श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ तिसु आगै अरदासि जिनि उपाइआ ॥ सतिगुरु अपणा सेवि सभ फल पाइआ ॥ अम्रित हरि का नाउ सदा धिआइआ ॥ संत जना कै संगि दुखु मिटाइआ ॥ नानक भए अचिंतु हरि धनु निहचलाइआ ॥२०॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभु ने। सेवि = सेवा करके, हुक्म कर के। अचिंतु = बेफिक्र।20।

अर्थ: जिस प्रभु ने ‘भाव दूजा’ (द्वैत भाव) पैदा किया है, अगर उसकी हजूरी में अरदास करें, अगर सतिगुरु के हुक्म में चलें तो (जैसे) सारे फल मिल जाते हैं, प्रभु का अमृत-नाम सदा स्मरण कर सकते हैं, गुरमुखों की संगति में रहके (द्वैत भाव का) दुख मिटा सकते हैं, और, हे नानक! कभी ना नाश होने वाला नाम-धन कमा के बेफिक्र हो जाते हैं।20।

सलोक मः ३ ॥ खेति मिआला उचीआ घरु उचा निरणउ ॥ महल भगती घरि सरै सजण पाहुणिअउ ॥ बरसना त बरसु घना बहुड़ि बरसहि काहि ॥ नानक तिन्ह बलिहारणै जिन्ह गुरमुखि पाइआ मन माहि ॥१॥

पद्अर्थ: खेति = पैली में, खेत में। मिआला = किनारा, खेतों के किनारे की हदबंदी। घरु उचा = बादल। निरणउ = देख के। महल घरि = (जिस जीव-) स्त्री के घर में। सरै = बनी हुई है, फबी है। सजण = प्रभु जी। घना = हे घन! हे बादल! हे सतिगुरु! बहुड़ि = दुबारा। काहि = किस लिए?।1।

अर्थ: बादल देख के (किसान) खेत के बंद (किनारे की हदबंदियां) ऊँची कर देता है (और वर्षा का पानी उस खेत में ठहर जाता है), (वैसे ही, जिस जीव-) स्त्री के हृदय में भक्ति (का उछाल) आता है वहाँ प्रभु मेहमान बन के (भाव, रहने के लिए) आ जाता है।

हे मेघ! (हे सतिगुरु!) अगर (नाम की) बरखा करनी है तो वर्षा (अब) कर, (मेरी उम्र बीत जाने पर) फिर किस लिए बरसेगा?

हे नानक! मैं सदके हूँ उनसे जिन्होंने गुरु के माध्यम से प्रभु को हृदय में पा लिया है।1।

मः ३ ॥ मिठा सो जो भावदा सजणु सो जि रासि ॥ नानक गुरमुखि जाणीऐ जा कउ आपि करे परगासु ॥२॥

पद्अर्थ: मिठा = प्यारा। भावदा = सदा अच्छा लगता है। जि = जो। रासि = मुआफिक। जि रासि = जो सदा मुआफिक आए, जिससे सदा बनी रहे।2।

अर्थ: (असल) प्यारा वह है जो सदा अच्छा लगता रहे, (असल) मित्र वह है जिससे सदा बनी रहे (पर ‘द्वैत भाव’ वह है जिससे ना सदा बनी रहती है ना ही सदा साथ निभता है), हे नानक! जिसके अंदर प्रभु खुद प्रकाश करे उसको गुरु के द्वारा ही ये समझ आती है।2।

पउड़ी ॥ प्रभ पासि जन की अरदासि तू सचा सांई ॥ तू रखवाला सदा सदा हउ तुधु धिआई ॥ जीअ जंत सभि तेरिआ तू रहिआ समाई ॥ जो दास तेरे की निंदा करे तिसु मारि पचाई ॥ चिंता छडि अचिंतु रहु नानक लगि पाई ॥२१॥

पद्अर्थ: जन = प्रभु का सेवक। हउ = मैं। पाई = पैरों में।21।

अर्थ: प्रभु के सेवक की अरदास प्रभु की हजूरी में (यूँ होती) है: (हे प्रभु!) तू सदा रहने वाला मालिक है, तू सदा ही रखवाला है, मैं तुझे स्मरण करता हूँ, सारे जीव-जंतु तेरे ही हैं, तू इनमें मौजूद है। जो मनुष्य तेरी बंदगी करने वाले की निंदा करता है तू उसको (आत्मिक मौत) मार के ख्वार करता है।

हे नानक! तू भी प्रभु के चरणों में लग और (दुनियावी) चिंताएं त्याग के बेफिक्र रह।21।

सलोक मः ३ ॥ आसा करता जगु मुआ आसा मरै न जाइ ॥ नानक आसा पूरीआ सचे सिउ चितु लाइ ॥१॥

अर्थ: जगत (दुनियावी) आशाएं बना-बना के मर जाता है, पर ये आशा कभी नहीं मरती; कभी खत्म नहीं होती (भाव, कभी तृष्णा खत्म नहीं होती, कभी संतोष नहीं होता)। हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले प्रभु से चिक्त जोड़ने से मनुष्य की आशाएं पूरी हो जाती हैं (भाव, तृष्णा समाप्त हो जाती है)।1।

मः ३ ॥ आसा मनसा मरि जाइसी जिनि कीती सो लै जाइ ॥ नानक निहचलु को नही बाझहु हरि कै नाइ ॥२॥

पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना। जिनि = जिस प्रभु ने। कीती = (आसा मनसा) पैदा की। सो = वही प्रभु। लै जाइ = ले जाए, नाश करे।2।

अर्थ: ये दुनियावी आशा, ये माया के फुरने तब ही खत्म होंगे जब वह प्रभु खुद खत्म करेगा जिसने ये (आसा मनसा) पैदा की, (क्योंकि) हे नानक! (तब ही यकीन बनेगा कि) परमात्मा के नाम के बिना कोई और सदा-स्थिर रहने वाला नहीं (फिर किस की आस करें?)।2।

पउड़ी ॥ आपे जगतु उपाइओनु करि पूरा थाटु ॥ आपे साहु आपे वणजारा आपे ही हरि हाटु ॥ आपे सागरु आपे बोहिथा आपे ही खेवाटु ॥ आपे गुरु चेला है आपे आपे दसे घाटु ॥ जन नानक नामु धिआइ तू सभि किलविख काटु ॥२२॥१॥ सुधु

पद्अर्थ: उपाइओनु = उपाया उस (प्रभु) ने। थाटु = बनावट, संरचना। पूरा = संपूर्ण, जिसमें कोई कमी ना हो। वणजारा = व्यापारी। हाटु = हाट, जहाँ सौदा हो रहा है। बोहिथा = जहाज। खेवाटु = मल्लाह। घाटु = पत्तन। किलविख = पाप।22।

अर्थ: मुकम्मल बनतर (सम्पूर्ण संरचना) बना के प्रभु ने स्वयं ही जगत पैदा किया, यहाँ प्रभु खुद ही समुंदर है, खुद ही जहाज है और खुद ही मल्लाह है, यहाँ खुद ही गुरु है, खुद ही सिख है, और खुद ही (उस पार का) पत्तन दिखाता है।

हे दास नानक! तू उस प्रभु का नाम स्मरण कर और अपने सारे पाप दूर कर ले।22।1। सुधु।

नोट: श्री करतारपुर वाली ‘बीड़’ में इस ‘वार’ की ‘वाणी’ के लेखन से ‘सलोक महला ३’ आदि सारे शीर्षक बारीक लेखन में है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि शीर्षक के लिए पहले जगह छोड़ दी गई थी। फिर अच्छी तरह सुधार के (कि शलोक ठीक उसी ही गुरु साहिबान के हैं) ‘शीर्षक’ बारीक कलम से दर्ज किए हैं। तभी ‘वार’ की समाप्ति पर हाशिए से बाहर शब्द ‘सुधु’ लिखा है। भाव ये है कि, शलोक ठीक शीर्षक वाले गुरु-व्यक्ति के ही हैं; ये बात साबित कर ली गई है।


रागु गूजरी वार महला ५   ੴ सतिगुर प्रसादि॥

वार का भाव

पउड़ी वार:

सृष्टि की रचना करके इसमें हर जगह प्रभु खुद मौजूद है, सबकी पालना स्वयं ही करता है, सब जीव उसने, मानो, एक धागे में परोए हुए हैं, उसकी रजा के अनुसार ही कई जीव जगत के विकारों में ख्वार हो रहे हैं और जिनपे वह मेहर करता है वह उसका स्मरण करके संसार समुंदर के विकारों की लहरों में से बच निकलते हैं।

बड़े-बड़े देवताओं से ले के सारे जीव-जंतु प्रभु की महिमा करते हैं, ताने-पेटे की तरह परमात्मा सब जीवों में मिला हुआ है, जिधर-जिधर लगाता है उधर-उधर जीव लगते हैं, जिनपे प्रभु स्वयं मेहरवान होता है वही उसकी बंदगी करते हैं।

मनुष्य की अपनी चतुराई सियानप काम नहीं देती, मनुष्य खुद तो बल्कि भले कार्य करने में आलस ही करता है, जिसपे प्रभु की मेहर की नजर हो उसको गुरमुखों की संगत मिलाता है, जहाँ वह सेवा करता है और महिमा सुनता है।

जो प्रभु एक छिन में कुदरति के अनेक करिश्में रच देता है, जो सब जीवों के दिल की हर वक्त जानता है, वह जिस मनुष्य पर रहम करता है उसको अपनी याद में जोड़ता है और विकारों से बचाता है वह मनुष्य इन विकारों के आगे मानव-जन्म की बाजी हार के नहीं जाता।

जगत में कामादिक और कई विकार और बलाएं हैं जो मनुष्य को हर समय चिपके रहते हैं, कई किस्म के फिक्र-आशंकाएं इसे लगी रहती हैं। पर, जिसको सतिगुरु उपदेश देता है वह मनुष्य नाम स्मरण करके इन विकारों और अंदेशों से बच जाता है, क्योंकि वह संतोषी जीवन वाला हो जाता है, पर ऐसे भाग्यशाली होते कुछ विरले ही हैं।

जो मनुष्य अपनी समझदारियां छोड़ के अपना मन गुरु के हवाले कर देता है, उसकी दुमर्ति नाश हो जाती है, वह जगत के विकारों में नहीं फँसता, कोई बुरा काम नहीं करता, जिसके कारण उसको परलोक में कोई डर-खतरा हो। ‘नाम’ की इनायत से उसके मन को संतोष प्राप्त होता है, पर गुरु की शरण वही मनुष्य आता है जिस पर धुर से मेहर हो।

गुरु के पास प्रभु की महिमा का खजाना है जो प्रभु की मेहर से मिलता है, सतिगुरु जिस मनुष्य पर मेहर की नजर करता है उसकी भटकना समाप्त हो जाती है क्योंकि प्रभु चरणों का प्यार उसको जगत के सारे खजानों से ज्यादा कीमती दिखता है, कोई मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।

जो मनुष्य सतिगुरु की मति लेता है उसको प्रभु का ज्ञान प्राप्त होता है, ज्यों-ज्यों वह नाम स्मरण करता है उसके सारे आत्मिक रोग दूर हो जाते हैं, उसके मन में ठंड पड़ जाती है; अहंकार दूर करने के कारण कोई रुकावट उसके राह में नहीं आती।

जो मनुष्य साधु-संगत में पहुँचता है, गुरमुखों का दर्शन करता है उसके मन की मैल काटी जाती है, उसके मन में प्रभु-स्मरण का उत्साह पैदा होता है, वह विकारों की ओर नहीं पलटता, क्योंकि वह स्वाश-स्वाश नाम स्मरण करता है, पर, साधु-संगत भी प्रभु की मेहर से ही मिलती है।

जिस मनुष्य को गुरु मिल जाए, वह दुखों की मार से बच जाता है, जूनियों में नहीं पड़ता, हर जगह उसको परमात्मा ही दिखता है, विकारों की तरफ से वह अपनी रुचि समेट लेता है। एक बार प्रभु की हजूरी में स्वीकार हो के वह पुनः खोट नहीं करता (कुमार्ग पर नहीं जाता)।

जगत की सारी खेल परमात्मा के अपने हाथ में है। उसके ‘नाम’ का खजाना भी उसके ही अपने ही वश में है, वह जिसपे प्रसन्न होता है और नाम की दाति देता है, वही नाम स्मरण करता है।

प्रभु की ये अपनी रजा है कि कोई जीव विकारों में प्रवृति हैं और कोई स्मरण में। मनुष्य की अपनी कोई चतुराई अथवा प्रयास कारगर नहीं हो सकते। जो मनुष्य परमात्मा का आसरा देखता है, प्रभु की शरण पड़ता है उस पर दयाल हो के प्रभु नाम की दाति देता है।

दयाल हो के प्रभु जिसके हृदय में नाम-जपने की दाति दे के ठंड पहुँचाता है, उसके सारे रोने समाप्त हो जाते हैं, गुरु के प्रताप से उसके सारे रोग दूर हो जाते हैं, माया वाले बंधन काटे जाते हैं और उसका जीवन संतोष वाला हो जाता है।

प्रभु की मेहर से जो जो मनुष्य ‘नाम’ स्मरण करते हैं, ‘नाम’ उनकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, दिन रात ‘नाम’ अमृत से ही वह माया की ओर से तृप्त रहते हैं, इस वास्ते कोई दुख दर्द रोग उन्हें छू नहीं सकता।

कामादिक विकार बड़े सूरमें बली योद्धे हैं, साधारण त्रैगुणी जीव तो कहीं रहे, ये बड़े-बड़े त्यागियों को भी धराशाही कर देते हैं, सब को जीत-जीत के अपनी प्रजा बना लेते हैं; माया की खातिर भटकना और माया का मोह इन शूरवीरों (विकारों) का, मानो, किला और किले के चौगिर्दे की गहरी खाई है। इनसे बचने का एक ही तरीका है: सतिगुरु की ओट।

‘भरमगढ़’ में कैद हुए जीव को कामादिकों से सतिगुरु ही छुड़वाता है, गुरु मनुष्य को प्रभु के नाम का खजाना देता है; ‘नाम’ ऐसी दवाई है जिससे बड़े से बड़ा भयानक रोग नाश हो जाता है।

जिस मनुष्य के मन में परमात्मा बस जाता है उसका मन हर समय खिला रहता है, उसे किसी विकार आदि से डर-खतरा नहीं रहता क्योंकि उसे यकीन आ जाता है कि जो कुछ हो रहा है परमात्मा की रजा में हो रहा है और परमात्मा बंदगी करने वाले को स्वयं हाथ दे के बचाता है।

जिस मनुष्यों को प्रभु अपने ‘नाम’ की दाति देता है, उनकी दुमर्ति, भ्रम और भय दूर हो जाते हैं। ना ही वे जनम-मरण के चक्कर में पड़ते हैं, ना ही कोई ऐसा काम करते हैं जिसके कारण पछताना पड़े; वे हर वक्त प्रभु के नाम को हृदय में परोए रखते हैं।

सरब-निवासी प्रभु जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है, उससे नाम-जपने की कमाई स्वयं ही करवाता है, जिसके हृदय में बसता है उसका जीवन सुखी हो जाता है। पर, वही मनुष्य स्मरण करता है, जो सतिगुरु का आसरा लेता है।

जो मनुष्य परमात्मा के हो के रहते हैं उन्हें प्रभु विकारों दुखों से इस तरह बचा लेता है, मानो, उन्हें गले से लगा लेता है, कोई विकार दुख उनपे दबाव नहीं डाल सकते। पर, जो लोग गुरमुखों की निंदा करते हैं, उनके अंदर शांति नहीं होती, वह, मानो, घोर नर्क में जल रहे हैं।

परमात्मा का स्मरण करने से दुनियावी झोरे (चिन्ता-फिक्र) खत्म हो जाते हैं, मनुष्य की आत्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो जाती है, उसके हृदय में सुख, अडोलता और खुशी आ बसती है, प्रभु और भक्त एक रूप हो जाते हैं।

समूचा भाव:

(1 से 4 तक) बड़े-बड़े लोगों से ले के सारे जीव इस रंगा-रंग जगत के रचनहार कर्तार ने अपने हुक्म रूपी धागे में परोए हुए हैं, ताने-पेटे की तरह वह सब में मिला हुआ है। सबके दिलों की वह हर वक्त जानता है, ये उसकी अपनी रजा ही है कि कई जीव विकारों में ख्वार हो रहे हैं, मनुष्य की कोई चतुराई-समझदारी इसको बचा नहीं सकती, जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको अपनी याद और महिमा में जोड़ता है।

(5 से 10 तक) जिस मनुष्य पर परमात्मा की कृपा-दृष्टि होती है उस भाग्यशाली को सतिगुरु की संगति नसीब होती है, गुरु के पास प्रभु की महिमा का, मानो, खजाना है, ज्यों-ज्यों मनुष्य अपना मन गुरु के हवाले करता है, उसकी दुमर्ति नाश होती है, प्रभु-चरणों का प्यार उसको जगत के सारे खजानों से ज्यादा प्यारा लगता है, नाम स्मरण से उसके मन में ठंड पड़ती है, संतोष आता है, विकारों की तरफ से वह अपनी रुचि समेट लेता है, इस तरह एक बार प्रभु की हजूरी में स्वीकार हो के वह दुबारा बुराई की ओर नहीं जाता।

(11 से 16 तक) जगत की सारी खेल परमात्मा के अपने हाथ में है, जीवों का विकारों में प्रवृति होना भी प्रभु की ही अपनी रजा है, जीव की चतुराई कारगर नहीं हो सकती, ये कामादिक विकार इतने बली है कि बड़े-बड़े त्यागी भी इनके आगे धराशाही होजाते हैं। एक ही बचाव है: प्रभु की मेहर से सतिगुरु की ओट। गुरु, मनुष्य को ‘नाम’ का खजाना देता है; ‘नाम’ ऐसी दवाई है जिससे बड़े से बड़े असाध आत्मिक रोग नाश हो जाते हैं।

(17 से 21 तक) ‘नाम’ की इनायत से मनुष्य का मन प्रफुल्लित रहता है, जीवन सुखी हो जाता है, कोई विकार दुख आदि उस पर दबाव नहीं डाल सकता, ‘नाम’ में मन हर समय परोया रहने के कारण बंदगी वाला मनुष्य और परमात्मा एक-रूप हो जाते हैं।

मुख्य भाव:

ये सारा बहुरंगी जगत ईश्वर ने खुद रचा है, विकारों का अस्तित्व भी उसी की रजा के मुताबिक है। पर, ये विकार इतने बली है कि मनुष्य अपनी चतुराई से इनसे बच नहीं सकता। जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है वह गुरु की शरण पड़ कर ‘नाम’ स्मरण करता है, ‘नाम’ की इनायत से कोई विकार दबाव नहीं डाल सकता, जीवन सुखी हो जाता है और मनुष्य प्रभु का रूप हो जाता है।

वार की संरचना

ये ‘वार’ गुरु अर्जुन साहिब जी की रची हुई है, इसमें ‘21’ पउड़ियां हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो-दो शलोक हैं, सारे शलोकों की गिनती 42 है, और ये सारे शलोक भी गुरु अर्जुन साहिब जी के ही हैं।

हरेक ‘पौड़ी’ में आठ-आठ तुकें हैं सिर्फ पौड़ी नंबर 20 में पाँच तुकें हैं। पहली और बीसवीं पौड़ी छोड़ के बाकी सारी पौड़ियों के साथ बरते गए शलाक दो-दो तुकों के हैं (दूसरी पौड़ी का पहला शलोक भी चार तुकों का है), इन 37 शलोकों में पश्चिमी पंजाब की बोली (लहंदी बोली, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) के शब्द ज्यादा मिलते हैं। शलोकों की बाँट, एक जैसी दो तुकी संरचना, एक जैसा विषय-वस्तु, सारे ही शलोकों और पौड़ियों का एक ही गुरु साहिबान का होना; इन बातों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये ‘वार’ और इसके साथ बरते गए ‘शलोक’ एक ही वक्त पे उचारे गए हैं। ‘आसा की वार’ में ये बात नहीं है, एक तो वहाँ शलोकों के विषय-वस्तु अलग-अलग हैं, दूसरे, पौड़ियों के बरते गए शलोकों की बाँट भी एक जैसी नहीं है, तीसरे, कई पौड़ियों के साथ गुरु नानक देव जी का अपना उचारा हुआ शलोक भी नहीं है।

रागु गूजरी वार महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सलोकु मः ५ ॥ अंतरि गुरु आराधणा जिहवा जपि गुर नाउ ॥ नेत्री सतिगुरु पेखणा स्रवणी सुनणा गुर नाउ ॥ सतिगुर सेती रतिआ दरगह पाईऐ ठाउ ॥ कहु नानक किरपा करे जिस नो एह वथु देइ ॥ जग महि उतम काढीअहि विरले केई केइ ॥१॥

पद्अर्थ: अंतरि = मन में। आराधणा = याद करना। गुर नाउ = गुरु का नाम। स्रवणी = कानों से। सेती = से। रतिआ = रंग के, प्यार करने से। वथु = चीज। काढीअहि = कहलवाते हैं।1।

अर्थ: अगर अपने गुरु (के प्यार) में रंगे जाएं तो (प्रभु की) हजूरी में जगह मिलती है। मन में गुरु को याद करना, जीभ से गुरु का नाम जपना, आँखों से गुरु को देखना, कानों से गुरु का नाम सुनना- ये दाति, कह, हे नानक! उस मनुष्य को प्रभु देता है जिस पर मेहर करता है, ऐसे बंदे जगत में श्रेष्ठ कहलवाते हैं, (पर ऐसे होते) कोई विरले-विरले हैं।1।

मः ५ ॥ रखे रखणहारि आपि उबारिअनु ॥ गुर की पैरी पाइ काज सवारिअनु ॥ होआ आपि दइआलु मनहु न विसारिअनु ॥ साध जना कै संगि भवजलु तारिअनु ॥ साकत निंदक दुसट खिन माहि बिदारिअनु ॥ तिसु साहिब की टेक नानक मनै माहि ॥ जिसु सिमरत सुखु होइ सगले दूख जाहि ॥२॥

पद्अर्थ: रखणहारि = रक्षा करने वाले (प्रभु) ने। उबारिअनु = बचा लिए उस (प्रभु) ने। सवारिअनु = सवार दिए उस ने। मनहु = मन से। विसारिअनु = विसार दिए उस ने। भवजलु = संसार समुंदर। तारिअनु = तारे उस ने। साकतु = टूटे हुए, विछुड़े हुए। बिदारिअनु = नाश कर दिए उस ने।2।

अर्थ: रक्षा करने वाले परमात्मा ने जिस लोगों की मदद की, उनको उसने खुद (विकारों से) बचा लिया है। उनको गुरु के पैरों पे डाल के उनके सारे काम उसने सवार दिए हैं। जिस पर प्रभु स्वयं दयालु हुआ है, उनको उसने (अपने) मन से विसारा नहीं, उनको गुरमुखों की संगति में (रख के) संसार-समुंदर पार करवा दिया।

जो उसके चरणों से टूटे हुए हैं, जो निंदा करते रहते हैं, जो गंदे आचरण वाले हैं, उनको एक पल में उसने मार दिया है।

नानक के मन में भी उस मालिक का आसरा है जिसको स्मरण करने से सुख मिलता है और सारे दुख दूर हो जाते हैं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh