श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 533 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देवगंधारी महला ५ ॥ अपुने सतिगुर पहि बिनउ कहिआ ॥ भए क्रिपाल दइआल दुख भंजन मेरा सगल अंदेसरा गइआ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पहि = पास। बिनउ = विनय, विनती। दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाले प्रभु जी। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जब मैंने अपने गुरु के पास अरजोई करनी शुरू की, तो दुखों का नाश करने वाले प्यारे प्रभु जी मेरे पर दयावान हुए (प्रभु जी की कृपा से) मेरी सारी चिन्ता-फिक्र दूर हो गई। रहाउ। हम पापी पाखंडी लोभी हमरा गुनु अवगुनु सभु सहिआ ॥ करु मसतकि धारि साजि निवाजे मुए दुसट जो खइआ ॥१॥ पद्अर्थ: सभु = सारा। सहिआ = सहन किया। करु = हाथ (एकवचन)। मसतकि = माथे पर। धारि = रख के। साजि निवाजे = पैदा करके सवारता है। जो = जो। खइआ = नाश करने वाले।1। अर्थ: हे भाई! हम जीव पापी हैं, पाखण्डी हैं, लोभी हैं (परमात्मा इतना दयावान है कि वह) हमारा हरेक गुण अवगुण सहता है। जीवों को पैदा करके उनके माथे पर हाथ रख के उनका जीवन सँवारता है (जिसकी इनायत से कामादिक) वैरी, जो आत्मिक जीवन का नाश करने वाले हैं, समाप्त हो जाते हैं।1। परउपकारी सरब सधारी सफल दरसन सहजइआ ॥ कहु नानक निरगुण कउ दाता चरण कमल उर धरिआ ॥२॥२४॥ पद्अर्थ: सरब सधारी = सब जीवों का सहारा देने वाला। सहजइआ = आत्मिक अडोलता देने वाला। उर = हृदय।2। अर्थ: हे भाई! प्रभु जी परोपकारी हैं, सारे जीवों को आसरा देने वाले हैं, प्रभु का दीदार मानव जीवन के लिए फल-दायक है, आत्मिक अडोलता की दाति बख्शने वाला है। हे नानक! कह: प्रभु गुण-हीन जीवों को भी दातें देने वाला है। मैंने उसके सुंदर कोमल चरण (गुरु की कृपा से अपने) हृदय में बसा लिए हैं।2।24। देवगंधारी महला ५ ॥ अनाथ नाथ प्रभ हमारे ॥ सरनि आइओ राखनहारे ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अनाथ नाथ = हे निआसरों का आसरा! हे निखसमों का खसम! राखनहारे = हे सहायता करने में समर्थ प्रभु!। रहाउ। अर्थ: हे अनाथों के नाथ! हे मेरे राखनहार प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। रहाउ। सरब पाख राखु मुरारे ॥ आगै पाछै अंती वारे ॥१॥ पद्अर्थ: सरब पाख = सारे पक्ष। मुरारे = हे मुरारी! आगै = परलोक में। पाछै = इस लोक में।1। अर्थ: हे मुरारी! परलोक में, इस लोक में, आखिरी समय में- हर जगह मेरी सहायता कर।1। जब चितवउ तब तुहारे ॥ उन सम्हारि मेरा मनु सधारे ॥२॥ पद्अर्थ: चितवउ = मैं चेते करता हूँ। उन समारि = (तेरे) उन (गुणों) को याद करके। सधारे = सहारा पकड़ता है।2। अर्थ: हे प्रभु! मैं जब भी याद करता हूँ तेरे गुण ही याद करता हूँ। (तेरे) उन (गुणों) को याद करके मेरे मन को धैर्य मिलता है।2। सुनि गावउ गुर बचनारे ॥ बलि बलि जाउ साध दरसारे ॥३॥ पद्अर्थ: सुनि = सुन के। गावउ = मैं गाता हूँ। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = कुर्बान। साध = गुरु।3। अर्थ: हे प्रभु! मैं गुरु के दीदार से कुर्बान जाता हूँ, सदके जाता हूँ। गुरु के वचन सुन के ही (हे प्रभु!) मैं (तेरी महिमा के गीत) गाता हूँ।3। मन महि राखउ एक असारे ॥ नानक प्रभ मेरे करनैहारे ॥४॥२५॥ पद्अर्थ: राखउ = रखूँ, मैं रखता हूँ। असारे = आस। करनैहारे = हे कर्तार!।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हे मेरे कर्तार! मैं अपने मन में सिर्फ तेरी ही सहायता की आस रखता हूँ।4।25। देवगंधारी महला ५ ॥ प्रभ इहै मनोरथु मेरा ॥ क्रिपा निधान दइआल मोहि दीजै करि संतन का चेरा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनोरथु = मन की तमन्ना। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! मोहि = मुझे। दीजै = दे। चेरा = दास। रहाउ। अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभु! हे दयालु प्रभु! मेरे मन की यही तमन्ना है कि मुझे ये दान दे कि मुझे अपने संतों का सेवक बनाए रख। रहाउ। प्रातहकाल लागउ जन चरनी निस बासुर दरसु पावउ ॥ तनु मनु अरपि करउ जन सेवा रसना हरि गुन गावउ ॥१॥ पद्अर्थ: प्रातहकाल = सुबह, सवेर। लागउ = लगूँ, मैं लगूँ। निस = रात। बासुर = दिन। पावउ = पाऊँ। अरपि = भेटा करके। करउ = करूँ। रसना = जीभ (से)। गावउ = गाऊँ।1। अर्थ: हे प्रभु! सवेरे (उठ के) मैं तेरे संतजनों के चरण लगूँ, दिन-रात मैं तेरे संत-जनों के दर्शन करता रहूँ। अपना शरीर अपना मन भेटा करके मैं (सदा) संत-जनों की सेवा करता रहूँ, और अपनी जीभ से मैं हरि गुण गाता रहूँ।1। सासि सासि सिमरउ प्रभु अपुना संतसंगि नित रहीऐ ॥ एकु अधारु नामु धनु मोरा अनदु नानक इहु लहीऐ ॥२॥२६॥ पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। सिमरउ = स्मरण करूँ। संगि = संगत में। रहीऐ = रहना चाहिए। अधारु = आसरा। मोरा = मेरा। लहीऐ = लेना चाहिए।2। अर्थ: (हे भाई! मेरी तमन्ना है कि) मैं हरेक श्वास के साथ अपने प्रभु का स्मरण करता रहूँ। हे भाई! (कह: मेरी चाहत है कि) सिर्फ परमात्मा का नाम-धन ही मेरा जीवन-आसरा बना रहे। (हे भाई! नाम-स्मरण का) ये आनंद (सदा) लेते रहना चाहिए।2।26। रागु देवगंधारी महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मीता ऐसे हरि जीउ पाए ॥ छोडि न जाई सद ही संगे अनदिनु गुर मिलि गाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ऐसे मीता = ऐसे मित्र। पाए = पा लिए हैं। छोडि = छोड़ के। सद = सदा। संगे = साथ। अनदिनु = हर रोज। गुर मिलि = गुरु को मिल के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैंने ऐसे मित्र प्रभु जी पा लिए हैं, जो मुझे छोड़ के नहीं जाते, सदा मेरे साथ रहते हैं, गुरु को मिल के हर वक्त उनके गुण गाता रहता हूँ।1। रहाउ। मिलिओ मनोहरु सरब सुखैना तिआगि न कतहू जाए ॥ अनिक अनिक भाति बहु पेखे प्रिअ रोम न समसरि लाए ॥१॥ पद्अर्थ: मनोहरु = मन को मोह लेने वाला हरि। सुखैना = (सुख+अयन। अयन = घर) सुखों का घर, सुखदाता। कतहू = कहीं भी। पेखे = देखे हैं। प्रिअ रोम समसरि = प्यारे के एक बाल के बराबर।1। अर्थ: हे भाई! मेरे मन को मोह लेने वाला, मुझे सारे सुख देने वाला प्रभु मिल गया है, मुझे छोड़ के वह और कहीं भी नहीं जाता, (सुखों के इकरार करने वाले) और बहुत सारे अन्य किस्मों के (व्यक्ति) देख लिए हैं, पर कोई भी प्यारे प्रभु के एक बाल जितनी भी बराबरी नहीं कर सकता।1। मंदरि भागु सोभ दुआरै अनहत रुणु झुणु लाए ॥ कहु नानक सदा रंगु माणे ग्रिह प्रिअ थीते सद थाए ॥२॥१॥२७॥ पद्अर्थ: मंदरि = हृदय मंदिर में। सोभ = शोभा। दुआरै = (प्रभु के) दर पर। अनहत = एक रस, लगातार। रुण झुण = मद्यम मद्यम हो रहा खुशी का गीत। ग्रिह थाए = गृह स्थान, जिसके हृदय घर में। सद = सदा। प्रिअ थीते = प्रभु जी टिक गए।2।1।27। अर्थ: हे नानक! कह: जिस जीव के हृदय-घर में प्रभु जी सदा के लिए आ टिकते हैं, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है, उसके हृदय-घर में भाग्य जाग पड़ते हैं, उसके हृदय में एक धीमा धीमा खुशी का गीत चलता रहता है, उसको प्रभु के दर से शोभा मिलती है।2।1।27। नोट: ‘घरु ३’ के संग्रह का ये पहला शब्द है। देखें अंक १। कुल जोड़ 27 है। देवगंधारी ५ ॥ दरसन नाम कउ मनु आछै ॥ भ्रमि आइओ है सगल थान रे आहि परिओ संत पाछै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = के लिए। आछै = तमन्ना करता है। भ्रमि = भटक भटक के। सगल थान = सब जगह। रे = हे भाई! आहि = चाह के। संत पाछे = संतों के पीछे, संतों की शरण।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दर्शन करने के लिए, परमात्मा का नाम जपने के लिए, मेरे मन में चाह है। मेरा ये मन भटक-भटक के सब जगह हो आया है, अब (इसी) चाहत (के कारण) संतों की चरणीं आ पड़ा हूँ।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |