श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 516 मः ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे साति न आवई दूजी नाही जाइ ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ विणु करमै न पाइआ जाइ ॥ जिन्हा अंतरि लोभ विकारु है दूजै भाइ खुआइ ॥ जमणु मरणु न चुकई हउमै विचि दुखु पाइ ॥ जिन्हा सतिगुर सिउ चितु लाइआ सु खाली कोई नाहि ॥ तिन जम की तलब न होवई ना ओइ दुख सहाहि ॥ नानक गुरमुखि उबरे सचै सबदि समाहि ॥२॥ अर्थ: सतिगुरु की बताई सेवा किए बिना शांति नहीं आती और (सतिगुरु के बिना) और कोई जगह नहीं (जहाँ ये मिल सके) चाहे कितनी ही चाहत करें, मेहर के बिना प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती। जिस मनुष्यों के हृदय में लोभ का अवगुण है, वे माया के प्यार में भूले हुए है, उनका पैदा होना मरना खत्म नहीं होता और वे अहंकार में कष्ट उठाते हैं। जिस मनुष्यों ने अपने सतिगुरु से चिक्त जोड़ा है उनमें से (प्रभु के मिलाप से) वंचित कोई नहीं रहा, ना तो उन्हें जम का बुलावा आता है ना ही वे दुख सहते हैं (भाव, उन्हें मौत का सहम नहीं छू सकता)। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हुए हैं, वे (दुखों से) बच गए हैं और सच्चे शब्द में लीन रहते हैं।2। पउड़ी ॥ ढाढी तिस नो आखीऐ जि खसमै धरे पिआरु ॥ दरि खड़ा सेवा करे गुर सबदी वीचारु ॥ ढाढी दरु घरु पाइसी सचु रखै उर धारि ॥ ढाढी का महलु अगला हरि कै नाइ पिआरि ॥ ढाढी की सेवा चाकरी हरि जपि हरि निसतारि ॥१८॥ पद्अर्थ: महलु = निवास स्थान, आत्मिक अवस्था। अगला = ऊँचा।18। अर्थ: जो मनुष्य अपने मालिक प्रभु के साथ प्यार डालता है, वही प्रभु का ढाढी कहलवा सकता है (भाव, प्रभु की महिमा वही बंदा कर सकता है), वह मनुष्य प्रभु की हजूरी में टिक के उसका स्मरण करता है और गुरु के शब्द के द्वारा उसके गुणों की विचार करता है। ज्यों-ज्यों वह प्रभु को अपने हृदय में बसाता है, वह प्रभु के चरणों में जुड़ता है (उसे प्रभु की हजूरी प्राप्त होती है), प्रभु के नाम में प्यार करने से उसके मन की अवस्था बहुत ऊँची हो जाती है, बस, वह ढाढी यही सेवा करता है, यही चाकरी करता है कि वह प्रभु का नाम जपता है, और प्रभु उस को (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।18। सलोकु मः ३ ॥ गूजरी जाति गवारि जा सहु पाए आपणा ॥ गुर कै सबदि वीचारि अनदिनु हरि जपु जापणा ॥ जिसु सतिगुरु मिलै तिसु भउ पवै सा कुलवंती नारि ॥ सा हुकमु पछाणै कंत का जिस नो क्रिपा कीती करतारि ॥ ओह कुचजी कुलखणी परहरि छोडी भतारि ॥ भै पइऐ मलु कटीऐ निरमल होवै सरीरु ॥ अंतरि परगासु मति ऊतम होवै हरि जपि गुणी गहीरु ॥ भै विचि बैसै भै रहै भै विचि कमावै कार ॥ ऐथै सुखु वडिआईआ दरगह मोख दुआर ॥ भै ते निरभउ पाईऐ मिलि जोती जोति अपार ॥ नानक खसमै भावै सा भली जिस नो आपे बखसे करतारु ॥१॥ पद्अर्थ: गूजरी जाति गवारि = गवार जाति वाली गूजरी, मोटी जाति वाली गूजरी (यहाँ इशारा श्री कृष्ण जी और चँद्रावलि है)। (गूजरी जाति गवारि: कई टीकाकार अर्थ करते हैं: हे गवार! उम्रें गुजर जाती हैं। ये अर्थ गलत है, शब्द ‘जाति’ का अर्थ ‘जाती’ नहीं हो सकता, वह शब्द ‘जात’ है, जैसे ‘बहती जात कदे द्रिसटि ना धारत’॥1॥26॥33॥ (सूही म: ५)। अनदिनु = हर रोज। भउ = ईश्वर का डर। कुलवंती = अच्छे कुल वाली। करतारि = कर्तार ने। कुलखणी = बुरे लक्षणों वाली। परहरि छोडी = त्याग दी। भतारि = भतार ने। भै = डर। गुणी गहीरु = गुणों का खजाना। बैसै = बैठता है।1। नोट: शब्द ‘करतारि’ और ‘करतारु’ का व्याकर्णक अंतर स्मर्णीय है। नोट: ‘भै पइअै’, ये दोनों शब्द व्याकरण के अनुसार ‘अधिकरण कारक, एकवचन’ में हैं। इस वाक्यांश (Phrase) को अंग्रेजी में Locative Absolute कहते हैं और पंजाबी में ‘पूरब पूरण कारदंतक’ (हृदय में) ईश्वर का डर पड़ने से। अर्थ: मोटी जाति की गूजरी कुलवंती स्त्री बन गई (ऊँची जाति वाली हो गई) जब उसने अपना पति ढूँढ लिया; (वैसे ही) वह (जीव-) स्त्री कुलवंती हो जाती है जो सतिगुरु के शब्द द्वारा विचार करके हर रोज प्रभु का स्मरण करती है (क्योंकि) जिसको गुरु मिल जाता है उसके अंदर परमात्मा का डर पैदा होता है, वह पति-प्रभु का हुक्म समझ लेती है (पर यह वही जीव-स्त्री करती है) जिस पर कर्तार ने स्वयं मेहर की हो। (दूसरी तरफ) जिसे पति ने त्याग कर दिया हो, वह स्त्री दुष्ट और खोटे लक्षणों वाली होती है। यदि हृदय में प्रभु का डर आ बसे, तो मन की मैल काटी जाती है, शरीर भी पवित्र हो जाता है; गुणों के खजाने परमात्मा का स्मरण करके अंदर प्रकाश हो जाता है, मति उज्जवल हो जाती है। (ऐसी जीव-स्त्री) परमात्मा के डर में बैठती है, डर में रहती है, डर में कार-व्यवहार करती है, (फिर) उसको इस जीवन में आदर और सुख मिलता है और प्रभु की हजूरी का दरवाजा उसके लिए खुल जाता है। बेअंत प्रभु की ज्योति में आत्मा जोड़ने से और उसके डर में रहने से वह निर्भय प्रभु मिल जाता है। पर, हे नानक! जिसको कर्तार स्वयं बख्शिश करे वही जीव-स्त्री पति-प्रभु को प्यारी लगती है, वही अच्छी है।1। मः ३ ॥ सदा सदा सालाहीऐ सचे कउ बलि जाउ ॥ नानक एकु छोडि दूजै लगै सा जिहवा जलि जाउ ॥२॥ अर्थ: सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु की ही सदा महिमा करनी चाहिए, मैं प्रभु से सदके हूँ। पर, हे नानक! वह जीभ जल जाए जो एक प्रभु को छोड़ के किसी और (की याद) में लगे।2। पउड़ी ॥ अंसा अउतारु उपाइओनु भाउ दूजा कीआ ॥ जिउ राजे राजु कमावदे दुख सुख भिड़ीआ ॥ ईसरु ब्रहमा सेवदे अंतु तिन्ही न लहीआ ॥ निरभउ निरंकारु अलखु है गुरमुखि प्रगटीआ ॥ तिथै सोगु विजोगु न विआपई असथिरु जगि थीआ ॥१९॥ पद्अर्थ: अंस = (संस्कृत: अंश) हिस्सा। अंसा अउतार = (परमात्मा के) अंशों का (जगत में) आना, देवताओं आदि का जनम। उपाइओनु = उस (प्रभु) ने पैदा किया (उपाना = उपजाना, पैदा करना)। दूजा भाउ = माया का मोह। जिउ राजे = राजाओं की तरह। ईसर = शिव। तिनी = उन्होंने भी। तिथै = (गुरमुख वाली) अवस्था में। सोगु = चिन्ता। विजोगु = विछोड़ा। जगि = जगत में।19। अर्थ: देवताओं आदि की भी उत्पक्ति प्रभु ने स्वयं ही की और माया का मोह भी स्वयं ही बनाया। (वह देवते भी) राजाओं की तरह राज करते रहे और दुखों-सुखों की खातिर लड़ते रहे। ब्रहमा और शिव (जैसे बड़े देवते प्रभु को) स्मरण करते रहे पर उन्हें भी (उस अजब खेल का) भेद नहीं मिला। परमात्मा निडर है, आकार-रहित है और जिसे लक्षित नहीं किया जा सकता। गुरमुख के अंदर प्रगट होता है। गुरमुख अवस्था में (मनुष्य को) चिन्ता और (प्रभु से) विछोड़ा नहीं सताता, गुरमुख जगत में (माया के मोह से स्थिर) अडोल रहता है।19। सलोकु मः ३ ॥ एहु सभु किछु आवण जाणु है जेता है आकारु ॥ जिनि एहु लेखा लिखिआ सो होआ परवाणु ॥ नानक जे को आपु गणाइदा सो मूरखु गावारु ॥१॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस मनुष्य ने। एहु लेखा लिखिआ = यह बात समझ ली। आपु = अपने आप को। गणाइदा = बड़ा कहलवाता।1। अर्थ: जितना ये जगत दिखाई दे रहा है ये सारा आने-जाने वाला है (भाव, कभी भी एक हालत में नहीं रहता, सो किसी राज-धन मल्कियत आदि पर मान करना मूर्खता है) जिस मनुष्य ने ये बात समझ ली वह (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार होता है; पर, हे नानक! जो (इस ‘आकार’ के आसरे) अपने आप को बड़ा कहलवाता है (भाव, अहंकार करता है) वह मूर्ख है वह गावार है।1। मः ३ ॥ मनु कुंचरु पीलकु गुरू गिआनु कुंडा जह खिंचे तह जाइ ॥ नानक हसती कुंडे बाहरा फिरि फिरि उझड़ि पाइ ॥२॥ पद्अर्थ: कुंचरु = हाथी। पीलकु = हाथी को चलाने वाला, महावत। गिआन = ज्ञान, गुरु की दी हुई मति। कुंडा = अंकुश। जह = जिधर। हसती = हाथी। उझड़ि = गलत रास्ते पर। पाइ = पड़ता है।2। अर्थ: मन (जैसे) हाथी है; (अगर) सतिगुरु (इसका) महावत (बने और) गुरु की दी हुई मति (इसके सिर पर) अंकुश हो, तो यह मन उधर जाता है जिधर गुरु ले जाता है। पर, हे नानक! अंकुश के बिना हाथी बार-बार कुमार्ग पर चला जाता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |