श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 492 गूजरी महला ३ तीजा ॥ एको नामु निधानु पंडित सुणि सिखु सचु सोई ॥ दूजै भाइ जेता पड़हि पड़त गुणत सदा दुखु होई ॥१॥ पद्अर्थ: निधानु = खजाना। पंडित = हे पंडित! सिखु = (इस नाम को) समझ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सोई = वह (परमात्मा) ही। दूजै भाइ = माया के प्यार में। पढ़हि = तू पढ़ता है।1। अर्थ: हे पंडित! एक हरि नाम ही (सारे गुणों का, सारे पदार्थों का) खजाना है, इस हरि नाम को सुना कर, इस हरि नाम को जपने की विधि सीख। हे पंडित! वह हरि ही सदा कायम रहने वाला है। तू माया के प्यार में (फसा रह के) जितना कुछ (जितने भी धार्मिक पुस्तक) पढ़ता है, उनको पढ़ते और विचारते तुझे सदा दुख ही लगा रहता है।1। हरि चरणी तूं लागि रहु गुर सबदि सोझी होई ॥ हरि रसु रसना चाखु तूं तां मनु निरमलु होई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सबदि = शब्द द्वारा। रसना = जीभ (से)। निरमलु = पवित्र।1। रहाउ। अर्थ: हे पण्डित! गुरु के शब्द में जुड़ के तू परमात्मा के चरणों में टिका रह, तो तुझे (अच्छे आत्मिक जीवन की) समझ पड़ेगी। हे पंडित! परमात्मा के नाम का रस अपनी जीभ से चखता रह, तो तेरा मन पवित्र हो जाएगा।1। रहाउ। सतिगुर मिलिऐ मनु संतोखीऐ ता फिरि त्रिसना भूख न होइ ॥ नामु निधानु पाइआ पर घरि जाइ न कोइ ॥२॥ पद्अर्थ: संतोखीऐ = संतोष हासिल करता है। पर घरि = पराए घर में, किसी और आसरे की तलाश में।2। अर्थ: हे पण्डित! गुरु को मिल के मन संतोख प्राप्त कर लेता है, फिर मनुष्य को माया की प्यास, माया की भूख नहीं व्यापती। (जिस मनुष्य को गुरु से) परमात्मा का नाम-खजाना मिल जाता है वह (आसरे के वास्ते) किसी और घर में नहीं जाता (वह किसी और देवी-देवते आदि का आसरा नहीं ढूँढता)।2। कथनी बदनी जे करे मनमुखि बूझ न होइ ॥ गुरमती घटि चानणा हरि नामु पावै सोइ ॥३॥ पद्अर्थ: बदनी = मुंह से (वदन = मुंह)। कथनी बदनी = मुंह से ही की हुई बातें। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। घटि = हृदय में।3। अर्थ: पर अगर कोई मनुष्य निरी मुंह की बातें ही करता रहे, और वैसे अपने मन के पीछे ही चलता रहे उसको आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती। हे पंडित! गुरु की मति पर चलने से ही हृदय में (सदाचारी जीवन का) प्रकाश पैदा होता है, गुरमति लेने वाला मनुष्य परमात्मा का नाम हासिल कर लेता है।3। सुणि सासत्र तूं न बुझही ता फिरहि बारो बार ॥ सो मूरखु जो आपु न पछाणई सचि न धरे पिआरु ॥४॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। न बुझई = तू नहीं समझता। बारो बार = बारं बार। आपु = अपने आप को। पछाणई = पहचानता। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4। अर्थ: हे पण्डित! शास्त्रों को सुन-सुन के भी तूं (आत्मिक जीवन को) नहीं समझता, तभी तो तू बार-बार भटकता फिरता है। हे पण्डित! जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को नहीं पड़तालता वह (स्मृतियां-शास्त्र पढ़ के भी) मूर्ख (ही) है। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में कभी प्यार नहीं डाल सकता।4। सचै जगतु डहकाइआ कहणा कछू न जाइ ॥ नानक जो तिसु भावै सो करे जिउ तिस की रजाइ ॥५॥७॥९॥ नोट: शीर्षक का अंक ‘3 तीजा’ ध्यान से देखें। ये इशारे मात्र हिदायत है कि ‘महला १,२,३,४’ आदि को पहला, दूजा, तीजा, चौथा आदि पड़ना है। (पन्ना492) पद्अर्थ: डहकाइआ = भटकना में डाला। तिसु भावै = उस प्रभु को भाता है।5। नोट: ‘तिस की’ में से शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। अर्थ: (पर, हे पंडित! परमात्मा की रजा के बारे में) कुछ कहा नहीं जा सकता, उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु ने खुद ही जगत को माया की भटकना में डाला हुआ है। हे नानक! जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है वह वही कुछ करता है। जैसे परमात्मा की रजा है (वैसे ही जगत लगा हुआ है)।5।7।9। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गूजरी महला ४ चउपदे घरु १ ॥ हरि के जन सतिगुर सत पुरखा हउ बिनउ करउ गुर पासि ॥ हम कीरे किरम सतिगुर सरणाई करि दइआ नामु परगासि ॥१॥ पद्अर्थ: हरि के जन = हे हरि के सेवक! सतपुरखा = हे महा पुरख! हउ = मैं। बिनउ = (विनय) बिनती। करउ = मैं करता हूँ। कीरे = कीड़े। किरम = कृमि, छोटे से कीड़े।1। अर्थ: हे सतिगुरु! हे परमात्मा के भक्त! हे महा पुरुख गुरु! मैं तेरे पास विनती करता हूँ। हे सतिगुरु! मैं एक कीड़ा हूँ, छोटा सा कीड़ा हूँ। तेरी शरण आया हूँ। मेहर कर, मुझे परमात्मा के नाम का प्रकाश दे।1। मेरे मीत गुरदेव मो कउ राम नामु परगासि ॥ गुरमति नामु मेरा प्रान सखाई हरि कीरति हमरी रहरासि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। प्रान सखाई = प्राणों का साथी। कीरति = महिमा। रहरासि = राह की पूंजी।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मित्र सतिगुरु! मुझे परमात्मा का नाम (-रूप) प्रकाश दे। (मेहर कर) गुरमति द्वारा मिला हरि नाम मेरी जीवात्मा का साथी बना रहे, परमात्मा की महिमा मेरे वास्ते मेरे जीवन-राह की पूंजी बनी रहे।1। रहाउ। हरि जन के वडभाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस ॥ हरि हरि नामु मिलै त्रिपतासहि मिलि संगति गुण परगासि ॥२॥ पद्अर्थ: जिन = जिस को (बहुवचन)। त्रिपतासहि = तृप्त हो जाते हैं (बहुवचन)।2। अर्थ: हे भाई! जिस हरि-भक्तों के हृदय में परमात्मा के नाम की श्रद्धा है, नाम जपने की खींच है, वह बड़े भाग्यशाली हैं। जब उन्हें प्रभु का नाम प्राप्त होता है वह (वह माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं। साधु-संगत में मिल के उनके अंदर गुण प्रगट हो जाते हैं।2। जिन्ह हरि हरि हरि रसु नामु न पाइआ ते भागहीण जम पासि ॥ जो सतिगुर सरणि संगति नही आए ध्रिगु जीवे ध्रिगु जीवासि ॥३॥ पद्अर्थ: जम पासि = जम के पास, जम के वश में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जीवासि = आगे का जीना।3। अर्थ: पर, जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम-रस हासिल नहीं किया, वे बद-किस्मत हैं, वे आत्मिक मौत के काबू में आए रहते हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं आते, साधु-संगत में नहीं आते, उन का अब तक जीवन और आगे का जीवन धिक्कारयोग्य है।3। जिन हरि जन सतिगुर संगति पाई तिन धुरि मसतकि लिखिआ लिखासि ॥ धंनु धंनु सतसंगति जितु हरि रसु पाइआ मिलि नानक नामु परगासि ॥४॥१॥ पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। लिखासि = लेख। जितु = जिस के द्वारा।4। अर्थ: हे भाई! जिस हरि-भक्तों ने गुरु की संगति प्राप्त कर ली, उनके माथे पर धुर दरगाह से लिखे लेख उघड़ पड़े। हे नानक! (कह:) साधु-संगत धन्य है जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा का नाम-रस हासिल करता है, जिसमें मिलने से मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम रौशन हो जाता है।4।1। गूजरी महला ४ ॥ गोविंदु गोविंदु प्रीतमु मनि प्रीतमु मिलि सतसंगति सबदि मनु मोहै ॥ जपि गोविंदु गोविंदु धिआईऐ सभ कउ दानु देइ प्रभु ओहै ॥१॥ पद्अर्थ: गोविंदु = पृथ्वी का रक्षक। मनि = मन में। मिलि = मिल के। सबदि = शब्द में। मोहै = मोह रहा है। देइ = देता है। ओहै = वही।1। अर्थ: हे मेरे भाईयो! साधु-संगत में मिल के, गुरु के शब्द में जुड़ने के कारण प्रीतम गोविंद (मेरे) मन में (आ बसा है, और, मेरे) मन को आकर्षित कर रहा है। हे भाई! गोविंद भजन करो, हे भाई! गोविंद का ध्यान धरना चाहिए। वही गोविंद सब जीवों को दातें देता है।1। मेरे भाई जना मो कउ गोविंदु गोविंदु गोविंदु मनु मोहै ॥ गोविंद गोविंद गोविंद गुण गावा मिलि गुर साधसंगति जनु सोहै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गावा = मैं गाता हूँ। सोहै = सुंदर जीवन वाला बन जाता है।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे भाईयो! मुझे पृथ्वी का मालिक प्रभु मिल गया है, गोविंद मेरे मन को आकर्षित कर रहा है। मैं अब हर वक्त गोविंद के गुण गा रहा हूँ। (हे भाई!) गुरु को मिल के साधु-संगत में मिल के (और, गोविंद के गुण गा के) मनुष्य सुंदर आत्मिक जीवन वाला बन जाता है।1। रहाउ। सुख सागर हरि भगति है गुरमति कउला रिधि सिधि लागै पगि ओहै ॥ जन कउ राम नामु आधारा हरि नामु जपत हरि नामे सोहै ॥२॥ पद्अर्थ: सागर = समुंदर। कउला = लक्षमी। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। लागै = लगती है। पगि ओहै = उस के पैर में। आधारा = आसरा। नामे = नामि, नाम में (जुड़ के)।2। अर्थ: हे भाईयो! जिस मनुष्य को गुरु की मति की इनायत से सुखों के समुंदर परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो जाती है, लक्ष्मी उसके चरणों में आ लगती है, हरेक रिद्धी, हरेक सिद्धी उसके पैरों में आ पड़ती है। हे भाई! हरि के भक्त को हरि के नाम का सहारा बना रहता है। परमात्मा का नाम जपते, परमात्मा के नाम में जुड़ के उसका आत्मिक जीवन सुंदर बन जाता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |