श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ प्रभि संसारु उपाइ कै वसि आपणै कीता ॥ गणतै प्रभू न पाईऐ दूजै भरमीता ॥ सतिगुर मिलिऐ जीवतु मरै बुझि सचि समीता ॥ सबदे हउमै खोईऐ हरि मेलि मिलीता ॥ सभ किछु जाणै करे आपि आपे विगसीता ॥४॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। गणतै = गिनती से, विचारों से। जीवतु मरै = जीवित मरे, विकारों से निर्वित हो जाए। विगसीता = विगसता, खिलता है।4।

अर्थ: प्रभु ने जगत पैदा करके अपने वश में रखा हुआ है (पर ये बात भुला के कि जगत प्रभु के वश में है, और माया की ही) विचारें करने से प्रभु नहीं मिलता, माया में ही भटकते हैं।

गुरु मिलने से अगर मनुष्य जीवित (माया की ओर से) मर जाए तो (ये अस्लियत है कि संसार प्रभु के वश में है) समझो कि सच्चे प्रभु के मेल में मिल जाता है। (ये समझ आ जाती है कि) प्रभु खुद ही सब कुछ जानता है, खुद ही करता है, और खुद ही (देख के) खुश होता है।4।

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर सिउ चितु न लाइओ नामु न वसिओ मनि आइ ॥ ध्रिगु इवेहा जीविआ किआ जुग महि पाइआ आइ ॥ माइआ खोटी रासि है एक चसे महि पाजु लहि जाइ ॥ हथहु छुड़की तनु सिआहु होइ बदनु जाइ कुमलाइ ॥ जिन सतिगुर सिउ चितु लाइआ तिन्ह सुखु वसिआ मनि आइ ॥ हरि नामु धिआवहि रंग सिउ हरि नामि रहे लिव लाइ ॥ नानक सतिगुर सो धनु सउपिआ जि जीअ महि रहिआ समाइ ॥ रंगु तिसै कउ अगला वंनी चड़ै चड़ाइ ॥१॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जुग = जनम, मानव जनम। रासि = राशि, पूंजी। चसा = पहर का बीसवाँ हिस्सा। पाजु = दिखावा। हथहु छुड़की = हाथ से छूटी हुई, अगर गायब हो जाए। बदनु = (संस्कृत: वदन) मुंह। रंग = प्यार। सतिगुर सउपिआ = गुरु को सौंपा। जीअ महि = जिंद में। अगला = ज्यादा। वंनी = रंग।1।

नोट: ‘हथहु छुड़की’ में ‘माइआ खोटी रासि’ का जिक्र है। सो, ‘अगर मर जाए’, ये अर्थ गलत है।

(देखें, संप्रदान कारक, ‘गुरबाणी व्याकरण’ पृष्ठ 77 और 395)

अर्थ: अगर गुरु के साथ चित्त ना लगाया और प्रभु का नाम मन में ना बसा, तो धिक्कार है ऐसा जीना! मानव जनम में आ के क्या कमाया? माया तो खोटी पूंजी है, इसका दिखावा तो एक पल में उतर जाता है, अगर ये गायब हो जाए (तो इसके गम से) शरीर काला हो जाता है और मुंह कुम्हला जाता है।

जिस मनुष्यों ने गुरु के साथ चित्त जोड़ा उनके मन में शांति आ बसती है, वे प्यार से प्रभु का नाम स्मरण करते हैं, प्रभु नाम में तवज्जो जोड़े रखते हैं।

हे नानक! ये नाम-धन प्रभु ने सतिगुरु को सौंपा है, ये धन गुरु की आत्मा में रचा हुआ है; (जो मनुष्य गुरु से नाम-धन लेता है) उसी को नाम-रंग बहुत चढ़ता है, और ये रंग नित्य चमकता है (दूना-चौगुना होता है)।1।

मः ३ ॥ माइआ होई नागनी जगति रही लपटाइ ॥ इस की सेवा जो करे तिस ही कउ फिरि खाइ ॥ गुरमुखि कोई गारड़ू तिनि मलि दलि लाई पाइ ॥ नानक सेई उबरे जि सचि रहे लिव लाइ ॥२॥

पद्अर्थ: नागनी = सँपनी। लपटाइ रही = चिपक रही है। गारड़ू = गरुड़ मंत्र जानने वाला, साँप का जहर हटाने वाला मंत्र जानने वाला। मलि = मल के। दलि = दल के। मलि दलि = अच्छी तरह मल के। तिनि = तिस ने, उस ने।2।

नोट: ‘इस, तिस’ सर्वनामों की ‘ु’ मात्रा क्यों गायब है, इस बात को समझने के लिए देखें‘गुरबाणी व्याकरण’ पेज 441।

अर्थ: माया नागिन बनी हुई है जगत में (हरेक जीव को) चिपकी हुई है, जो इसका गुलाम बनता है उसी को मार डालती है।

कोई विरला मनुष्य होता है जो इस माया सँपनी के जहर का मंत्र जानता है, उसने इसको अच्छी तरह मल के पैरों के नीचे फेंक लिया है। हे नानक! इस माया सँपनी से वही बचे हैं जो सच्चे प्रभु में तवज्जो जोड़ते हैं।2।

पउड़ी ॥ ढाढी करे पुकार प्रभू सुणाइसी ॥ अंदरि धीरक होइ पूरा पाइसी ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु से करम कमाइसी ॥ जा होवै खसमु दइआलु ता महलु घरु पाइसी ॥ सो प्रभु मेरा अति वडा गुरमुखि मेलाइसी ॥५॥

पद्अर्थ: ढाढी = महिमा करने वाला। धीरक = धैर्य। पाइसी = पा लेगा। धुरि = धुर से ही प्रभु के हुक्म अनुसार।5।

अर्थ: जब मनुष्य ढाढी बन के अरदास करता है और प्रभु को सुनाता है तो इसके अंदर धैर्य आता है (माया-मोह और अहंकार दूर होते हैं) और पूरा प्रभु इसको मिलता है। धुर से (पिछली की हुई महिमा के अनुसार) जो (भक्ति का) लेख माथे पर उघड़ता है और वैसे (भाव, महिमा वाले) काम करता है। (इस तरह) जब खसम दयाल होता है तो इसे प्रभु का महल-रूप असल घर मिल जाता है।

पर, मेरा वह प्रभु है बहुत बड़ा, गुरु के माध्यम से ही मिलता है।5।

सलोक मः ३ ॥ सभना का सहु एकु है सद ही रहै हजूरि ॥ नानक हुकमु न मंनई ता घर ही अंदरि दूरि ॥ हुकमु भी तिन्हा मनाइसी जिन्ह कउ नदरि करेइ ॥ हुकमु मंनि सुखु पाइआ प्रेम सुहागणि होइ ॥१॥

पद्अर्थ: हजूरि = अंग संग। नदरि = मेहर की नजर। सुहागणि = सु+भागनि, अच्छे भाग्यों वाली।1।

(नोट: अरबी में ‘ज़’ को ‘द’ भी पढ़ा जाता है, इसी तरह ‘काज़ी’ और ‘कादी’, ‘कागज़’ और ‘कागद’)।

अर्थ: सब (जीव-स्त्रीयों) का पति एक परमात्मा है जो सदा ही इनके अंग-संग रहता है। पर, हे नानक! जो (जीव-स्त्री) उसका हुक्म नहीं मानती (उसकी रजा में नहीं चलती) उसको वह पति हृदय-घर में बसता हुआ भी कहीं दूर बसता लगता है।

हुक्म भी उन्हीं (जीव स्त्रीयों) से मनाता है जिस पर मेहर की नजर करता है; जिसने हुक्म मान के सुख हासिल किया है, वह प्रेम वाली अच्छे भाग्यों वाली हो जाती है।1।

मः ३ ॥ रैणि सबाई जलि मुई कंत न लाइओ भाउ ॥ नानक सुखि वसनि सुोहागणी जिन्ह पिआरा पुरखु हरि राउ ॥२॥

पद्अर्थ: रैणि सबाई = (जिंदगी रूपी) सारी रात। भाउ = प्यार। सुखि = सुख से।2।

नोट: ‘सुोहागणी’ में अक्षर ‘स’ पर दो मसत्राएं (ु) और (ो) हैं: यहाँ (ु) पढ़नी है।

अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने कंत प्रभु से प्यार नहीं किया, वह (जिंदगी रूपी) सारी रात जल मरी (उसकी सारी उम्र दुखों में गुजरी)। पर, हे नानक! जिनका प्यारा अकाल पुरख (खसम) है वह भाग्यशाली सुख की नींद सोती हैं (जिंदगी की रात सुख से गुजारती हैं)।2।

पउड़ी ॥ सभु जगु फिरि मै देखिआ हरि इको दाता ॥ उपाइ कितै न पाईऐ हरि करम बिधाता ॥ गुर सबदी हरि मनि वसै हरि सहजे जाता ॥ अंदरहु त्रिसना अगनि बुझी हरि अम्रित सरि नाता ॥ वडी वडिआई वडे की गुरमुखि बोलाता ॥६॥

पद्अर्थ: फिरि = दुबारा। उपाइ कितै = किसी ढंग से। करम विधाता = कर्मों की विधि बनाने वाला, जीवों के किए कर्मों के अनुसार जीवों को पैदा करने वाला। मनि = मन में। अंम्रितसरि = अमृत के सरोवर में। हरि अंम्रितसरि = हरि के नाम अमृत के सरोवर में। बोलाता = बुलाता है, अपनी कीर्ति करवाता है।6।

अर्थ: मैंने सारा संसार टोल के देख लिया है, एक परमात्मा ही सारे जीवों को दातें देने वाला है; जीवों के कर्मों की बिधि बनाने वाला वह प्रभु किसी चतुराई-सियानप से नहीं मिलता; सिर्फ गुरु के शब्द द्वारा हृदय में बसता है और आसानी से ही पहचाना जा सकता है।

जो मनुष्य प्रभु के नाम-अमृत सरोवर में नहाता है उसके अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है; यह उसी महानतम् की महानता है कि (जीव से) गुरु के माध्यम से अपनी महिमा करवाता है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh