श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा बाणी स्री नामदेउ जी की

एक अनेक बिआपक पूरक जत देखउ तत सोई ॥ माइआ चित्र बचित्र बिमोहित बिरला बूझै कोई ॥१॥

पद्अर्थ: पूरक = भरपूर। जत = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तत = उधर। सोई = वह प्रभु ही। चित्र = मूर्तियां, तस्वीरें। बचित्र = रंग विरंगी। बिमोहित = अच्छी तरह मोहे जाते हैं।1।

अर्थ: एक परमात्मा अनेक रूप धार के हर जगह मौजूद है; मैं जिधर देखता हूँ, वह परमात्मा ही मौजूद है। पर (इस भेद को) कोई विरला आदमी ही समझता है, क्योंकि जीव आम तौर पर माया के रंग-बिरंगे रूपों में अच्छी तरह मोहे हुए हैं।1।

सभु गोबिंदु है सभु गोबिंदु है गोबिंद बिनु नही कोई ॥ सूतु एकु मणि सत सहंस जैसे ओति पोति प्रभु सोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। सूतु = धागा। मणि = मणके। सत = शत, सैकड़े। सहंस = हजारों। ओति पोति = (संस्कृत: ओत प्रोत, उना हुआ, परोया हुआ) उने हुए में परोए हुए में, ताने पेटे में।1। रहाउ।

अर्थ: हर जगह परमात्मा है, हर जगह परमात्मा है, परमात्मा से वंचित (बची हुई) कोई जगह नहीं। जैसे एक धागा हो और (उसमें) सैकड़ों-हजारों मनके (परोए हुए हों) (इसी तरह सब जीवों में परमात्मा की ही जीवन-सत्ता मिली हुई है, जैसे) ताने पेटे में (धागे मिले हुए हैं, वैसे) वही परमात्मा (सब में मिला हुआ) है।1। रहाउ।

जल तरंग अरु फेन बुदबुदा जल ते भिंन न होई ॥ इहु परपंचु पारब्रहम की लीला बिचरत आन न होई ॥२॥

पद्अर्थ: तरंग = लहरें। फेन = झाग। बुदबुदा = बुलबुला। भिंन = अलग। परपंचु = (सं: प्रपंच) ये दिखाई देता तमाशा रूपी संसार। लीला = खेल। बिचरत = विचार करने से। आन = अलग, बेगाना।2।

अर्थ: पानी की लहरें, झाग और बुलबुले- ये सारे पानी से अलग नहीं होते, वैसे ही ये दिखाई देता तमाशा-रूपी संसार परमात्मा की रची हुई खेल है, ध्यान से सोचने पर (ये समझ आ जाती है कि ये उससे) अलग नहीं है।2।

मिथिआ भरमु अरु सुपन मनोरथ सति पदारथु जानिआ ॥ सुक्रित मनसा गुर उपदेसी जागत ही मनु मानिआ ॥३॥

पद्अर्थ: मिथिआ = झूठा। भरमु = वहिम, गलत ख्याल। मनोरथ = वह चीजें जिस की खातिर मन दौड़ता फिरता है। सति = सदा कायम रहने वाले। सुक्रित = नेकी। मनसा = समझ। मानिआ = पतीज गया, तसल्ली हो गई।3।

अर्थ: (ये परपंच देख के जीवों को) गलत ख्याल बन गया है (कि इस का हमारा साथ पक्का निभने वाला है); ये पदार्थ यूँ ही हैं जैसे सुपने में देखे हुए पदार्थ; पर जीवों ने इन्हें सदा (अपने साथ) टिके रहने वाला ही समझ लिया है। जिस मनुष्य को सतिगुरु भली समझ बख्शता है वह इस वहिम में से जाग पड़ता है और उसके मन को तसल्ली हो जाती है (कि हमारा और इन पदार्थों का साथ सदा के लिए नहीं है)।3।

कहत नामदेउ हरि की रचना देखहु रिदै बीचारी ॥ घट घट अंतरि सरब निरंतरि केवल एक मुरारी ॥४॥१॥

पद्अर्थ: रचना = सृष्टि। बीचारी = विचार के। अंतरि = अंदर। निरंतरि = एक रस सब में।4।

अर्थ: नामदेव कहता है: (हे भाई!) अपने हृदय में विचार के देख लो कि ये परमात्मा की रची हुई खेल है, इसमें हरेक घट के अंदर हर जगह सिर्फ एक परमात्मा ही बसता है।4।1।

भाव: परमात्मा अपनी इस रची हुई सृष्टि में हर जगह मौजूद है। गुरु की कृपा से मनुष्य को ये सूझ पड़ती है।

नोट: पर भक्त-वाणी के विरोधी सज्जनों को इसमें ‘वेदांत मत की झलक’ दिख रही है। हर हाल विरोधता जो करनी हुई।

आसा ॥ आनीले कु्मभ भराईले ऊदक ठाकुर कउ इसनानु करउ ॥ बइआलीस लख जी जल महि होते बीठलु भैला काइ करउ ॥१॥

पद्अर्थ: आनीले = लाए। कुंभ = घड़ा। भराईले = भराया। ऊदक = पानी। ठाकुर = (सं: ठाकुर = an idol, deity) मूर्ती, बुत। कउ = को। करउ = मैं कराऊँ। जी = जीव। बीठलु = (विष्ठल = one who is at a distance) माया के प्रभाव से परे हरि। भैला = भइला (सं: भु = to live, exist, stay, abide. मराठी बोली ‘भूत काल’ बनाने के लिए क्रिया-धातु के आखिर में ‘ला’ लगाते हैं जैसे ‘आ’ से ‘आइला’, ‘कुप’ से ‘कोपिला’ आदिक; वैसे ही ‘भू’ से ‘भइला’ या ‘भैला’) बसता था, मौजूद था। काइ = किस लिए? क्यूँ?।1।

अर्थ: घड़ा ला के (उस में) पानी भरा के (अगर) मैं मूर्ति को स्नान कराऊँ (तो वह स्नान स्वीकार नहीं, पानी झूठा है, क्योंकि) पानी में बयालिस लाख (जूनियों के) जीव रहते हैं। (पर मेरा) निर्लिप प्रभु तो पहले ही (उन जीवों में) बसता था (और स्नान कर रहा था, तो फिर मूर्ति को) मैं किस लिए स्नान करवाऊँ?।1।

जत्र जाउ तत बीठलु भैला ॥ महा अनंद करे सद केला ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जत्र = जहाँ। जाउ = मैं जाता हूँ। केला = आनंद, चोज तमाशे।1। रहाउ।

अर्थ: मैं जिधर जाता हूँ, उधर ही निर्लिप प्रभु मौजूद है (सब जीवों में व्यापक हो के) बड़े आनंद-चोज-तमाशे कर रहा है।1। रहाउ।

आनीले फूल परोईले माला ठाकुर की हउ पूज करउ ॥ पहिले बासु लई है भवरह बीठल भैला काइ करउ ॥२॥

पद्अर्थ: परोईले = परो ली। हउ = मैं। बासु = सुगंधी, वासना। भवरह = भौरे ने।2।

अर्थ: फूल ला के और उसकी माला परो के अगर मैं मूर्ति की पूजा करूँ (तो वह फूल झूठे होने के कारण वह पूजा स्वीकार नहीं, क्योंकि उन फूलों की) सुगंधि तो पहले भौरे ने ले ली; (पर मेरा) बीठल तो पहले ही (उस भौरे में) बसता था (और सुगंधि ले रहा था, तो फिर इन फूलों से) मूर्ति की पूजा मैं किस लिए करूँ?।2।

आनीले दूधु रीधाईले खीरं ठाकुर कउ नैवेदु करउ ॥ पहिले दूधु बिटारिओ बछरै बीठलु भैला काइ करउ ॥३॥

पद्अर्थ: रीधाईले = पका ली। नैवेदु = (सं: नैवेद्य = an offering of eatables presented to a deity or idol) मूर्ति के आगे रखने वाले पदार्थों की भेट। बिटारिओ = झूठा किया। बछरै = बछरे ने।3।

अर्थ: दूध ला के खीर पका के अगर मैं यह खाने वाला उत्तम पदार्थ मूर्ति के आगे भेटा रखूँ (तो दूध झूठा होने के कारण भोजन स्वीकार नहीं, क्योंकि दूध दूहने के समय) पहले बछड़े ने दूध झूठा कर दिया था; (पर मेरा) बीठल तो पहले ही (उस बछड़े में) बसता था (और दूध पी रहा था, तो इस मूर्ति के आगे) मैं क्यों नैवेद भेटा करूँ?।3।

ईभै बीठलु ऊभै बीठलु बीठल बिनु संसारु नही ॥ थान थनंतरि नामा प्रणवै पूरि रहिओ तूं सरब मही ॥४॥२॥

पद्अर्थ: ऊभै = ऊपर। ईभै = नीचे। थनंतरि = थान+अंतरि। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हर जगह में। प्रणवै = विनती करता है। मही = धरती। सरब मही = सारी सृष्टि में।4।

अर्थ: (जगत में) नीचे ऊपर (हर जगह) बीठल ही बीठल है, बीठल से वंचित जगत रह ही नहीं सकता। नामदेव उस बीठल के आगे विनती करता है: (हे बीठल!) तू सारी सृष्टि में हर जगह पर भरपूर है।4।2।

नोट: किसी पहुँचे हुए लिखारी व कवि के ख्याल की गहराई को सही तरह से समझने के लिए ये जरूरी हुआ करता है कि उसके बरते शब्दों के भाव को उसके अपने रचना-भण्डार में से ध्यान से देखा जाए। कई बार उसके अपने इस्तेमाल किए शब्दों के चुनाव में विशेष भेद हुआ करता है, ये बात इतनी हल्की नहीं हुआ करती। इस शब्द में देखें शब्द ‘ठाकुर’ और ‘बीठल’ का प्रयोग। जहाँ ‘स्नान पूजा नैवेद’ का वर्णन है, वहाँ शब्द ‘ठाकुर’ बरता है, पर जहाँ सर्व-व्यापकता बताई है वहाँ ‘बीठल’ लिखा है। मूर्ति का वर्णन तीन बार किया है, तीनों ही बार उसे ‘ठाकुर’ ही कहा है और ‘बीठल’ का नाम सर्व-व्यापक परीपूर्ण परमात्मा को दिया है। लोगों की घड़ी हुई कहानियों से हमने ये यकीन नहीं बनाना कि नामदेव जी किसी बीठल-मूर्ति के पुजारी थे; नामदेव जी के बीठल को हमने नामदेव जी की अपनी वाणी में से देखना है कि कैसा है; वह बीठल है ‘थान थनंतरि’।

भाव: मूर्ति पूजा का खण्डन; सर्व व्यापक प्रभु की भक्ति का उपदेश।

आसा ॥ मनु मेरो गजु जिहबा मेरी काती ॥ मपि मपि काटउ जम की फासी ॥१॥

पद्अर्थ: गजु = (कपड़ा नापने वाला) गज़। काती = कैंची। मपि मपि = नाप नाप के। काटउ = मैं काट रहा हूँ। फासी = फाही।1।

अर्थ: मेरा मन गज़ (बन गया है), मेरी जीभ कैंची (बन गई है), (प्रभु के नाम को मन में बसा के और जीभ से जप के) मैं (अपने मन रूपी गज़ से) नाप-नाप के (जीभ कैंची से) मौत के डर की फाँसी काटे जा रहा हूँ।1।

कहा करउ जाती कह करउ पाती ॥ राम को नामु जपउ दिन राती ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहा करउ = मैं क्या (परवाह) करता हूँ? मुझे परवाह नहीं। पाती = गोत। जाती = (अपनी नीच) जाति।1। रहाउ।

अर्थ: मुझे अब किसी (ऊँच-नीच) जाति-गोत की परवाह नहीं रही, क्योंकि मैं दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ।1। रहाउ।

रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ ॥२॥

पद्अर्थ: रांगनि = वह बर्तन जिसमें लिलारी कपड़े रंगता है, मट्टी। रांगउ = मैं रंगता हूँ। सीवनि = सिलना, नाम की सिलाई। सीवउ = मैं सिलता हूँ। घरीअ = एक घड़ी भी। न जीवउ = मैं जीअ नहीं सकता।2।

अर्थ: (इस शरीर) मट्टी (रंगने वाले बर्तन) में मैं (अपने आप को नाम से) रंग रहा हूँ और प्रभु के नाम की सिलाई सी रहा हूँ। परमात्मा के नाम के बिना मैं एक घड़ी भर भी नहीं जी सकता।2।

भगति करउ हरि के गुन गावउ ॥ आठ पहर अपना खसमु धिआवउ ॥३॥

पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। गावउ = मैं गाता हूँ। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ।3।

अर्थ: मैं प्रभु की भक्ति कर रहा हूँ, हरि के गुण गा रहा हूँ, आठों पहर अपने पति-प्रभु को याद कर रहा हूँ।3।

सुइने की सूई रुपे का धागा ॥ नामे का चितु हरि सउ लागा ॥४॥३॥

पद्अर्थ: सुइने की सुई = गुरु की शब्द-रूपी कीमती सुई। रुपा = चांदी। रुपे का धागा = (गुर शब्द की इनायत से) शुद्ध निर्मल हुई सूझ रूपी धागा।4।

नोट: भक्त रविदास जी को ऊँची जाति वालों ने बोली मारी कि तू है तो चमार ही। तो, भक्त जी ने बताया कि अपने कर्मों से सारे जीव चमार ही बने पड़े हें; देखें, ‘चमरटा गाठि न जनई”।

भक्त कबीर जी को जुलाहा होने का ताना मारा तो कबीर जी ने कहा कि परमात्मा भी जुलाहा ही है। ये कोई ताना मारने वाली बात नहीं है; देखें, ‘कोरी को काहू मरम ना जाना’।

इस शब्द में नामदेव जी ऊँची जाति का गुमान करने वालों को कह रहे हैं कि तुम्हारे लिए मैं नीच जाति का धोबी हूँ, पर मुझे अब डर खतरा व नामोशी नही रही।

अर्थ: मुझे (गुरु का शब्द) सोने की सुई मिल गई है, (उसकी इनायत से मेरी तवज्जो शुद्ध-निर्मल हो गई है, ये, जैसे, मेरे पास) चाँदी का धागा है; (इस सुई-धागे से) मुझ नामे (नामदेव) का मन प्रभु के साथ सिला गया है।4।3।

भाव: नाम-जपने की महिमा- नीच जाति वाला भी अगर नाम जपे, तो उसे दुनिया के डर तो कहाँ रहे, मौत का डर भी नहीं रहता। उसकी चित्त-रुचि निर्मल हो जाती है, और वह सदा प्रभु की याद में मस्त रहता है।

आसा ॥ सापु कुंच छोडै बिखु नही छाडै ॥ उदक माहि जैसे बगु धिआनु माडै ॥१॥

पद्अर्थ: कुंच = केंचुली, ऊपरी पतली झिल्ली। बिखु = जहिर। उदक = पानी। माहि = में। बगु = बगुला। धिआनु माडै = ध्यान जोड़ता है।1।

अर्थ: साँप केंचुली उतार देता है पर अंदर से जहिर नही त्यागता; पानी में (खड़े हो के) जैसे बगुला समाधि लगाता है (इस तरह अगर अंदर तृष्णा है तो बाहर से भेख बनाने से आँखें बंद करने से कोई आत्मिक लाभ नहीं है)।1।

काहे कउ कीजै धिआनु जपंना ॥ जब ते सुधु नाही मनु अपना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जपंना कीजै = जाप करते हैं। जब ते = जब तक। सुधु = पवित्र। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जब तक (अंदर से) अपना मन पवित्र नहीं है, तब तक समाधि लगाने व जाप करने का क्या लाभ है?। रहाउ।

सिंघच भोजनु जो नरु जानै ॥ ऐसे ही ठगदेउ बखानै ॥२॥

पद्अर्थ: सिंघच = (सिंह+च) शेर का, शेर वाला, निदर्यता वाला। ऐसे = ऐसे (लोगों) को। ठग देउ = ठगों का देवता, बड़ा ठग। बखानै = (जगत) कहता है।2।

अर्थ: जो मनुष्य जुलम वाली रोजी ही कमानी जानता है, (और बाहर से आँखे बंद करता है, जैसा समाधि लगाए बैठा हो) जगत ऐसे बंदे को बड़ा ठग कहता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh