श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 489 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु रागु गूजरी महला १ चउपदे घरु १ ॥ तेरा नामु करी चनणाठीआ जे मनु उरसा होइ ॥ करणी कुंगू जे रलै घट अंतरि पूजा होइ ॥१॥ पद्अर्थ: चनणाठीआ = (चंदन काठ) चंदन की लकड़ी। करी = मैं करूँ। उरसा = सिल, चंदन घिसाने वाला पत्थर। करणी = उच्चा आचरण। कुंगू = कुंकुम, केसर। घट = हृदय।1। अर्थ: (हे प्रभु!) अगर मैं तेरे नाम (की याद) को चंदन की लकड़ी बना लूँ, अगर मेरा मन (उस चंदन की लकड़ी को घिसाने के लिए) पत्थर बन जाए, अगर मेरा ऊँचा आचरण (इनके साथ) केसर (बन के) मिल जाए, तो तेरी पूजा मेरे हृदय के अंदर ही पड़ी होगी।1। पूजा कीचै नामु धिआईऐ बिनु नावै पूज न होइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कीचै = करनी चाहिए। पूज = पूजा।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, यही पूजा करनी चाहिए। परमात्मा का नाम स्मरण के बिना और कोई पूजा (ऐसी) नहीं (जो स्वीकार हो सके)।1। रहाउ। बाहरि देव पखालीअहि जे मनु धोवै कोइ ॥ जूठि लहै जीउ माजीऐ मोख पइआणा होइ ॥२॥ पद्अर्थ: देव = देवते, मूर्तियां। पखालीअहि = धोए जाते हैं। जूठि = विकारों के मैल। माजीऐ = मांजा जाता है, साफ पवित्र हो जाता है। मोख = विकारों से आजाद, खुला। पइआणा = प्रयाण, यात्रा, सफर।2। अर्थ: जैसे बाहर देव-मूर्तियों को स्नान करवाते हैं, वैसे ही अगर कोई मनुष्य अपने मन को (नाम स्मरण से) धोए, तो उसके मन के विकारों की मैल उतर जाती है।, उसकी जीवात्मा शुद्ध-पवित्र हो जाती है, उसकी जीवन-यात्रा विकारों से आजाद हो जाती है।2। पसू मिलहि चंगिआईआ खड़ु खावहि अम्रितु देहि ॥ नाम विहूणे आदमी ध्रिगु जीवण करम करेहि ॥३॥ पद्अर्थ: खड़ु = घास। अंम्रितु = (दूध जैसा) उत्तम पदार्थ। विहूणे = विहीन। ध्रिगु = घृग, धिक्कारयोग्य। करेहि = करते हैं।3। अर्थ: (इस धरती पर मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सबसे सिकदार, उत्तम माना जाता है, पर) पशुओं को सराहना मिलती है, वे घास खाते हैं और (दूध जैसा) उत्तम पदार्थ देते हैं। नाम से विहीन मनुष्यों का जीवन धिक्कारयोग्य है क्योंकि वह (नाम को बिसार के अन्य) काम ही करते हैं।3। नेड़ा है दूरि न जाणिअहु नित सारे सम्हाले ॥ जो देवै सो खावणा कहु नानक साचा हे ॥४॥१॥ पद्अर्थ: नेड़ा = नजदीकी, नजदीकी की सांझ, गहरी सांझ। सारे = सार लेता है। संमाले = संभाल करता है। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। हे = है।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) हूमारी और प्रभु की बहुत नजदीक की सांझ है (इतना नजदीक की कि) जो कुछ वह हमें देता है वही हम खाते हैं (खा के जीवन निर्वाह करते हैं), वह (दाता) है भी सदा (हमारे सिर पर) कायम। उसको अपने से दूर ना समझें, वह सदा हमारी सार लेता है, संभाल करता है (मूर्तियों की पूजा करने की जगह हाजिर-नाजर प्रभु को ध्याओ!)।4।1। गूजरी महला १ ॥ नाभि कमल ते ब्रहमा उपजे बेद पड़हि मुखि कंठि सवारि ॥ ता को अंतु न जाई लखणा आवत जात रहै गुबारि ॥१॥ पद्अर्थ: नाभि = धुनी, विष्णु की नाभि। ते = से। उपजे = पैदा हुआ। बेद = (जिस ब्रहमा के रचे हुए) वेद। पढ़हि = (पंडित लोग) पढ़ते हैं। मुखि = मुंह से। कंठि = गले से। सवारि = सवार के, मीठी सुर से। ता को = उस परमात्मा का। गुबारि = अंधेरे में।1। अर्थ: (पुराणों में कथा आती है कि जिस ब्रहमा के रचे हुए) वेद (पण्डित लोग) मुंह से गले से मीठी सुर में नित्य पढ़ते हैं, वह ब्रहमा विष्णु की नाभि में से उगे हुए कमल की नालि से पैदा हुआ (और अपने जन्म दाते की कुदरति का अंत ढूँढने के लिए उस नालि में चल पड़ा, कई युग उस नालि के) अंधेरे में ही आता जाता रहा, पर उसका अंत ना ढूँढ सका।1। प्रीतम किउ बिसरहि मेरे प्राण अधार ॥ जा की भगति करहि जन पूरे मुनि जन सेवहि गुर वीचारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किउ बिसरहि = ना बिसर। प्राण आधार = प्राणों के आसरे। जा की = जिस की। गुर वीचारि = गुरु की बताई हुई मति के आसरे। सेवहि = सेवते हैं, स्मरण करते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरी जिंदगी के आसरे प्रीतम! मुझे ना भूल तू वह है जिसकी भक्ति पूरन पुरख सदा करते रहते हैं, जिसे ऋषि-मुनि गुरु की बताई हुई समझ के आसरे सदा स्मरण करते हैं।1। रहाउ। रवि ससि दीपक जा के त्रिभवणि एका जोति मुरारि ॥ गुरमुखि होइ सु अहिनिसि निरमलु मनमुखि रैणि अंधारि ॥२॥ पद्अर्थ: रवि = सूरज। ससि = चंद्रमा। दीपक = दीए। जा के = जिस प्रभु के। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। एका जोति = उस की ही ज्योति। मुरारि = (मुर अरि) परमात्मा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख, जिसका मुंह गुरु की ओर हो, जो गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है। अहि = दिन। निसि = रात। मनमुखि = जो अपने मन के पीछे चलता है। रैणि = रात, जिंदगी। अंधारि = अंधेरे में।2। अर्थ: वह प्रभु इतना बड़ा है कि सूरज और चंद्रमा उसके त्रिभवणीय जगत में (मानो छोटे से) दीपक (ही) हैं, सारे जगत में उसीकी ज्योति व्यापक है। जो मनुष्य गुरु के बताए राह पर चल के उस को दिन-रात मिलता है वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसकी जिंदगी की रात (अज्ञानता के) अंधेरे में बीतती है।2। सिध समाधि करहि नित झगरा दुहु लोचन किआ हेरै ॥ अंतरि जोति सबदु धुनि जागै सतिगुरु झगरु निबेरै ॥३॥ पद्अर्थ: सिध = बड़े-बड़े प्रसिद्ध जोगी। झगरा = मन से झगरा, मन को जीतने के यत्न। हेरै = देखता है, देख सकता है। किआ हेरै = क्या देख सकता है? कुछ नहीं देख सकता। निबेरै = निपटा दे।3। अर्थ: बड़े-बड़े जोगी (अपने ही उद्यम की टेक रख के) समाधियां लगाते हैं और मन को जीतने के प्रयत्न करते हैं (पर जो मनुष्य अपने उद्यम की ही टेक रखे, उसे) वह अंदर बसती ज्योति इन आँखों से नहीं दिखती। (जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है) उसका मन वाला झगड़ा गुरु समाप्त कर देता है, उसके अंदर गुरु का शब्द-रूप मीठी लगन लग पड़ती है, उसके अंदर परमात्मा की ज्योति जग पड़ती है।3। सुरि नर नाथ बेअंत अजोनी साचै महलि अपारा ॥ नानक सहजि मिले जगजीवन नदरि करहु निसतारा ॥४॥२॥ पद्अर्थ: सुरि = देवते। नर = मनुष्य। साचै महलि = सदा स्थिर रहने वाले महल में। अपारा = हे अपार! सहजि = अडोलता में। जग जीवन = हे जगत के जीवन!।4। अर्थ: हे नानक! (अरदास कर-) हे देवताओं और मनुष्यों के पति! हे बेअंत! हे योनि-रहित! और अटल महल में टिके रहने वाले अपार प्रभु! हे जगत के जीवन! (मेहर कर मुझे) अडोलता में निवास मिले। मेहर की निगाह करके मेरा बेड़ा पार कर।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |