श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देवगंधारी महला ५ ॥ मै बहु बिधि पेखिओ दूजा नाही री कोऊ ॥ खंड दीप सभ भीतरि रविआ पूरि रहिओ सभ लोऊ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बहु बिधि = बहुत से तरीकों से। री = हे बहन! खंड = धरती के हिस्से। दीप = सात द्वीप, सारे देश। रविआ = मौजूद। लोऊ = लोक, भवन।1। रहाउ।

अर्थ: हे बहन! मैंने इस अनेक रंगों वाले जगत को (ध्यान से) देखा है, मुझे इसमें परमात्मा के बिना और कोई नहीं दिखता। हे बहन! धरती के सारे खण्डों में, देशों में सभी में परमात्मा ही मौजूद है, सब भवनों में परमात्मा ही व्यापक है।1। रहाउ।

अगम अगमा कवन महिमा मनु जीवै सुनि सोऊ ॥ चारि आसरम चारि बरंना मुकति भए सेवतोऊ ॥१॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगंमा = अगम्य (पहुँच से परे)। महिंमा = महिमा। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। सुनि = सुन के। सोऊ = शोभा। चारि आसरम = (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्त, सन्यास)। चारि वरंना = (ब्राह्मण, खत्री, वैश्य, शूद्र)। सेवतोऊ = सेवत ही, सेवा भक्ति करने से।1।

अर्थ: हे बहन! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, हम जीवों की बुद्धि उस तक नहीं पहुँच सकती। उसकी महिमा कोई भी बयान नहीं कर सकता। हे बहन! उसकी शोभा सुन-सुन के मेरे मन को आत्मिक जीवन मिल रहा है। चारों आश्रमों, चारों वर्णों के जीव उसकी सेवा-भक्ति कर के (माया के बंधनों से) आजाद हो जाते हैं।1।

गुरि सबदु द्रिड़ाइआ परम पदु पाइआ दुतीअ गए सुख होऊ ॥ कहु नानक भव सागरु तरिआ हरि निधि पाई सहजोऊ ॥२॥२॥३३॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। दुतीअ = मेरे तेर, परमात्मा के बिना किसी और के अस्तित्व का ख्याल। भव सागरु = संसार समुंदर। निधि = खजाना। सहजोऊ = आत्मिक अडोलता।2।

अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के हृदय में गुरु ने अपना शब्द पक्का करके टिका दिया उसने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, उसके अंदर से मेर-तेर दूर हो गई, उसको आत्मिक आनंद मिल गया, उसने संसार-समुंदर पार कर लिया, उसको परमात्मा का नाम-खजाना मिल गया, उसको आत्मिक अडोलता हासिल हो गई।2।2।33।

रागु देवगंधारी महला ५ घरु ६    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

एकै रे हरि एकै जान ॥ एकै रे गुरमुखि जान ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: एकै = एक (परमात्मा) ही। रे = हे भाई! जान = समझ, निश्चय कर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! हर जगह एक परमात्मा को ही बसता समझ। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर एक परमात्मा को ही (हर जगह बसता) समझ।1। रहाउ।

काहे भ्रमत हउ तुम भ्रमहु न भाई रविआ रे रविआ स्रब थान ॥१॥

पद्अर्थ: काहे = क्यों? भ्रमत हउ = तू भटकता है। भाई = हे भाई! स्रब थान = सब जगह।1।

अर्थ: हे भाई! तुम क्यों भटकते हो? भटकना त्याग दो। हे भाई! परमात्मा सब जगह में व्याप रहा है।1।

जिउ बैसंतरु कासट मझारि बिनु संजम नही कारज सारि ॥ बिनु गुर न पावैगो हरि जी को दुआर ॥ मिलि संगति तजि अभिमान कहु नानक पाए है परम निधान ॥२॥१॥३४॥

पद्अर्थ: बैसंतरु = आग। कासट मझारि = लकड़ी में (काष्ट, काठ)। संजम = जुगति, मर्यादा। सारि = सारे, सिरे चढ़ता। को = का। दुआर = दरवाजा। मिलि = मिल के। तजि = त्याग के। परम निधान = सबसे श्रेष्ठ (नाम-) खजाना।2।

अर्थ: हे भाई! जैसे (हरेक) लकड़ी में आग (बसती है, पर) जुगति के बिना (वह आग हासिल नहीं की जा सकती, और, आग से किए जाने वाले) काम सिरे नहीं चढ़ सकते। (इसी तरह, चाहे परमात्मा हर जगह बस रहा है, पर) गुरु को मिले बिना कोई मनुष्य परमात्मा का दर नहीं पा सकेगा। हे नानक! कह: साधु-संगत में मिल के अपना अहंकार त्याग के सबसे श्रेष्ठ (नाम-) खजाना मिल जाता है।2।1।34।

देवगंधारी ५ ॥ जानी न जाई ता की गाति ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ता की = उस (परमात्मा) की। गाति = गति, अवस्था, आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा की आत्मक अवस्था समझी नहीं जा सकती (कि परमात्मा कैसा है; ये बात जानी नहीं जा सकती)।1। रहाउ।

कह पेखारउ हउ करि चतुराई बिसमन बिसमे कहन कहाति ॥१॥

पद्अर्थ: कह = कहाँ? पेखारउ = मैं दिखाऊँ। हउ = मैं। करि = कर के। बिसमन बिसमे = हैरान से हैरान, बहुत ही हैरान। कहन = कथन, बयान। कहाति = कहते, जो कहते हैं।1।

अर्थ: हे भाई! अपनी अकल का जोर लगा के मैं वह परमात्मा कहाँ से दिखाऊँ? (नहीं दिखा सकता)। जो मनुष्य उसे बयान करने का प्रयत्न करते हैं वे भी हैरान ही रह जाते हैं (उसका स्वरूप कहा नहीं जा सकता)।1।

गण गंधरब सिध अरु साधिक ॥ सुरि नर देव ब्रहम ब्रहमादिक ॥ चतुर बेद उचरत दिनु राति ॥ अगम अगम ठाकुरु आगाधि ॥ गुन बेअंत बेअंत भनु नानक कहनु न जाई परै पराति ॥२॥२॥३५॥

पद्अर्थ: गण = शिव जी के सेवक। गंधरब = देवताओं के रागी। सिध = करामाती योगी। अरु = और। साधिक = योग साधना करने वाले। सुरिनर = दैवी गुणों वाले मनुष्य। ब्रहम = परमात्मा को जानने वाले। ब्रहमादिक = ब्रह्मा जैसे देवते। चतुर = चार। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। आगाधि = अथाह। भनु = कह, कहिए। नानक = हे नानक! परै पराति = परे से परे।2।

अर्थ: हे भाई! शिव जी के गुण, देवताओं के रागी, करामाती योगी, योग-साधना करने वाले, दैवी गुणों वाले मनुष्य, देवते, ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मा आदि बड़े देवतागण, चारों वेद (उस परमात्मा के गुणों को) दिन-रात उच्चारण करते हैं। फिर भी उस परमात्मा तक (अपनी अकल के जोर से) पहुँच नहीं सकते, वह अगम्य (पहुँच से परे) है वह अथाह है।

हे नानक! कह: परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, वह बेअंत है, उसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह परे से परे है।2।2।35।

देवगंधारी महला ५ ॥ धिआए गाए करनैहार ॥ भउ नाही सुख सहज अनंदा अनिक ओही रे एक समार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धिआए = ध्यान करता है। गाए = गाता है। करनैहार = विधाता कर्तार को। सहज = आत्मक अडोलता। अनिक = अनेक रूपों वाला। उही = वही, वह (परमात्मा) ही। रे = हे भाई! समार = संभाल, हृदय में संभाल के रख।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य विधाता परमात्मा का ध्यान धरता है कर्तार के गुण गाता है, उसे कोई डर छू नहीं सकता, उसे आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद मिले रहते हैं। हे भाई! तू उस कर्तार को अपने हृदय में संभाल के रख, वही एक है और वही अनेक रूपों वाला है।1। रहाउ।

सफल मूरति गुरु मेरै माथै ॥ जत कत पेखउ तत तत साथै ॥ चरन कमल मेरे प्रान अधार ॥१॥

पद्अर्थ: सफल मूरति = जिसके स्वरूप का दर्शन फल देता है। मेरै माथै = मेरे माथे पर। जत कत = जहाँ कहाँ। पेखउ = मैं देखता हूँ। तत तत = वहीं वहीं ही। प्रान अधार = प्राणों का आसरा।1।

अर्थ: हे भाई! जिस गुरु के दर्शन जीवन के फल देने वाले हैं वह मेरे माथे पर (अपना हाथ रखे हुए है, उसकी इनायत से) मैं जिधर देखता हूँ उधर ही परमात्मा मुझे अपने साथ बसता प्रतीत होता है, उस परमात्मा के सुंदर चरण मेरे प्राणों का आसरा बन गए हैं।1।

समरथ अथाह बडा प्रभु मेरा ॥ घट घट अंतरि साहिबु नेरा ॥ ता की सरनि आसर प्रभ नानक जा का अंतु न पारावार ॥२॥३॥३६॥

पद्अर्थ: समरथ = हरेक ताकत का मालिक। घट = शरीर। साहिबु = मालिक। ताकी = देखी है। आसर = आसरा। जा का = जिस (परमात्मा) का। परावार = पार अवार, इस पार उस पार का छोर।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मैंने उस परमात्मा की शरण देखी है उस प्रभु का आसरा चाहा है जिस (के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, जिस (के स्वरूप) का इस पार उस पार की थाह नहीं लगाई जा सकती।2।3।36।

देवगंधारी महला ५ ॥ उलटी रे मन उलटी रे ॥ साकत सिउ करि उलटी रे ॥ झूठै की रे झूठु परीति छुटकी रे मन छुटकी रे साकत संगि न छुटकी रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: उलटी = उलट ले, पलट ले। सिउ = से। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। रे = हे मन! छुटकी छुटकी = जरूर टूट जाती है। साकत संगि = साकत की संगति में। न छुटकी = विकारों की ओर से खलासी नहीं होती।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य परमात्मा के साथ सदा टूटे रहते हैं, उनसे अपने आप को सदा परे रख, दूर रख। हे मन! साकत झूठे मनुष्य की प्रीति को भी झूठ ही समझ, ये कभी तोड़ नहीं निभती, ये जरूर टूट जाती है। फिर, साकत की संगति में रहने से विकारों से कभी भी निजात नहीं मिल सकती।1। रहाउ।

जिउ काजर भरि मंदरु राखिओ जो पैसै कालूखी रे ॥ दूरहु ही ते भागि गइओ है जिसु गुर मिलि छुटकी त्रिकुटी रे ॥१॥

पद्अर्थ: काजर = काजल, कालख। भरि = भर के। मंदरु = घर। जो पैसै = जो मनुष्य (उसमें) पड़ेगा। कालूखी = कालख से भरा हुआ। गुर मिलि = गुरु को मिल के। जिसु त्रिकुटी = जिस मनुष्य की त्रिकुटी। त्रिकुटी = (त्रि = तीन, कुटी = टेड़ी लकीर) माथे की तीन टेड़ी लकीरें, त्रिकुटी, अंदरूनी गुस्सा जो माथे पर प्रकट होता है।1।

अर्थ: हे मन! जैसे कोई घर काजल से भर लिया जाए, उसमें जो भी मनुष्य प्रवेश करेगा वह कालिख से भर जाएगा (वैसे ही परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य से मुंह जोड़ने से विकारों की कालिख ही मिलेगी)। गुरु को मिल के जिस मनुष्य के माथे की त्रिकुटी मिट जाती है (जिसके अंदर से विकारों की कशिश दूर हो जाती है) वह दूर से ही साकत मनुष्य से परे परे रहता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh