श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 486

नामे के सुआमी लाहि ले झगरा ॥ राम रसाइन पीओ रे दगरा ॥३॥४॥

पद्अर्थ: नामे के सुआमी = नाम देव के मालिक प्रभु ने; हे नामदेव! तेरे परमात्मा ने। लाहिले = उतार दिया, खत्म कर दिया है। रे = हे भाई! दगरा = पत्थर (मराठी)। रे दगरा = हे पत्थर चित्त!।3।

अर्थ: हे नामदेव! तेरे मालिक प्रभु ने (तेरे अंदर से ये पाखण्ड वाला) झगड़ा खत्म कर दिया है। हे कठोर चित्त मनुष्य! परमात्मा के नाम का अमृत पी (और पाखण्ड छोड़)।3।4।

शब्द का भाव: उसी मनुष्य की बंदगी सफल हो सकती है, जो रोजी कमाने में भी कोई छल-कपट नहीं करता और किसी का हक नहीं मारता।

नोट: यहाँ धार्मिक पाखण्ड की निंदा की गई है। देखें भक्त बेणी जी: ‘तनि चंदनु मसतकि पाती’।

आसा ॥ पारब्रहमु जि चीन्हसी आसा ते न भावसी ॥ रामा भगतह चेतीअले अचिंत मनु राखसी ॥१॥

पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। चीन्सी = पहचानते हैं, जान पहचान डालते है। न भावसी = अच्छी नहीं लगती। भगतह = (जिस) भक्तों ने। अचिंत = चिन्ता रहित।1।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा के साथ जान-पहिचान बना लेते हैं, जिस संत-जनों ने प्रभु को स्मरण किया है, उन्हें और-और आशाएं अच्छी नहीं लगती। प्रभु उनके मन को चिन्ता से बचाए रखता है।1।

कैसे मन तरहिगा रे संसारु सागरु बिखै को बना ॥ झूठी माइआ देखि कै भूला रे मना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिखै को बना = विषौ विकारों का पानी (बन = पानीं)।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! संसार-समुंदर से कैसे पार उतरेगा? इस (संसार समुंदर) में विकारों का पानी (भरा पड़ा) है। हे मन! ये नाशवान मायावी पदार्थ देख के तू (परमात्मा की तरफ से) टूट गया है।1। रहाउ।

छीपे के घरि जनमु दैला गुर उपदेसु भैला ॥ संतह कै परसादि नामा हरि भेटुला ॥२॥५॥

पद्अर्थ: दैला = दिया (प्रभु ने)। भैला = मिल गया। परसादि = कृपा से। भेटुला = मिल गया।2।

अर्थ: मुझ नामदेव को (चाहे जैसे भी) धोबी के घर जनम दिया, पर (उसकी मेहर से) मुझे सतिगुरु का उपदेश मिल गया; अब संत जनों की कृपा से मुझे (नामदेव) को ईश्वर मिल गया है।2।5।

नोट: स्वार्थी लोगों की घड़ी हुई कहानियों की तरफ जाएं या भक्त नामदेव जी के अपने वचनों पर ऐतबार करें? घड़ी कहानी कहती है कि पिता कहीं काम गए, पीछे नामदेव ने ठाकुर को दूध पिला लिया, तो इस तरह नामदेव को रब मिल गया। पर, नामदेव जी स्वयं ये कहते हैं कि मुझ नामे को ‘संतह कै परसादि हरि भेटुला’, क्योंकि मुझे ‘गुरु उपदेसु भैला’। हमारी लापारवाही की कोई तो सीमा होनी चाहिए। हमारे शहिनशाह गुरु राम दास जी भी हामी भरते हैं कि ‘हरि जपतिआ उत्तम पदवी पाइ’। कौन कौन? ‘रविदास चमार उसतति करै, हरि कीरति निमख इक गाइ’ और

“नामदेइ प्रीत लगी हरि सेती” (सूही महला ४)

क्या ये सब कुछ निरा पढ़ने के लिए ही है? क्या इस पर हमने ऐतबार नहीं करना? संभल के विचारो कि जिसके दो-सदियों के बने धार्मिक रसूख और मुफत की रोटी के वसीले पर नामदेव, कबीर, रविदास जैसे शूरवीर मर्दों ने करारी चोट मारी, उसने ये चोट नत्मस्तक हो के नहीं सहनी थी, उसने भी अपना वार करना था और अपना रसूख पुनः कायम करना था। तभी ये सारे भक्त, ठाकुरों के पुजारी और ब्राहमण देवताओं के चेले बना दिये गए।

भाव: विकारों से बचने के लिए नाम जपना ही एक मात्र तरीका है। ये स्मरण मिलता है गुरु के द्वारा साधु-संगत में।

आसा बाणी स्री रविदास जीउ की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

म्रिग मीन भ्रिंग पतंग कुंचर एक दोख बिनास ॥ पंच दोख असाध जा महि ता की केतक आस ॥१॥

पद्अर्थ: म्रिग = हिरन। मीन = मछली। भ्रिंग = भौरा। पतंग = पतंगा। कुंचर = हाथी। दोख = ऐब (हिरन को घंडेहेड़े का नाद सुनने का रस; मछली को जीभ का चस्का; भौरे को फूल सूंघने की चाहत; पतंगे को दीए पे जल मरना, आँखों से देखने का चस्का; हाथी को काम-वासना)। असाध = जो वश में ना आ सके। जा महि = जिस (मनुष्य) में।1।

अर्थ: हिरन, मछली, भौरा, पतंगा, हाथी- एक-एक ऐब के कारण इनका नाश हो जाता है, पर इस मनुष्य में ये पाँचों असाध रोग हैं, इसे बचने की कब तक उम्मीद की जा सकती है?।1।

माधो अबिदिआ हित कीन ॥ बिबेक दीप मलीन ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माधो = (माधव) हे माया के पति प्रभु! अबिदिआ = अज्ञानता। हित = मोह, प्यार। मलीन = मैला, धुंधला।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु जीव अज्ञानता से प्यार कर रहे हैं, इस वास्ते इनके विवेक का दीपक धुंधला हो गया है (भाव, परख-हीन हो रहे हैं, भले बुरे की पहचान नहीं करते)।1। रहाउ।

त्रिगद जोनि अचेत स्मभव पुंन पाप असोच ॥ मानुखा अवतार दुलभ तिही संगति पोच ॥२॥

पद्अर्थ: त्रिगध जोनि = उन जूनियों के जीव जो टेढ़े हो के चलते हैं, प्शु आदि। अचंत = गाफल, ईश्वर की ओर से गाफिल, विचार हीन। असोच = सोच रहित, बेपरवाह। संभव = मुमकिन, कुदरती। अवतार = जनम। पोच = नीच। तिही = इस की भी।2।

अर्थ: पशु आदि टेढ़े चलने वालों की जूनों के जीव विचार-हीन हैं, उनका पाप-पुण्य की ओर से बेपरवाह रहना कुदरती है; पर मनुष्य को ये जनम मुश्किल से मिला है, इसकी संगति भी नीच विकारों के साथ ही है (इसे तो सोचना चाहिए था)।2।

जीअ जंत जहा जहा लगु करम के बसि जाइ ॥ काल फास अबध लागे कछु न चलै उपाइ ॥३॥

पद्अर्थ: जाइ = जनम ले के, पैदा करके। अबध = अ+बध, जो नाश ना हो सके। उपाइ = उपाय।3।

अर्थ: किए कर्मों के अधीन जनम ले के जीव जहाँ-जहाँ भी हैं, सारे जीव-जंतुओं को काल की (आत्मिक मौत की) ऐसी फाँसी पड़ी हुई है जो काटी नहीं जा सकती, इनकी कुछ पेश नहीं चलती।3।

रविदास दास उदास तजु भ्रमु तपन तपु गुर गिआन ॥ भगत जन भै हरन परमानंद करहु निदान ॥४॥१॥

पद्अर्थ: निदान = आखिर। उदास = विकारों से उपराम।4

अर्थ: हे रविदास! हे प्रभु के दास रविदास! तू तो विकारों के मोह में से निकल; ये भटकना छोड़ दे, सतिगुरु का ज्ञान कमा, यही तपों का तप है। भक्त जनों के भय दूर करने वाले हे प्रभु! आखिर मुझ रविदास को भी (अपने प्यार का) परम-आनंद बख्शो (मैं तेरी शरण आया हूँ)।4।1।

भाव: विकार तो एक ही इतना खतरनाक है, मनुष्य को तो पाँचों ही चिपके हुए हैं। अपने उद्यम से मनुष्य अपनी समझ का दीपक साफ नहीं रख सकता। प्रभु की शरण पड़ कर ही विकारों से बच सकता है

आसा ॥ संत तुझी तनु संगति प्रान ॥ सतिगुर गिआन जानै संत देवा देव ॥१॥

पद्अर्थ: तुझी = तेरा ही। तनु = शरीर, स्वरूप। प्रान = जिंद जीन। जानै = पहचान लेता है। देवादेव = हे देवताओं के देवते!।1।

अर्थ: हे देवों के देव प्रभु! सतिगुरु की मति ले के संतों (की उपमा) को (मनुष्य) समझ लेता है कि संत तेरा ही रूप हैं, संतों की संगति तेरी जिंद-जान है।1।

संत ची संगति संत कथा रसु ॥ संत प्रेम माझै दीजै देवा देव ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ची = की। रसु = आनंद। माझै = मुझे। दीजै = देह।1। रहाउ।

अर्थ: हे देवताओं के देवते प्रभु! मुझे संतों की संगति बख्श, मेहर कर, मैं संतों की प्रभु-कथा का रस ले सकूँ; मुझे संतों का (भाव, संतों से) प्रेम (करने की दाति) दे।1। रहाउ।

संत आचरण संत चो मारगु संत च ओल्हग ओल्हगणी ॥२॥

पद्अर्थ: आचरण = करणी, करतब। चो = का। मारगु = रास्ता। च = के। ओल्हग ओल्हगणी = दासों की सेवा। ओल्ग = दास। ओल्गणी = सेवा।2।

अर्थ: हे प्रभु! मुझे संतों वाली करणी, संतों का रास्ता, संतों के दासों की सेवा बख्श।2।

अउर इक मागउ भगति चिंतामणि ॥ जणी लखावहु असंत पापी सणि ॥३॥

अर्थ: मैं तुझसे एक और (दाति भी) मांगता हूँ, मुझे अपनी भक्ति दे, जो मन-चिंदे फल देने वाली मणि है; मुझे विकारियों और पापियों के दर्शन ना कराना।3।

रविदासु भणै जो जाणै सो जाणु ॥ संत अनंतहि अंतरु नाही ॥४॥२॥

पद्अर्थ: भणै = कहता है। जाणु = सियाना। अंतरु = दूरी।4।

अर्थ: रविदास कहता है: असल में समझदार वह मनुष्य है जो यह जानता है कि संतों और बेअंत प्रभु में कोई अंतर नहीं है।4।2।

भाव: प्रभु दर से अरदास- हे प्रभु! साधु-संगत का मिलाप बख्शो।1।

आसा ॥ तुम चंदन हम इरंड बापुरे संगि तुमारे बासा ॥ नीच रूख ते ऊच भए है गंध सुगंध निवासा ॥१॥

पद्अर्थ: बापुरे = बिचारे, निमाणे। संगि तुमारे = तेरे साथ। बासा = वास। रूख = पौधा। सुगंध = सुगंधि। निवासा = वश पड़ी है।1।

अर्थ: हे माधो! तू चंदन का पौधा है, मैं निमाणा सा हरिण्ड हूँ (पर तेरी मेहर से) मुझे तेरे (चरणों) में रहने के लिए जगह मिल गई है, तेरी सुंदर मीठी वासना मेरे अंदर बस गई है, अब मैं नीचे पौधे से ऊँचा बन गया हूँ।1।

माधउ सतसंगति सरनि तुम्हारी ॥ हम अउगन तुम्ह उपकारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माधउ = (सं: माधव माया लक्ष्म्याधव:)। मा = माया, लक्षमी। धव = पति। लक्ष्मी का पति, कृष्ण जी का नाम, हे माधो! हे प्रभु! अउगन = अवगुण, बुरे कर्मों वाला। उपकारी = भलाई करने वाला, मेहर करने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे माधो! मैंने तेरी साधु-संगत की ओट पकड़ी है (मुझे यहाँ से विछुड़ने ना देना), मैं बुरे कामों वाला हूँ (तेरा सत्संग छोड़ के दुबारा बुरी तरफ चल पड़ता हूँ, पर) तू मेहर करने वाला है (और फिर जोड़ लेता है)।1। रहाउ।

तुम मखतूल सुपेद सपीअल हम बपुरे जस कीरा ॥ सतसंगति मिलि रहीऐ माधउ जैसे मधुप मखीरा ॥२॥

पद्अर्थ: मखतूल = रेशम। सुपेद = सफेद। सपीअल = पीला। जस = जैसे। कीरा = कीड़े। मिलि = मिल के। रहीऐ = टिके रहें, टिके रहने का चाहत है। मधुप = शहिद की मक्खी। मखीरा = शहद का छत्ता।2।

अर्थ: हे माधो! तू सफेद पीला (सुंदर सा) रेशम है, मैं निमाणा (उस) कीड़े की तरह हूँ (जो रेशम को छोड़ के बाहर निकल जाता है और मर जाता है), माधो! (मेहर कर) मैं तेरी साधु-संगत में जुड़ा रहूँ, जैसे शहिद की मक्खियां शहद के छत्ते में (टिकी रहती हैं)।2।

जाती ओछा पाती ओछा ओछा जनमु हमारा ॥ राजा राम की सेव न कीनी कहि रविदास चमारा ॥३॥३॥

पद्अर्थ: ओछा = नीच, हलका। पाती = पात, कुल। राजा = मालिक, खसम। कीनी = कीन्ही, मैंने की। कहि = कहे, कहता है।3।

नोट: ‘कीनी्’ शब्द ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है। ??

अर्थ: रविदास चमार कहता है: (लोगों की नजरों में) मेरी जाति नीच, मेरा कुल नीच, मेरा जनम नीच (पर, हे माधव! मेरी जाति, जनम और कुल सचमुच नीच ही रह जाएंगे) अगर मैंने, हे मेरे मालिक प्रभु! तेरी भक्ति ना की।3।3।

नोट: इस शब्द में इस्तेमाल हुए शब्द ‘राजा राम’ से ये अंदाजा लगाना गलत है कि रविदास जी श्री राम अवतार के पुजारी थे। जिस सर्व-व्यापक मालिक को वे आखीरी तुक में ‘राजा राम’ कहते हैं उसे ही वे ‘रहाउ’ की तुक में ‘माधव’ कहते हैं। अगर अवतार-पूजा की तंग-दिली की तरफ जाएं तो ‘माधव’ कृष्ण जी का नाम है। श्री राम चंद्र जी का पुजारी अपने पूज्य अवतार को श्री कृष्ण जी के किसी नाम के साथ नहीं बुला सकता। रविदास जी की नजरों में ‘राम’ और ‘माधव’ उस प्रभु के ही नाम हैं, जो माया में व्यापक (‘राम’) है और माया का पति (माधव’) है।

भाव: प्रभु-दर पे अरदास- हे प्रभु! साधु-संगत की शरण में रख।

आसा ॥ कहा भइओ जउ तनु भइओ छिनु छिनु ॥ प्रेमु जाइ तउ डरपै तेरो जनु ॥१॥

पद्अर्थ: कहा भइओ = क्या हुआ? कोई परवाह नहीं। जउ = अगर। तनु = शरीर। छिनु छिनु = पल पल, टुकड़े टुकड़े। तउ = तब, तब ही। डरपै = डरता है। जनु = दास।1।

अर्थ: (ये नाम-धन ढूँढ के अब) अगर मेरा शरीर नाश भी हो जाए तो भी मुझे कोई परवाह नहीं। हे राम! तेरा सेवक तभी घबराएगा अगर (इसके मन में से तेरे चरणों का) प्यार दूर होगा।1।

तुझहि चरन अरबिंद भवन मनु ॥ पान करत पाइओ पाइओ रामईआ धनु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तुझहि = तेरे। अरबिंद = (सं: अर्विन्द) कमल का फूल। चरन अरबिंद = चरण कमल, कमल फूल जैसे सुंदर चरण। भवन = ठिकाना। पान करत = पीते हुए। पाइओ पाइओ = मैं पा लिया मैंने पा लिया। रामईआ धनु = सुंदर राम का (नाम रूपी) धन।1। रहाउ।

अर्थ: (हे सुंदर राम!) मेरा मन कमल फूल जैसे सुंदर तेरे चरणों को अपने रहने की जगह बना चुका है; (तेरे चरण-कमलों में नाम-रस) पीते-पीते मैंने पा लिया है मैंने पा लिया है तेरा नाम-धन।1। रहाउ।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh