श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 537 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु रागु बिहागड़ा चउपदे महला ५ घरु २ ॥ दूतन संगरीआ ॥ भुइअंगनि बसरीआ ॥ अनिक उपरीआ ॥१॥ पद्अर्थ: दूतन संगरीआ = कामादिक वैरियों की संगत। भुइअंग = भुजंग, साँप। बसरीआ = वास। अनिक = अनेक को। उपरीआ = उजाड़ा, तबाह किया है।1। अर्थ: हे भाई! कामादिक वैरियों की संगत साँपों के साथ निवास (के समान) है, (इन दूतों ने) अनेक (के जीवन) को तबाह किया है।1। तउ मै हरि हरि करीआ ॥ तउ सुख सहजरीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: तउ = तब। सुख सहजरीआ = आत्मिक अडोलता के सुख।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) तभी तो मैं सदा परमात्मा का नाम जपता हूँ (जब से नाम जप रहा हूँ) तब (से) मुझे आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद प्राप्त हें।1। रहाउ। मिथन मोहरीआ ॥ अन कउ मेरीआ ॥ विचि घूमन घिरीआ ॥२॥ पद्अर्थ: मिथन मोहरीआ = मिथ्या मोह, झूठा मोह। अन कउ = और (पदार्थों) को।2। अर्थ: हे भाई! जीव को झूठा मोह चिपका हुआ है (परमात्मा के बिना) अन्य पदार्थों को ‘मेरे मेरे’ समझता रहता है, (सारी उम्र) मोह के चक्रव्यूह में फंसा रहता है।2। सगल बटरीआ ॥ बिरख इक तरीआ ॥ बहु बंधहि परीआ ॥३॥ पद्अर्थ: बटरीआ = (वाट = रास्ता) बटोही, राही, मुसाफिर। इकतरीआ = एकत्र होए हुए। बंधहि = बंधनों में। परीआ = पड़े हुए।3। अर्थ: हे भाई! सारे जीव (यहाँ) राही ही हैं, (संसार-) वृक्ष के नीचे एकत्र होए हुए हैं, पर (माया के) बहुत सारे बंधनों में फंसे हुए हैं।3। थिरु साध सफरीआ ॥ जह कीरतनु हरीआ ॥ नानक सरनरीआ ॥४॥१॥ पद्अर्थ: सफरीआ = सफ़, सभा, संगत। जह = जहाँ।4। नोट: शीर्षक में शब्द ‘चउपदे’ (बहुवचन) लिखा है पर है एक ही चउपदा। अर्थ: हे भाई! सिर्फ गुरु की संगत ही सदा-स्थिर रहने वाला ठिकाना है क्योंकि वहाँ परमात्मा की महिमा होती रहती है। हे नानक! (कह: मैं साधु-संगत की) शरण आया हूँ।4।1। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बिहागड़ा महला ९ ॥ हरि की गति नहि कोऊ जानै ॥ जोगी जती तपी पचि हारे अरु बहु लोग सिआने ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मक अवस्था। कोऊ = कोई भी। पचि = दुखी हो के। हारे = थक गए हैं। अरु = और।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अनेक योगी, अनेक तपी, व अन्य बहुत सारे समझदार मनुष्य खप-खप के हार गए हैं, पर कोई भी मनुष्य यह नहीं जान सकता कि परमात्मा कैसा है।1। रहाउ। छिन महि राउ रंक कउ करई राउ रंक करि डारे ॥ रीते भरे भरे सखनावै यह ता को बिवहारे ॥१॥ पद्अर्थ: राउ = राजा। रंक कउ = कंगाल को। करई = करे, बना देता है। यह = ये। बिवहारे = व्यवहार, नित्य का कर्म।1। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा एक छिन में कंगाल को राजा बना देता है, और, राजे को कंगाल कर देता है, खाली बर्तनों को भर देता है और भरों को खाली कर देता है (गरीबों को अमीर और अमीरों को गरीब बना देता है) - यह उसका नित्य का काम है।1। अपनी माइआ आपि पसारी आपहि देखनहारा ॥ नाना रूपु धरे बहु रंगी सभ ते रहै निआरा ॥२॥ पद्अर्थ: पसारी = पसारी हुई। आपहि = खुद ही। देखनहारा = संभाल करने वाला। नाना = कई तरह के। धरे = बना लेता है, धार लेता है। बहु रंगी = अनेक रंगों का मालिक। ते = से। निआरा = अलग है।2। अर्थ: (हे भाई! दिखाई देते जगत-रूप तमाशे में) परमात्मा ने अपनी माया खुद बिखेरी हुई है, वह खुद ही इसकी संभाल कर रहा है। वह अनेक रंगों का मालिक प्रभु कई तरह के रूप धार लेता है, और सारे ही रूपों से अलग भी रहता है।2। अगनत अपारु अलख निरंजन जिह सभ जगु भरमाइओ ॥ सगल भरम तजि नानक प्राणी चरनि ताहि चितु लाइओ ॥३॥१॥२॥ पद्अर्थ: अगनत = जिसके गुण गिने ना जा सकें। अपारु = जिसका परला छोर ना मिल सके। अलख = जिसका स्वरूप समझ में ना आ सके। निरंजन = माया के प्रभाव से परे। जिह = जिस (हरि) ने। भरमाइओ = भटकना में डाल रखा है। ताहि चरनि = उसके चरणों में। लाइओ = लगाया है।3। अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा के गुण गिने नहीं जा सकते, वह बेअंत है, वह अदृष्य है, वह निर्लिप है, उस परमात्मा ने ही सारे जगत को (माया की) भटकना में डाला हुआ है। हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने उसके चरणों में चिक्त जोड़ा है, इस माया की सारी भटकनें त्याग के ही जोड़ा है।3।1।2। रागु बिहागड़ा छंत महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि हरि नामु धिआईऐ मेरी जिंदुड़ीए गुरमुखि नामु अमोले राम ॥ हरि रसि बीधा हरि मनु पिआरा मनु हरि रसि नामि झकोले राम ॥ गुरमति मनु ठहराईऐ मेरी जिंदुड़ीए अनत न काहू डोले राम ॥ मन चिंदिअड़ा फलु पाइआ हरि प्रभु गुण नानक बाणी बोले राम ॥१॥ पद्अर्थ: धिआईऐ = ध्याना चाहिए। जिंदुड़ीऐ = हे सुंदर जिंदे! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। अमोले = जो किसी मुल्य से ना मिल सके। रसि = रस में, आनंद में। बीधा = बेधा हुआ। नामि = नाम में। झकोले = डुबकी लगाता है। ठहराईऐ = टिकाना चाहिए। अनत = अन्यत्र, और तरफ। काहू अनत = किसी और तरफ। चिंदिअड़ा = चितवा, याद किया।1। अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! सदा परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए परमात्मा का अमोलक नाम गुरु के द्वारा ही मिलता है। जो मन परमात्मा के नाम रस में बेधा जाता है, वह मन परमात्मा को प्यारा लगता है, वह मन आनंद से प्रभु के नाम में डुबकी लगाए रखता है। हे मेरी सोहणी जिंदे! गुरु की मति पर चल के इस मन को (प्रभु चरणों में) टिकाना चाहिए (गुरु की मति की इनायत से मन) किसी और तरफ नहीं डोलता। हे नानक! जो मनुष्य (गुरमति पर चल के) प्रभु के गुणों वाली वाणी उच्चारता रहता है, वह मन-इच्छित फल पा लेता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |