श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 534 किसु हउ सेवी किसु आराधी जो दिसटै सो गाछै ॥ साधसंगति की सरनी परीऐ चरण रेनु मनु बाछै ॥१॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। सेवी = सेवा करूँ। आराधी = आराधना करूँ। दिसटै = दिखता है। गाछै = नाशवान है। परीऐ = पड़ना चाहिए। रेनु = धूल। बाछै = मांगता है।1। अर्थ: (हे भाई! संसार में) जो कुछ दिख रहा है वह नाशवान है, (इस वास्ते) मैं किस की सेवा करुँ? मैं किस की आराधना करूँ? हे भाई! साधु-संगत की शरण पड़ना चाहिए। मेरा मन साधु जनों के चरणों की धूल ही मांगता है।1। जुगति न जाना गुनु नही कोई महा दुतरु माइ आछै ॥ आइ पइओ नानक गुर चरनी तउ उतरी सगल दुराछै ॥२॥२॥२८॥ पद्अर्थ: जाना = मैंने जाना। दुतरु = दुश्वार, जिसको तैरना मुश्किल है। माइ = माया। आछै = (अस्ति) है। तउ = तब। दुराछै = दूर आछै, बुरी वासना।2। अर्थ: हे भाई! यह माया (एक ऐसा समुंदर है जिससे) पार लांघना बहुत ही मुश्किल है, मुझे (इससे पार लांघने का) कोई तरीका नहीं आता, मुझ में कोई (ऐसा) गुण (भी) नहीं है (जिसकी सहायता से मैं इस माया-समुंदर से पार लांघ सकूँ)। हे नानक! जब मनुष्य गुरु के चरणों में आ पड़ता है तब (इसके अंदर से) सारी बुरी वासना दूर हो जाती है (और, हरि-नाम जप के संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है)।2।2।28। देवगंधारी ५ ॥ अम्रिता प्रिअ बचन तुहारे ॥ अति सुंदर मनमोहन पिआरे सभहू मधि निरारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंम्रिता = आत्मिक जीवन देने वाले। प्रिअ = हे प्यारे! मनमोहन = हे मन को मोहने वाले! मधि = में। निरारे = हे निराले! , हे अलग रहने वाले!।1। अर्थ: हे प्यारे! हे बेअंत सुंदर! हे प्यारे मनमोहन! हे सब जीवों में और सबसे न्यारे प्रभु! तेरी महिमा के वचन आत्मिक जीवन देने वाले हैं।1। रहाउ। राजु न चाहउ मुकति न चाहउ मनि प्रीति चरन कमलारे ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा मोहि ठाकुर ही दरसारे ॥१॥ पद्अर्थ: चाहउ = चाहूँ, चाहता हूँ। मनि = मन में। चरन कमल = कमल फूल जैसे चरण। महेस = शिव। सिध = योग साधना में माहिर योगी, करामाती योगी। मोहि = मुझे।1। अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मैं राज नहीं मांगता, मैं मुक्ति नहीं मांगता, (मेहर कर, सिर्फ तेरे) सुंदर कोमल चरणों का प्यार मेरे मन में टिका रहे। (हे भाई! लोग तो) ब्रहमा, शिव करामाती योगी, ऋषि, मुनि, इन्द्र (आदि के दर्शन चाहते हैं, पर) मुझे मालिक प्रभु के दर्शन ही चाहिए।1। दीनु दुआरै आइओ ठाकुर सरनि परिओ संत हारे ॥ कहु नानक प्रभ मिले मनोहर मनु सीतल बिगसारे ॥२॥३॥२९॥ पद्अर्थ: दुआरै = दर पर। हारे = हार के। मनोहर = मन को हरने वाले, मन मोहने वाले। बिगसारे = खिल जाते हैं।2। अर्थ: हे ठाकुर! मैं गरीब तेरे दर पर आया हूँ, मैं हार के तेरे संतों की शरण पड़ा हूँ। हे नानक! (कह: जिस मनुष्य को) मन मोहने वाले प्रभु जी मिल जाते हैं उसका मन शांत हो जाता है, खिल उठता है।2।3।29। देवगंधारी महला ५ ॥ हरि जपि सेवकु पारि उतारिओ ॥ दीन दइआल भए प्रभ अपने बहुड़ि जनमि नही मारिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जपि = जप के। पारि उतारिओ = पार लंघा लिया जाता है। बहुड़ि = दुबारा। जनमि = जनम में। नही मारिओ = नहीं मारा जाता।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप के परमात्मा का सेवक (संसार समुंदर से) पार लंघा लिया जाता है। दीनों पर दया करने वाले प्रभु उस सेवक के अपने बन जाते हैं, प्रभु उसको बार बार जनम-मरण में नहीं डालता।1। रहाउ। साधसंगमि गुण गावह हरि के रतन जनमु नही हारिओ ॥ प्रभ गुन गाइ बिखै बनु तरिआ कुलह समूह उधारिओ ॥१॥ पद्अर्थ: संगमि = मिलाप में। गावह = आओ हम गाएं (वर्तमान काल, उत्तम पुरुष, बहुवचन)। गाइ = गा के। बिखै बनु = विषयों के जहर वाला जल (वनं कानने जले)। कुलह समूह = सारी कुलें।1। अर्थ: हे भाई! आओ हम गुरु की संगति में बैठ के परमात्मा के गुण गाएं। हे भाई! प्रभु का सेवक (गुण गा के) अपना श्रेष्ठ मानव जनम व्यर्थ नहीं गवाता। प्रभु के गुण गा के सेवक विषयों (विषौ-विकारों) के जल से भरे संसार-समुंदर से खुद पार लांघ जाता है, अपनी सारी कुलों को भी (उसमें डूबने से) बचा लेता है।1। चरन कमल बसिआ रिद भीतरि सासि गिरासि उचारिओ ॥ नानक ओट गही जगदीसुर पुनह पुनह बलिहारिओ ॥२॥४॥३०॥ पद्अर्थ: रिद = हृदय। सासि गिरासि = हरेक श्वास से और ग्रास से। ओट = आसरा। गही = पकड़ी। जगदीसुर = जगत के ईश्वर का। पुनह पुनह = बारंबार।2। अर्थ: हे भाई! सेवक के हृदय में परमात्मा के सुंदर चरण हमेशा बसते रहते हैं, सेवक हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ परमात्मा का नाम जपता रहता है। हे नानक! सेवक ने जगत के मालिक परमात्मा का आसरा लिया होता है, मैं उस सेवक से बार बार बलिहार जाता हूँ।2।4।30। रागु देवगंधारी महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ करत फिरे बन भेख मोहन रहत निरार ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बन = जंगल। भेख = साधुओं वाले पहरावे। मोहन = सुंदर प्रभु। निरार = अलग।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य त्यागी साधुओं वाले) भेस करके जंगलों में भटकते फिरते हैं, सुंदर प्रभु उनसे दूर रहता है।1। रहाउ। कथन सुनावन गीत नीके गावन मन महि धरते गार ॥१॥ पद्अर्थ: कथन सुनावन = (और लोगों को उपदेश) कहने सुनाने वाले। नीके = सुंदर। गार = गर्व, अहंकार।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य और लोगों को उपदेश कहने सुनाने वाले हैं, जो सुंदर-सुंदर गीत भी गाने वाले हैं वह (अपने इस गुण का) मन में अहंकार बनाए रखते हैं (मोहन प्रभु उनसे भी दूर ही रहता है)।1। अति सुंदर बहु चतुर सिआने बिदिआ रसना चार ॥२॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ। चार = चारु, सुंदर।2। अर्थ: हे भाई! विद्या की बल पर जिनकी जीभ सुंदर (बोलने वाली बन जाती) है, जो देखने में बड़े सुंदर हैं, चतुर हैं, समझदार हैं (मोहन प्रभु उनसे भी अलग ही रहता है)।2। मान मोह मेर तेर बिबरजित एहु मारगु खंडे धार ॥३॥ पद्अर्थ: बिबरजित = बचे रहना। मारगु = रास्ता। खंडे धार = तलवार की धार जैसा बारीक।3। अर्थ: (हे भाई! मोहन प्रभु उनके ही हृदय में बसता है जो अहंकार से, मोह से, मेर-तेर से बचे रहते हैं, पर) अहंकार से, मोह से, मेर-तेर से बचे रहना - ये रास्ता तलवार की धार जैसा बारीक है (इस पर चलना कोई आसान खेल नहीं)।3। कहु नानक तिनि भवजलु तरीअले प्रभ किरपा संत संगार ॥४॥१॥३१॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! तिनि = उस (मनुष्य) ने। भवजलु = संसार समुंदर। संगार = संगति।4। अर्थ: हे नानक! उस मनुष्य ने संसार समुंदर पार कर लिया है जो प्रभु की कृपा से साधु-संगत में निवास रखता है।4।1।31। रागु देवगंधारी महला ५ घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मै पेखिओ री ऊचा मोहनु सभ ते ऊचा ॥ आन न समसरि कोऊ लागै ढूढि रहे हम मूचा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: री = हे सखी! पेखिओ = देखा है। ते = से। आन = अन्य, कोई और। समसरि = बराबर। मूचा = बहुत। ढूढि रहे = ढूँढ के रह गया हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे बहिन! मैंने देख लिया है कि वह सुंदर प्रभु बहुत ऊँचा है सबसे ऊँचा है। मैं बहुत तलाश कर करके थक चुका हूँ। कोई और उसकी बराबरी नहीं कर सकता।1। रहाउ। बहु बेअंतु अति बडो गाहरो थाह नही अगहूचा ॥ तोलि न तुलीऐ मोलि न मुलीऐ कत पाईऐ मन रूचा ॥१॥ पद्अर्थ: गाहरो = गहरा। अगहूचा = अगह+ऊचा, इतना ऊँचा कि उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। तोलि = किसी तोल से। मोलि = किसी कीमत से। मुलीऐ = खरीदा जा सकता। कत = कहाँ? मन रूचा = मन को प्यारा लगने वाला।1। अर्थ: वह परमात्मा बहुत बेअंत है, वह प्रभु बहुत ही गंभीर है उसकी गहराई नहीं नापी जा सकती, वह इतना ऊँचा है कि उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। किसी पत्थर से उसे तौला नहीं जा सकता, किसी कीमत से उसे खरीदा नहीं जा सकता, पता नहीं चलता कि कहाँ उस सुंदर प्रभु को तलाशें।1। खोज असंखा अनिक तपंथा बिनु गुर नही पहूचा ॥ कहु नानक किरपा करी ठाकुर मिलि साधू रस भूंचा ॥२॥१॥३२॥ पद्अर्थ: खोज = तलाश। अनिकत = अनेक। पंथा = रास्ते। मिलि साधू = गुरु को मिल के। भूंचा = भोगा, खाया।2। अर्थ: अनेक तलाश करें, अनेक रास्ते देखें (कुछ नहीं बन सकता), गुरु की शरण पड़े बिना उस प्रभु के चरणों में नहीं पड़ सकते। हे नानक! कह: प्रभु ने जिस मनुष्य पर कृपा की, वह गुरु को मिल के उसके नाम का रस भोगता है।2।1।32। नोट: ‘घरु ५’ का पहला शब्द है। अंक १। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |