श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ३ ॥ काइआ हंस किआ प्रीति है जि पइआ ही छडि जाइ ॥ एस नो कूड़ु बोलि कि खवालीऐ जि चलदिआ नालि न जाइ ॥ काइआ मिटी अंधु है पउणै पुछहु जाइ ॥ हउ ता माइआ मोहिआ फिरि फिरि आवा जाइ ॥ नानक हुकमु न जातो खसम का जि रहा सचि समाइ ॥१॥

पद्अर्थ: हंस = जीवात्मा। किआ प्रीति = कैसी प्रीति (कच्ची प्रीत)। पइआ ही = पड़े को ही। कि = क्या। अंधु = ज्ञानहीन। पउणै = पवन को, जीवात्मा को। फिरि फिरि = बार बार। आवा जाइ = आता जाता हूँ। जि = जिस के कारण। रहा = मैं रहूँ।1।

अर्थ: शरीर और आत्मा का कच्चा सा प्यार है, (अंत के समय, ये आत्मा शरीर को) गिरे हुए को छोड़ के चली जाती है; जब (आखिर) चलने के वक्त ये शरीर के साथ नहीं जाती तो इसे झूठ बोल-बोल के पालने का क्या लाभ? (शरीर तो मिट्टी समझो) ज्ञानहीन है (झूठ बोल-बोल के इसको पालने का क्या लाभ आखिर लेखा तो जीवात्मा से ही माँगा जाता है)। जीवात्मा को अगर पूछो (कि ये शरीर पालने में ही क्यों लगी रही, तो इसका उत्तर ये है कि) मैं माया के मोह में फंसा बार-बार जनम-मरन में पड़ा रहा। हे नानक! मैंने खसम का हुक्म ना पहचाना जिसकी इनायत से मैं सच्चे प्रभु में टिका रहता।1।

मः ३ ॥ एको निहचल नाम धनु होरु धनु आवै जाइ ॥ इसु धन कउ तसकरु जोहि न सकई ना ओचका लै जाइ ॥ इहु हरि धनु जीऐ सेती रवि रहिआ जीऐ नाले जाइ ॥ पूरे गुर ते पाईऐ मनमुखि पलै न पाइ ॥ धनु वापारी नानका जिन्हा नाम धनु खटिआ आइ ॥२॥

पद्अर्थ: तसकरु = चोर। जोहि न सकई = देख नहीं सकता। ओचका = छीना झपटी करने वाला, जेब कतरा। जीऐ सेती = जीवात्मा के साथ ही। पले न पाइ = नहीं मिलता। धनु = धन्य, मुबारक, भाग्यों वाले। आइ = यहाँ आ के, जगत में आ के।2।

अर्थ: परमात्मा का नाम ही एक ऐसा धन है जो सदा ही कायम रहता है, और धन कभी मिला और कभी नाश हो गया; इस धन की ओर कोई चोर आँख उठा के नहीं देख सकता, कोई उचक्का इसे छीन नहीं सकता। परमात्मा का नाम-रूप ये धन जीवात्मा के साथ ही रहता है जीवात्मा के साथ ही जाता है, ये धन पूरे गुरु से मिलता है, पर जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसे नहीं मिलता।

हे नानक! भाग्यशाली हैं वे बन्जारे, जिन्होंने जगत में आकर नाम-रूपी धन कमाया है।2।

पउड़ी ॥ मेरा साहिबु अति वडा सचु गहिर ग्मभीरा ॥ सभु जगु तिस कै वसि है सभु तिस का चीरा ॥ गुर परसादी पाईऐ निहचलु धनु धीरा ॥ किरपा ते हरि मनि वसै भेटै गुरु सूरा ॥ गुणवंती सालाहिआ सदा थिरु निहचलु हरि पूरा ॥७॥

पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीर = धैर्य वाला। चीरा = पल्ला, आसरा। धनु धीरा = सदा स्थिर रहने वाला धन। भेटै = मिलता है।7।

(भेटै गुरु = गुरु मिलता है। भेटै गुरु = गुरु को मिलता है। व्याकरण के अनुसार इस शब्द ‘भेटै’ का प्रयोग ध्यान से समझने की जरूरत है। सो, यहाँ ‘जो सूरमे गुरु को मिलना है’ अर्थ करना गलत है)।

अर्थ: मेरा मालिक प्रभु बहुत ही बड़ा है, सदा कायम रहने वाला है, गहरा है और धैर्यवान है। सारा संसार उसके वश में है, सारा जगत उसके आसरे है। उस प्रभु का नाम-धन सदा कायम रहने वाला है, अटल है, और गुरु की कृपा से मिलता है। प्रभु की मेहर से सूरमा गुरु मिलता है और हरि-नाम मन में बसता है, वह सदा-स्थिर अडोल और पूरे प्रभु को गुणवानों ने सलाहा है।7।

सलोकु मः ३ ॥ ध्रिगु तिन्हा दा जीविआ जो हरि सुखु परहरि तिआगदे दुखु हउमै पाप कमाइ ॥ मनमुख अगिआनी माइआ मोहि विआपे तिन्ह बूझ न काई पाइ ॥ हलति पलति ओइ सुखु न पावहि अंति गए पछुताइ ॥ गुर परसादी को नामु धिआए तिसु हउमै विचहु जाइ ॥ नानक जिसु पूरबि होवै लिखिआ सो गुर चरणी आइ पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: परहरि = छोड़ के। विआपे = फसे हुए। बूझ = समझ, मति। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। पूरबि = शुरू से।1।

अर्थ: धिक्कार है उनका जीना, जो परमात्मा के नाम का आनंद बिल्कुल ही त्याग देते हैं और अहंकार में पाप करके दुख सहते हैं, ऐसे जाहिल मन के पीछे चलते हैं, और माया के मोह में जकड़े रहते हैं, उन्हें कोई अक्ल नहीं होती। उन्हें ना इस लोक में ना ही परलोक में कोई सुख मिलता है, मरने के वक्त भी हाथ मलते ही जाते हैं।

जो मनुष्य गुरु की कृपा से प्रभु का नाम स्मरण करता है उसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। हे नानक! जिसके माथे पर धुर से भाग्य हों वह मनुष्य सतिगुरु के चरणों में आ पड़ता है।1।

मः ३ ॥ मनमुखु ऊधा कउलु है ना तिसु भगति न नाउ ॥ सकती अंदरि वरतदा कूड़ु तिस का है उपाउ ॥ तिस का अंदरु चितु न भिजई मुखि फीका आलाउ ॥ ओइ धरमि रलाए ना रलन्हि ओना अंदरि कूड़ु सुआउ ॥ नानक करतै बणत बणाई मनमुख कूड़ु बोलि बोलि डुबे गुरमुखि तरे जपि हरि नाउ ॥२॥

पद्अर्थ: ऊधा = उल्टा। सकती = शक्ति, माया। उपाउ = उपाय, उद्यम। मुखि = मुंह से। आलाउ = आलाप, बोल। धरमि = धर्म में। रलाए = मिले हुए। सुआउ = स्वार्थ, खुद गरजी।2।

(नोट: शब्द ‘अंदरु’ और ‘अंदरि’ का फर्क याद रखने योग्य है)।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जैसे) उल्टा कमल का फूल है, इसमें ना भक्ति है ना स्मरण, ये माया के असर तहत ही कार-विहार करता है, झूठ (माया) ही इस का प्रयोजन (जिंदगी का निशाना) है, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का अंदर भीगता नहीं, सुतुष्टि नहीं होती, मुंह से भी फीके बोल ही बोलता है।

ऐसे लोग धरम में जोड़े नहीं जुड़ते क्योंकि उनके अंदर झूठ की खुदगर्जी है। हे नानक! कर्तार ने ऐसी खेल रची है कि मन के पीछे चलने वाले लोग तो झूठ बोल-बोल के ग़र्क होते हैं और गुरु के सन्मुख रहने वाले नाम जपके (माया की बाढ़ में से) तैर जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ बिनु बूझे वडा फेरु पइआ फिरि आवै जाई ॥ सतिगुर की सेवा न कीतीआ अंति गइआ पछुताई ॥ आपणी किरपा करे गुरु पाईऐ विचहु आपु गवाई ॥ त्रिसना भुख विचहु उतरै सुखु वसै मनि आई ॥ सदा सदा सालाहीऐ हिरदै लिव लाई ॥८॥

पद्अर्थ: बिनु बूझे = (ये बात) समझे बिना (कि ‘गुर परसादी पाईऐ’, देखें पौड़ी नं: 7)। फेरु = चक्कर, फेरा, जनम मरन का लंबा चक्कर।8।

अर्थ: (ये बात) समझे बिना (कि ‘गुर परसादी पाईअै’, मनुष्य को) जनम मरण का लंबा चक्कर लगाना पड़ता है, मनुष्य बार-बार पैदा होता है मरता है, गुरु की सेवा (सारी उम्र ही) नहीं करता (भाव, सारी उम्र गुरु के कहे पर नहीं चलता) आखिर (मरने के वक्त) हाथ मलता जाता है।

जब प्रभु अपनी मेहर करता है तो गुरु मिलता है, अंदर से स्वैभाव दूर होता है, माया की तृष्णा-भूख खत्म होती है, मन में सुख आ बसता है, और तवज्जो जोड़ के सदा हृदय में प्रभु स्मरण किया जा सकता है।8।

सलोकु मः ३ ॥ जि सतिगुरु सेवे आपणा तिस नो पूजे सभु कोइ ॥ सभना उपावा सिरि उपाउ है हरि नामु परापति होइ ॥ अंतरि सीतल साति वसै जपि हिरदै सदा सुखु होइ ॥ अम्रितु खाणा अम्रितु पैनणा नानक नामु वडाई होइ ॥१॥

पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। सभु कोइ = हरेक प्राणी। सीतल = शीतलता, ठंड। साति = शांति। अंम्रितु = ‘नाम’।1।

अर्थ: जो मनुष्य अपने गुरु के कहे पर चलता है, हरेक बंदा उसका आदर करता है, सो (जगत में भी सम्मान हासिल करने के लिए) सभी उपायों में बड़ा उपाय यही है कि प्रभु का नाम मिल जाए, ‘नाम’ जपने से हृदय में सुख होता है, मन में ठंड और शांति बसती है। (गुरु की आज्ञा में चल के ‘नाम’ जपने वाले बंदे की) खुराक और खुराक अमृत ही हो जाती है (भाव, प्रभु का नाम ही उसकी जिंदगी का आसरा हो जाता है) हे नानक! नाम ही उसके लिए आदर-मान है।1।

(नोट: अगले श्लोक और पउड़ी में ‘अनदिनु लागै धिआनु’ ‘अनदिनु हरि के गुण रवै’ तुकों के साथ यही भाव निकलता है कि ‘नाम’ उस मनुष्य का जीवन-आधार बन जाता है। सो यहाँ शब्द ‘अमृत’ के अर्थ ‘पवित्र’ करना मुनासिब नहीं है।)

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh