श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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स्मपति बिपति पटल माइआ धनु ॥ ता महि मगन होत न तेरो जनु ॥२॥

पद्अर्थ: संपति = (सं: संपत्ति, prosperity, increase of wealth) धन की बहुलता। बिपति = (सं: विपत्ति = a calamity, misforune) बिपता, मुसीबत। पटल = पर्दे। ता महि = इन में।2।

अर्थ: सुख, बिपता, धन- ये माया के पर्दे हैं (जो मनुष्य की बुद्धि पर पड़े रहते हैं); हे प्रभु! तेरा सेवक! (माया के) इन पर्दों में (अब) नहीं फंस जाता।2।

प्रेम की जेवरी बाधिओ तेरो जन ॥ कहि रविदास छूटिबो कवन गुन ॥३॥४॥

पद्अर्थ: जेवरी = रस्सी (से)। कहि = कहे, कहता है। छूटिबो = छूटने का। कवन गुन = क्या लाभ? क्या जरूरत, मुझे जरूरत नहीं, मेरा जी नहीं करता।3।

अर्थ: रविदास कहता है: हे प्रभु! (मैं) तेरा दास तेरे प्यार की रस्सी से बंधा हुआ हूँ। इसमें से निकलने को मेरा जी नहीं करता।3।4।

शब्द का भाव: जिस मनुष्य को प्रभु चरणों का प्यार प्राप्त हो जाए, उसको दुनिया के हर्ष-सोग नहीं सताते।4।

आसा ॥ हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे ॥ हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि...हरे हरि सिमरत = बार बार स्वास स्वास हरि नाम स्मरण करते हुए। जन = (हरि के) दास। गए तरे = तैर गए, संसार समुंदर से पार लांघ गए। निसतरि = अच्छी तरह तैर के।1। रहाउ।

अर्थ: स्वास-स्वास हरि नाम स्मरण से हरि के दास (संसार समुंदर से) पूर्ण तौर पर पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ।

हरि के नाम कबीर उजागर ॥ जनम जनम के काटे कागर ॥१॥

पद्अर्थ: हरि के नाम = हरि नाम की इनायत से। उजागर = मशहूर। कागर = कागज। जनम के कागर = कई जन्मों के किए कर्मों के लेखे।1।

अर्थ: हरि-नाम जपने की इनायत से कबीर (भक्त जगत में) मशहूर हुआ, और उसके जन्मों-जन्मों के किए कर्मों के लेखे समाप्त हो गए।1।

निमत नामदेउ दूधु पीआइआ ॥ तउ जग जनम संकट नही आइआ ॥२॥

पद्अर्थ: निमत = (सं: निमित्त, the instrumental or efficient cause. ये शब्द किसी ‘समास’ के आखिर में बरता जाता है और इसका अर्थ होता है ‘इस कारण करके’; जैसे किन्निमित्तोयमातंक: भाव, इस रोग के क्या कारण हैं) के कारण, की इनायत से। (हरि को नाम) निमत = हरि नाम की इनायत से। तउ = तब, हरि नाम स्मरण से। संकट = कष्ट।

अर्थ: हरि नाम स्मरण के कारण ही नामदेव ने (‘गोबिंद राय’) को दूध पिलाया था, और, नाम जपने से ही वह जगत के जन्मों के कष्टों में नहीं पड़ा।2।

जन रविदास राम रंगि राता ॥ इउ गुर परसादि नरक नही जाता ॥३॥५॥

पद्अर्थ: राम रंगि = प्रभु के प्यार में। राता = रंगा हुआ। इउ = इस तरह, प्रभु के रंग में रंगे जाने से। परसादि = कृपा से।3।

अर्थ: हरि का दास रविदास (भी) प्रभु के प्यार में रंगा गया है। इस रंग की इनायत से सतिगुरु की मेहर सदका, रविदास नर्कों में नहीं जाएगा।3।5।

नोट: हरेक शब्द का केन्द्रिय भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। यहाँ हरि नाम-जपने की उपमा बताई गई है कि जिस लोगों ने स्वास-स्वास प्रभु को याद रखा, उन्हें जगत की माया नहीं व्याप सकी। ये असूल बताते हुए दो भक्तों की मिसाल देते हैं। कबीर ने भक्ति की, वह जगत में प्रसिद्ध हुआ; नामदेव ने भक्ति की, और उसने प्रभु को वश में कर लिया।

इस विचार में दो बातें बिल्कुल साफ हैं, कि नामदेव ने किसी ठाकुर-मूर्ति को दूध नहीं पिलाया; दूसरी, दूध पिलाने के बाद नामदेव को भक्ति की लाग नहीं लगी, पहले ही वह स्वीकार भक्त था। किसी मूर्ति को दूध पिला के, किसी मूर्ति की पूजा करके, नामदेव भक्त नहीं बना, बल्कि ये स्वास-स्वास हरि-नाम-जपने की ही इनायत थी, कि प्रभु ने कई कौतक दिखा के नामदेव के कई काम सवारे और उसे जगत में मशहूर किया।

भाव: नाम-जपने की इनायत से नीची जाति वाले लोग भी संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।

माटी को पुतरा कैसे नचतु है ॥ देखै देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरतु है ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = का। पुतरा = पुतला। कैसे = कैसे, आश्चर्यजनक रूप से, हास्यास्पद रूप से।1। रहाउ।

अर्थ: (माया के मोह में फंस के) ये मिट्टी का पुतला कैसे हास्यापद हो के नाच रहा है (भटक रहा है); (माया को ही) चारों ओर ढूँढता है; (माया की ही बातें) सुनता है (भाव, माया की ही बातें सुननी इसे अच्छी लगती हैं), (माया कमाने ही की) बातें करता है, (हर वक्त माया की ही खातिर) दौड़ा फिरता है।1। रहाउ।

जब कछु पावै तब गरबु करतु है ॥ माइआ गई तब रोवनु लगतु है ॥१॥

पद्अर्थ: कछु = कुछ माया। पावै = हासिल करता है। गरबु = अहंकार। गई = गायब हो जाने पर। रोवनु लगतु = रोने लगता है, दुखी होता है।1।

अर्थ: जब (इसको) कुछ धन मिल जाता है, तो ये (अहंकार करने लग जाता है), पर अगर गायब हो जाए तो रोता है, दुखी होता है।1।

मन बच क्रम रस कसहि लुभाना ॥ बिनसि गइआ जाइ कहूं समाना ॥२॥

पद्अर्थ: बच = वचन, बातें। क्रम = करम, करतूत। रस कसहि = रसों कसों में, स्वादों में, चस्कों में। लुभाना = मस्त। बिनसि गइआ = जब ये पुतला नाश हो गया। जाइ = जीव यहाँ से जा के। कहूँ = (प्रभु चरणों के अलावा) किसी और जगह।2।

अर्थ: अपने मन से, वचन से, करतूतों से, चस्कों में फसा हुआ है, (आखिर मौत आने पर) जब ये शरीर गिर जाता है तो जीव (शरीर में से) जा के (प्रभु चरणों में पहुँचने की जगह) कहीं और ही गलत जगह जा टिकता है।2।

कहि रविदास बाजी जगु भाई ॥ बाजीगर सउ मुोहि प्रीति बनि आई ॥३॥६॥

पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। भाई = हे भाई! सउ = से, साथ। मुोहि = मुझे। 3।

नोट: ‘मुोहि’ में अक्षर ‘म’ में दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द है ‘मोहि’, पर यहाँ पढ़ना है ‘मुहि’।

अर्थ: रविदास कहता है: हे भाई! ये जगत एक खेल ही है, मेरी प्रीत तो (जगत की माया की जगह) इस खेल के बनाने वाले से लग गई है (सो, इस मजाकिए नाच से बच गया हूँ)।3।6।

शब्द का भाव: माया में फंसा हुआ जीव भटकता है और मजाक बन के रह जाता है, इस जलालत से सिर्फ वही बचता है जो माया के रचनहार परमात्मा से प्यार पाता है।6।

आसा बाणी भगत धंने जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने तनु मनु धनु नही धीरे ॥ लालच बिखु काम लुबध राता मनि बिसरे प्रभ हीरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भ्रमत = भटकते हुए। बिलाने = गुजर गए। नही धीरे = नहीं टिकता। बिखु = जहर। लुबध = लोभी। राता = रंगा हुआ। मनि = मन में से। रहाउ।

अर्थ: (माया के मोह में) भटकते हुए कई जनम गुजर जाते हैं, ये शरीर नाश हो जाता है, मन भटकता रहता है और धन भी टिका नहीं रहता। लोभी जीव जहर-रूपी पदार्थों की लालच में, काम-वासना में, रंगा रहता है, इसके मन में से अमोलक प्रभु बिसर जाता है। रहाउ।

बिखु फल मीठ लगे मन बउरे चार बिचार न जानिआ ॥ गुन ते प्रीति बढी अन भांती जनम मरन फिरि तानिआ ॥१॥

पद्अर्थ: चार = सुंदर। ते = से, की ओर से हट के। अन भांती = और-और किस्म की।1।

अर्थ: हे कमले मन! ये जहर रूपी फल तुझे मीठे लगते हैं, तुझमें अच्छे विचार नहीं पनपते, गुणों से अलग और ही किस्म की प्रीति तेरे अंदर बढ़ रही है, और तेरे जनम-मरण का ताना तना जा रहा है।1।

जुगति जानि नही रिदै निवासी जलत जाल जम फंध परे ॥ बिखु फल संचि भरे मन ऐसे परम पुरख प्रभ मन बिसरे ॥२॥

पद्अर्थ: जुगति = जीवन जुगति। निवासी = टिकाई। जलत = (तृष्णा में) जलते। संगि = एकत्र करके।2।

अर्थ: हे मन! अगर तूने जीवन की जुगति समझ के यह जुगति अपने अंदर पक्की ना की, तो तृष्णा में जलते हुए (तेरे अस्तित्व) को जमों का जाल, जमों के फाहे बर्बाद कर देंगे। हे मन! तू अब तक विषौ-रूप जहर के फल ही इकट्ठे करके संभालता रहा, और ऐसा संभालता रहा कि तुझे परम-पुरख प्रभु भूल गया।2।

गिआन प्रवेसु गुरहि धनु दीआ धिआनु मानु मन एक मए ॥ प्रेम भगति मानी सुखु जानिआ त्रिपति अघाने मुकति भए ॥३॥

पद्अर्थ: गुरहि = गुरु ने। मनु = यकीन, श्रद्धा। अघाने = तृप्त हो गया।3।

अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु ने ज्ञान का प्रवेश-रूप धन दिया, उसकी तवज्जो प्रभु में जुड़ गई, उसके अंदर श्रद्धा बन गई, उसका मन प्रभु से एक-मेक हो गया; उसे प्रभु का प्यार, प्रभु की भक्ति अच्छी लगी, उसकी सुख से सांझ बन गई, वह माया की ओर से अच्छी तरह तृप्त हो गया, और बंधनों से मुक्त हो गया।3।

जोति समाइ समानी जा कै अछली प्रभु पहिचानिआ ॥ धंनै धनु पाइआ धरणीधरु मिलि जन संत समानिआ ॥४॥१॥

पद्अर्थ: जा कै = जिस मनुष्य में। अछली = ना छले जाने वाला। धंनै = धन्ने ने। मिलि जन = संत जनों को मिल के।4।

अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर प्रभु की सर्व-व्यापक ज्योति टिक गई, उसने माया में ना छले जाने वाले प्रभु को पहचान लिया।

मैं धन्ने ने भी उस प्रभु का नाम-रूपी धन कोढूँढ लिया है जो सारी धरती का आसरा है; मैं धन्ना भी संत-जनों को मिल के प्रभु में लीन हो गया हूँ।4।1।

नोट: भक्त धन्ना जी अपनी जुबानी कहते हैं कि मुझे गुरु ने नाम-धन दिया है, संतों की संगति में मुझे धरणीधर मिला है। पर, स्वार्थी लोगों ने अपना धार्मिक जुल्ला अंजान लोगों के कंधे पर डाले रखने के लिए ये कहानी चला दी कि धन्ने ने एक ब्राहमण से एक ठाकुर ले के उसकी पूजा की, और उस ठाकुर-पूजा से उसे परमात्मा मिला।

इस भुलेखे को दूर करने के लिए और भक्त धन्ना जी के शब्द की आखिरी तुक को अच्छी तरह सिखों के सामने स्पष्ट करने के लिए गुरु अरजन साहिब जी ने अगला शब्द अपनी ओर से उचार के दर्ज किया है।

भक्त-वाणी के विरोधी धन्ना जी के आसा राग में दर्ज शब्द के बारे में यूँ लिखते हैं: “तीन शब्द राग आसा में आए हैं जो इस तरह हैं।

‘पहला शब्द ‘भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने, तनमन धन नहीं धीरे’ से आरंभ होता है। दूसरा, जिसमें भक्त जी अपने गुरु रामानंद जी के आगे जोदड़ी करते हैं। अंत में गोसाई रामानंद जी से मेल होने पर, ‘धंनै धनु पाइआ धरणीधरु, मिलि जन संत समाइआ’ की खुशी प्रगट करते हैं।

‘गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मन लीना’ वाले शब्द का शीर्षक ‘महला ५’ से आरम्भ होता है, जिसमें कई भक्तों का नाम ले के बताया गया है कि अमुक-अमुक नाम जपने के कारण पार लांघ गए। पर, उन भक्तों को जात-पात के ध्रुवों से याद किया है। सारे भक्तों को गिन के आखिर में निर्णय किया गया है, ‘इह बिधि सुनि कै जाटरो, उठि भक्ति लागा। मिले प्रतखि गुसाईआ धंना वडभागा।4।’ जाटरों के लिए ‘प्रतखि गुसाईआ’ स्वामी रामानंद था। पर ये शब्द भक्त जी के मुख पर फबता नहीं था। इसी लिए महला ५ लिखा है। भगतों की प्रसिद्धि के लिए बाद में भी उनके नाम पर उनके श्रद्धालु करते रहते थे।

‘भक्त धन्ना जी के कई सिद्धांत गुरमति के विरुद्ध हैं।’

इस शब्द में धन्ना जी साफ शब्दों में कह रहे हैं कि मुझे गुरु ने नाम-धन दिया है। पर पाठकों की नजरों में भक्त जी के बरते गए गुरु पद की कद्र घटाने की खातिर विरोधी सज्जन जान-बूझ के शब्द ‘गुरु रामानंद’, गुसाई रामानंद’ बरत रहा है। वरना, इस शब्द का कोई भी सिद्धांत गुरमति विरोधी नहीं है। पता नहीं, इस सज्जन को कौन से ‘कई सिद्धांत गुरमति विरुद्ध’ दिख रहे हैं।

अगले शब्द को गुरु अरजन साहिब का शब्द मानने से साफ इन्कार किया गया है, चाहे इसका शीर्षक ‘महला ५’ है। दलील बड़ी आश्चर्यपूर्ण दी है कि ‘जाति-पात के ध्रुवों से भक्तों को याद किया गया है। क्या जहाँ कहीं भी गुरु साहिब ने किसी भक्त की जाति लिख के वर्णन किया है, हमारा ये विरोधी सज्जन उस शब्द को नहीं मानेगा? देखें;

“नीच जाति हरि जपतिआ, उतम पदवी पाइ। पूछहु बिदर दासी सुतै, किसनु उतरिआ घरि जिसु जाइ।1।

... ... ... ... ...

रविदासु चमारु उसतति करे, हरि कीरति निमख इक गाइ। पतित जाति उतमु भइआ, चार वरन पऐ पगि आइ।2।1।8। (सूही महला ४ घरु ६)

नामा छीबा कबीरु जुोलाहा, पूरे गुर ते गति पाई। ब्रहम के बेते सबदु पछाणहि, हउमै जाति गवाई। सुरि नर तिन की वाणी गावहि, कोइ न मेटै भाई।3।5।22। (स्री रागु महला ३ असटपदीआ)

आखिरी तुक ‘मिले प्रतखि गुसाईआ, धंना वडभागा’, लिख के विरोधी सज्जन ने झट-पट साथ ही लिख दिया है ‘जाटरो’ के लिए ‘प्रतखि गुसाईआ’ रामानंद था। सज्जन जी! गुरमत के विरुद्ध मन-घड़ंत कहानियों के लिए तो बेशक मुंह मोड़ें, पर ये दलीलबाजी अनुचित और खोटी है। क्या गुरु ग्रंथ साहिब के शबदों में आए शब्द ‘गोसाई’ का अर्थ भी ‘गुसाई रामानंद’ ही करोगे?

हउ गोसाई का पहिलवानड़ा। मै गुर मिलि उच दुमालड़ा। सभ होई छिंझ इकठीआ, दयु बैठा वेखै आपि जीउ।17। (सिरी रागु महला ५ पन्ना 74)

पहले तो ‘महला ५’ शीर्षक होते हुए भी इस शब्द को गुरु अरजन देव जी का शब्द मानने से इन्कार किया है, फिर इसको भक्त धन्ना जी का भी नहीं माना और कह दिया कि ‘ये शब्द भक्त जी के मुख पर फबता नहीं था। इसी लिए ‘महला ५’ लिख दिया है। भक्तों की प्रसिद्धि के लिए बाद में भी उनके नामों पर उनके श्रद्धालु रचना करते रहते थे।

यहाँ ये विरोधी सज्जन कहानी साजों की कहानी का ही आसरा ले के कह रहा है कि भक्त तो कहाँ रहे, आम लोगों की रचना भी किसी ढंग से श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज कर ली गई थी।

पाठक सज्जन अगले शब्द के अर्थ और उसकी व्याख्या ध्यान से पढ़ें;

महला ५ ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मनु लीणा ॥ आढ दाम को छीपरो होइओ लाखीणा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि = हर समय गोबिंद के साथ, बार बार गोबिंद के साथ। लीणा = लीन हुआ, जुड़ा। आढ = आधी। दाम = कौडी। को = का। छीपरो = गरीब छींबा, धोबी। रहाउ।

अर्थ: (भक्त) नामदेव जी का मन सदा परमात्मा के साथ जुड़ा रहता था (उस हर वक्त की याद की इनायत से) आधी कौड़ी का गरीब छींबा (धोबी), मानो, लखपति बन गया (क्योंकि उसे किसी की अधीनता ना रही)।1। रहाउ।

बुनना तनना तिआगि कै प्रीति चरन कबीरा ॥ नीच कुला जोलाहरा भइओ गुनीय गहीरा ॥१॥

पद्अर्थ: जोलाहरा = गरीब जुलाहा। गहीरा = गंभीर, गहरा (समुंदरवत्)। गुनीय गहीरा = गुणों का समुंदर।1।

अर्थ: (कपड़ा) उनने (ताना) तानने (की लगन) छोड़ के कबीर ने प्रभु-चरणों से लगन लगा ली; नीच जाति का गरीब जुलाहा था, गुणों का समुंदर बन गया।1।

रविदासु ढुवंता ढोर नीति तिनि तिआगी माइआ ॥ परगटु होआ साधसंगि हरि दरसनु पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: तिन्हि = उस ने। साध संगि = सत्संग में।2।

नोट: “तिनि्” में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है।

अर्थ: रविदास (पहले) नित्य मरे हुए पशु ढोता था, (पर जब से) उसने माया (का मोह) त्याग दिया, साधु-संगत में रहके प्रसिद्ध हो गया, उसको परमात्मा के दर्शन हो गए।2।

सैनु नाई बुतकारीआ ओहु घरि घरि सुनिआ ॥ हिरदे वसिआ पारब्रहमु भगता महि गनिआ ॥३॥

पद्अर्थ: बुतकारीआ = बुक्तियां कढ़ने वाला, दूर नजदीक के छोटे-मोटे काम करने वाला। घरि घरि = घर घर में, हरेक घर में। सुनिआ = सुना गया, शोभा हुई।3।

अर्थ: सैण (जाति का) नाई लोगों के अंदर-बाहर के छोटे-मोटे काम करता था, उसकी घर-घर शोभा हो चली, उसके हृदय में परमात्मा बस गया और वह भक्तों में गिना जाने लगा।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh