में लड़के की इन्द्रीय का सिरे का मास काट देते हैं। बदउगा = मानूँगा। भाई = हे भाई! जउ = अगर। रे = हे भाई! मोहि = मुझे।2।

अर्थ: (यह) सुंन्नत (तो) औरत के प्यार की खातिर की जाती है। हे भाई! मैं नहीं मान सकता (कि इसका रब से मिलने से कोई संबंध है)। यदि रब ने मुझे मुसलमान बनाना हुआ, तो मेरी सुन्नत अपने आप ही हो जाएगी।2।

सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥ अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥

पद्अर्थ: कीए = करने से। किआ करीऐ = क्या किया जाए? अरधसरीरी = आधे शरीर वाली, आधे शरीर की मालिक, मनुष्य के आधे की मालिक, सदा की साथी। नारि = नारी। ता ते = इस लिए।3।

अर्थ: पर, अगर सिर्फ सुन्नत करके ही मुसलमान बन सकते हैं, तो औरत की सुन्नत तो हो ही नहीं सकती। पत्नी मनुष्य के जीवन की हर वक्त की सांझीवाल है, ये तो किसी भी वक्त साथ नहीं छोड़ती। सो, (आधा इधर आधा उधर रहने से बेहतर) हिन्दू बने रहना ही ठीक है।3।

छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥ कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥

पद्अर्थ: बउरे = हे कमले! पचि हारी = खपते रहे, ख्वार हुए।4।

अर्थ: हे भाई! मज़हबी किताबों की बहसें छोड़ के परमात्मा का भजन कर (बंदगी छोड़ के, और बहसों में पड़ के) तू अपने आप पर बड़ा जुलम कर रहा है। कबीर ने तो एक परमात्मा (के स्मरण) का आसरा लिया है, (झगड़ालू) मुसलमान (बहिसों में ही) ख्वार हो रहे हैं।4।8।

नोट: कई विद्वान सज्जन इस शब्द की उथानका में कबीर जी को हिंदू लिखते हैं; पर जहाँ आरम्भ में सारे भक्तों का वेरवा लिखते हैं, वहाँ कबीर जी को मुसलमान कह रहे हैं। ये भुलेखा उन्हें रविदास जी के राग मलार में लिखे दूसरे शब्द से पड़ रहा प्रतीत हो रहा है। इस भ्रम को साफ करने के लिए पढ़ें मेरा लिखा नोट भक्त रविदास जी के उस शब्द के साथ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh