श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गूजरी महला ३ ॥ राम राम सभु को कहै कहिऐ रामु न होइ ॥ गुर परसादी रामु मनि वसै ता फलु पावै कोइ ॥१॥

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। कहै = (जीभ से) कहता है। न होई = (सफलता) नहीं मिलती। परसादी = कृपा से। मनि = मन में। कोइ = कोई मनुष्य।1।

अर्थ: (अगर) हरेक मनुष्य (सिर्फ जीभ के साथ ही) परमात्मा का नाम कहता रहे, (तो निरी जीभ से) परमात्मा का नाम कहने से (सफलता) नहीं मिलती। जब किसी मनुष्य के मन में गुरु की कृपा से परमात्मा आ बसे, तब उसे उस स्मरण का फल मिलता है।1।

अंतरि गोविंद जिसु लागै प्रीति ॥ हरि तिसु कदे न वीसरै हरि हरि करहि सदा मनि चीति ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। जिसु अंतरि = जिस मनुष्य के अंदर। तिसु = उस मनुष्य को। करहि = (वह मनुष्य) करते हैं (बुह वचन)। मनि = मन मे। चीति = चित्त में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के लिए प्यार बनता है, परमात्मा उस मनुष्य को कभी भूलता नहीं। (जिस मनुष्यों के अंदर प्यार बनता है) वह सदा अपने मन में चित्त में परमात्मा को याद करते रहते हैं।1। रहाउ।

हिरदै जिन्ह कै कपटु वसै बाहरहु संत कहाहि ॥ त्रिसना मूलि न चुकई अंति गए पछुताहि ॥२॥

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। कपटु = धोखा। कहाहि = कहलवाते हैं। न चुकई = नही खत्म होती। अंति = अंत के समय। गए = जब चल पड़े। पछुताहि = (तब) पछताते हैं।2।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के हृदय में ठगी बसती है, पर बाहरी भेस से (अपने आप को वे) संत कहलवाते हैं उनके अंदर माया की तृष्णा कभी नहीं खत्म होती, आखिर जब वे जगत से चल पड़ते हैं तब हाथ मलते हैं।2।

अनेक तीरथ जे जतन करै ता अंतर की हउमै कदे न जाइ ॥ जिसु नर की दुबिधा न जाइ धरम राइ तिसु देइ सजाइ ॥३॥

पद्अर्थ: अंतर की = अंदर की (शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतर’ में फर्क याद रखें। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। दुबिधा = दुचित्ता पन, मन का बिखराव। देइ = देता है।3।

अर्थ: (हे भाई!) अगर कोई मनुष्य अनेक तीर्थों पर स्नान का यत्न करता रहे तो भी इन यत्नों से उसके अंदर की अहंकार की मैल नहीं उतरती। और, जिस मनुष्य के मन का बिखराव दूर नहीं होता (वह माया के मोह में भटकता रहता है) उसको धर्मराज सजा देता है।3।

करमु होवै सोई जनु पाए गुरमुखि बूझै कोई ॥ नानक विचहु हउमै मारे तां हरि भेटै सोई ॥४॥४॥६॥

पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। भेटै = मिल जाता है।4।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा की) बख्शिश हो वही मनुष्य परमात्मा को मिलता है। (पर वैसे) कोई विरला मनुष्य ही गुरु की शरण पड़ के (ये भेद) समझता है। हे नानक! (कह:) जब कोई मनुष्य अपने मन में से अहंकार को मार देता है तब वही मनुष्य परमात्मा को मिलता है।4।4।6।

गूजरी महला ३ ॥ तिसु जन सांति सदा मति निहचल जिस का अभिमानु गवाए ॥ सो जनु निरमलु जि गुरमुखि बूझै हरि चरणी चितु लाए ॥१॥

पद्अर्थ: निहचल = अडोल। निरमलु = पवित्र। जि = जो। गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करके।1।

नोट: ‘जिस का’ में से शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य का अहंकार दूर कर देता है, उस मनुष्य को आत्मिक शांति प्राप्त हो जाती है, उसकी बुद्धि (माया-मोह में) डोलने से हट जाती है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के (ये भेद) समझ लेता है, और, परमात्मा के चरणों में अपना चित्त जोड़ता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है।1।

हरि चेति अचेत मना जो इछहि सो फलु होई ॥ गुर परसादी हरि रसु पावहि पीवत रहहि सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चेति = याद कर, स्मरण कर। अचेत = हे गाफ़ल! इछहि = तू चाहेगा। पावहि = तू प्राप्त करेगा। पीवत रहहि = (अगर) तू पीता रहेगा।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे गाफिल मन!) परमात्मा को याद करता रह, तुझे वही फल मिलेगा जो तू मांगेगा। (गुरु की शरण पड़) गुरु की कृपा से तू परमात्मा के नाम का रस हासिल कर लेगा, और तू उस रस को पीता रहेगा, तो तूझे सदा आनंद मिलता रहेगा।1। रहाउ।

सतिगुरु भेटे ता पारसु होवै पारसु होइ त पूज कराए ॥ जो उसु पूजे सो फलु पाए दीखिआ देवै साचु बुझाए ॥२॥

पद्अर्थ: भेटे = मिल जाए। पारसु = लोहे को सोना बना देने वाला पत्थर। पूज = आदर मान। दीखिआ = शिक्षा। साचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।2।

अर्थ: हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरु मिल जाता है तब वह पारस बन जाता है (वह और मनुष्यों को भी ऊँचे जीवन वाला बनाने के लायक हो जाता है), जब वह पारस बनता है तब लोगों से आदर-मान पाता है। जो भी मनुष्य उसका आदर करता है वह (उच्च आत्मिक जीवन-रूप) फल प्राप्त करता है। (पारस बना हुआ मनुष्य और लोगों को उच्च जीवन की) शिक्षा देता है।, और, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम-जपने की बुद्धि देता है।2।

विणु पारसै पूज न होवई विणु मन परचे अवरा समझाए ॥ गुरू सदाए अगिआनी अंधा किसु ओहु मारगि पाए ॥३॥

पद्अर्थ: होवई = होगी, होती है। मारगि = (सही) रास्ते पर।3।

अर्थ: (पर, हे भाई!) पारस बने बिना (दुनिया से) आदर-मान नहीं मिलता, (क्योंकि) अपना मन स्मरण में पतीजे बिना ही वह मनुष्य और लोगों को (स्मरण की) शिक्षा देता है। जो मनुष्य खुद तो ज्ञान से वंचित है, खुद तो माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, पर अपने आप को गुरु कहलवाता है वह किसी और को (सही रास्ते पर) नहीं डाल सकता।3।

नानक विणु नदरी किछू न पाईऐ जिसु नदरि करे सो पाए ॥ गुर परसादी दे वडिआई अपणा सबदु वरताए ॥४॥५॥७॥

पद्अर्थ: नदरी = मेहर की नजर। परसादी = कृपा से। सबदु = महिमा की वाणी। वरताए = बाँटता है, बसाता है।4।

अर्थ: हे नानक! (किसी के वश की बात नहीं) परमात्मा की मेहर की निगाह के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता (आत्मिक जीवन की दाति नहीं मिलती)। जिस मनुष्य पर मेहर की नजर करता है वह मनुष्य ये दाति हासिल कर लेता है। गुरु की कृपा की इनायत से परमात्मा (जिस मनुष्य को) बड़ाई बख्शता है उसके हृदय में अपनी महिमा की वाणी बसाता है।4।5।7।

गूजरी महला ३ पंचपदे ॥ ना कासी मति ऊपजै ना कासी मति जाइ ॥ सतिगुर मिलिऐ मति ऊपजै ता इह सोझी पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: ऊपजै = पैदा होती है। जाइ = चली जाती है। सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु से मिल पड़ें। सोझी = समझ।1।

अर्थ: हे भाई! ना ही काशी (आदि तीर्थों पर) जाने से सद्-बुद्धि पैदा होती है, ना ही काशी (आदि तीर्थों पर) ना जाने से सद्-बुद्धि दूर हो जाती है गुरु को मिलने से (मनुष्य के अंदर) सबुद्धि पैदा होती है, तब मनुष्य को यह समझ आती है।1।

हरि कथा तूं सुणि रे मन सबदु मंनि वसाइ ॥ इह मति तेरी थिरु रहै तां भरमु विचहु जाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मंनि = मन में। थिरु = अडोल। भरमु = भटकना।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! तू परमात्मा की महिमा सुना कर। हे भाई! गुरु के शब्द को अपने मन में बसाए रख। जब (महिमा की इनायत से, गुरु के शब्द की इनायत से) तेरी यह बुद्धि माया के मोह में डोलने से बची रहेगी, तब तेरे अंदर से भटकना दूर हो जाएगी।1। रहाउ।

हरि चरण रिदै वसाइ तू किलविख होवहि नासु ॥ पंच भू आतमा वसि करहि ता तीरथ करहि निवासु ॥२॥

पद्अर्थ: किलविख = पाप। पंचभू = (कामादिक) पाँचों के वश में आए हुए को। वसि = वश में।2।

अर्थ: हे भाई! तू परमात्मा के चरण अपने हृदय में संभाल, तेरे पाप नाश हो जाएंगे। अगर तू (प्रभु-चरणों की इनायत से) कामादिक पाँचों के वश में आए हुए मन को अपने वश में कर ले, तो (समझ ले कि) तू तीर्थों पर ही निवास कर रहा है।2।

मनमुखि इहु मनु मुगधु है सोझी किछू न पाइ ॥ हरि का नामु न बुझई अंति गइआ पछुताइ ॥३॥

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगधु = मूर्ख। बुझई = बूझे, समझता।3।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का यह मन (सदा) मूर्ख (ही टिका रहता) है, उसको (उच्च आत्मिक जीवन की) थोड़ी सी भी समझ नहीं पड़ती। वह परमात्मा के नाम (की कद्र) को नहीं समझता, आखिर वह हाथ मलता ही (जगत से) चला जाता है।3।

इहु मनु कासी सभि तीरथ सिम्रिति सतिगुर दीआ बुझाइ ॥ अठसठि तीरथ तिसु संगि रहहि जिन हरि हिरदै रहिआ समाइ ॥४॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। सतिगुरि = गुरु ने। अठसठि = (आठ और साठ) अढ़सठ। संगि = साथ। जिन हिरदै = जिनके हृदय में।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को सतिगुरु ने (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श दी (उसके वास्ते) यह मन ही काशी है, ये मन ही सारे तीर्थ है, ये मन ही सारी स्मृतियां हैं, उस मनुष्य के साथ अढ़सठ ही तीर्थ बसते हैं।

हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में सदा परमात्मा बसा रहता है (उनके वास्ते ये मन ही काशी है)।4।

नानक सतिगुर मिलिऐ हुकमु बुझिआ एकु वसिआ मनि आइ ॥ जो तुधु भावै सभु सचु है सचे रहै समाइ ॥५॥६॥८॥

पद्अर्थ: हुकमु = रजा। एकु = एक परमात्मा ही। मनि = मन में। सचु = अटल। सचे = सदा स्थिर हरि में।5।

अर्थ: हे नानक! अगर मनुष्य गुरु को मिल जाए तो वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है, तो एक परमात्मा उसके मन में आ बसता है। (वह मनुष्य सदा यूँ यकीन रखता है और कहता है: हे प्रभु!) जो कुछ तुझे ठीक लगता है वह सदा अटल नियम है। (हे भाई! यदि मनुष्य को गुरु मिल जाए तो वह) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।5।6।8।

नोट: ये शब्द और अगला शब्द दोनों पाँच-पाँच बंदों वाले हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh