श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 554

मः ५ ॥ घटि वसहि चरणारबिंद रसना जपै गुपाल ॥ नानक सो प्रभु सिमरीऐ तिसु देही कउ पालि ॥२॥

पद्अर्थ: घटि = हृदय में। चरणारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरविंद = कमल का फूल) कमल पुष्प समान पैर। रसना = जीभ। देही = शरीर।2।

अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य के) हृदय में प्रभु के चरण-कमल बसते हैं और जिहवा हरि को जपती है, और प्रभु (जिस शरीर के होने से) स्मरण किया जाता है उस शरीर की पालना करो।2।

पउड़ी ॥ आपे अठसठि तीरथ करता आपि करे इसनानु ॥ आपे संजमि वरतै स्वामी आपि जपाइहि नामु ॥ आपि दइआलु होइ भउ खंडनु आपि करै सभु दानु ॥ जिस नो गुरमुखि आपि बुझाए सो सद ही दरगहि पाए मानु ॥ जिस दी पैज रखै हरि सुआमी सो सचा हरि जानु ॥१४॥

पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ। संजमि = जुगति से। मानु = आदर। हरि जानु = हरि जन, प्रभु का सेवक भक्त। सचा = प्रभु (का रूप)।14।

अर्थ: प्रभु स्वयं ही अढ़सठ तीर्थों को करने वाला है, खुद ही (उन तीर्थों पर) स्नान करता है, मालिक स्वयं ही जुगति में बरतता है और खुद ही नाम जपाता है, भय दूर करने वाला प्रभु खुद ही दयालु होता है और खुद ही सब तरह के दान करता है, जिस मनुष्य को सतिगुरु के माध्यम से समझ बख्शता है, वह सदा ही दरगाह में आदर पाता है। जिसकी इज्जत खुद रखता है वह ईश्वर का प्यारा सेवक ईश्वर का ही रूप है।14।

सलोकु मः ३ ॥ नानक बिनु सतिगुर भेटे जगु अंधु है अंधे करम कमाइ ॥ सबदै सिउ चितु न लावई जितु सुखु वसै मनि आइ ॥ तामसि लगा सदा फिरै अहिनिसि जलतु बिहाइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ कहणा किछू न जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: बिनु भेटे = मिले बिना। तामसि = तमोगुणी भाव में। अहि = दिन। निसि = रात।1।

अर्थ: हे नानक! गुरु के मिले बिना संसार अंधा है और अंधे ही काम करता है, वह सतिगुरु के शब्द से मन नहीं जोड़ता जिस (शब्द में मन जोड़ने) से हृदय में सुख आ बसे। तमो गुण में मस्त हुआ सदा भटकता है और दिन-रात (तमोगुण में) जलते हुए (उसकी उम्र) गुजरती है।

(इस बारे में) कुछ नहीं कहा जा सकता, जो प्रभु को अच्छा लगता है, वही होता है।1।

मः ३ ॥ सतिगुरू फुरमाइआ कारी एह करेहु ॥ गुरू दुआरै होइ कै साहिबु समालेहु ॥ साहिबु सदा हजूरि है भरमै के छउड़ कटि कै अंतरि जोति धरेहु ॥ हरि का नामु अम्रितु है दारू एहु लाएहु ॥ सतिगुर का भाणा चिति रखहु संजमु सचा नेहु ॥ नानक ऐथै सुखै अंदरि रखसी अगै हरि सिउ केल करेहु ॥२॥

पद्अर्थ: कारी = काम। संमालेहु = याद करो। हजूरि = अंग संग। छउड़ = पर्दा, वह जाला जो आँखों के आगे आ के नजर बंद कर देता है। चिति = चिक्त में। संजमु = रहिणी। केल = आनंद, लाड।2।

अर्थ: सतिगुरु ने हुक्म दिया है (भ्रम का छउड़ पर्दा काटने के लिए) ये काम (भाव, इलाज) करो- गुरु के दर पर जा के (भाव, गुरु की चरणी लग के) मालिक को याद करो, मालिक सदा अंग-संग है (आँखों के आगे से) भ्रम के जाले उतार के हृदय में उसकी ज्योति को टिकाओ।

हरि का नाम अमर करने वाला है; ये दारू बरतो, सतिगुरु का भाणा (मानना) चिक्त में रखो और सच्चा प्यार (रूपी) रहन-सहन (जीवन-शैली) (धारण करो)। हे नानक! (यही दवा) यहाँ (संसार में) सुखी रखेगा और आगे (परलोक में भी) हरि के साथ मजे करोगे।2।

पउड़ी ॥ आपे भार अठारह बणसपति आपे ही फल लाए ॥ आपे माली आपि सभु सिंचै आपे ही मुहि पाए ॥ आपे करता आपे भुगता आपे देइ दिवाए ॥ आपे साहिबु आपे है राखा आपे रहिआ समाए ॥ जनु नानक वडिआई आखै हरि करते की जिस नो तिलु न तमाए ॥१५॥

पद्अर्थ: अठारह भार = (पुरातन विचार है कि हरेक किस्म के पौधे का एक-एक पक्ता तोड़ के इकट्ठा करें तो सारा तोल 18 भार बनता है। एक भार का मतलब पाँच मन कच्चा) सारी बनस्पति। सिंचे = पानी देता है। मुहि = मुह में। तमाए = तमा, लालच।15।

अर्थ: प्रभु खुद बनस्पति के अठारह भार है (भाव, सारी सृष्टि की बनस्पति खुद ही है), खुद ही उसे फल लगाता है, खुद ही माली है, खुद ही सिंचाई करता है और खुद ही (फल) खाता है, खुद ही करने वाला है, खुद ही भोगने वाला है, खुद ही देता है और खुद ही दिलवाता है, मालिक भी खुद है और रखवाला भी खुद है, खुद सब जगह व्यापक है।

हे नानक! (कोई विरला) सेवक उस प्रभु की महिमा करता है जिसको सारी सृष्टि का कर्ता-धर्ता (होते हुए भी) रक्ती मात्र भी कोई तमा नहीं है।15।

सलोक मः ३ ॥ माणसु भरिआ आणिआ माणसु भरिआ आइ ॥ जितु पीतै मति दूरि होइ बरलु पवै विचि आइ ॥ आपणा पराइआ न पछाणई खसमहु धके खाइ ॥ जितु पीतै खसमु विसरै दरगह मिलै सजाइ ॥ झूठा मदु मूलि न पीचई जे का पारि वसाइ ॥ नानक नदरी सचु मदु पाईऐ सतिगुरु मिलै जिसु आइ ॥ सदा साहिब कै रंगि रहै महली पावै थाउ ॥१॥

पद्अर्थ: माणसु = मनुष्य। आणिआ = लाया गया (भाव, पैदा हुआ)। आइ = आ के (भाव, जनम ले के)। भरिआ = लिबड़ा हुआ (शराब आदि बुरी लत में) फसा हुआ। वरलु = झलपना, होश गवा चुका। पीचई = पीना चाहिए। जे का = जहाँ तक। पारि वसाइ = बस चले।1।

अर्थ: जो मनुष्य (विकारों में) लिबड़ा हुआ (यहाँ संसार में) लाया गया, वह यहाँ आ के (और विकारों में ही) फंस जाता है (और शराब आदि कुकर्मों में पड़ता है), पर जिसके पीने से बुद्धि मारी जाती है (अनाब-शनाब) बकने का जोश आ चढ़ता है, अपने व पराए की पहचान नहीं रहती, मालिक की ओर से धक्के पड़ते हैं, जिसके पीने से (प्रभु) पति बिसर जाता है और दरगाह में सजा मिलती है, ऐसी चंदरी शराब जहाँ तक बस चले कभी नहीं पीनी चाहिए।

हे नानक! प्रभु की मेहर की नजर से ‘नाम’ रूपी नशा (उस मनुष्य को) मिलता है, जिसे गुरु आ के मिल जाए, वह मनुष्य सदा मालिक के (नाम के) रंग में रहता है और दरगाह में उसको जगह (भाव, इज्जत) मिलती है।1।

मः ३ ॥ इहु जगतु जीवतु मरै जा इस नो सोझी होइ ॥ जा तिन्हि सवालिआ तां सवि रहिआ जगाए तां सुधि होइ ॥ नानक नदरि करे जे आपणी सतिगुरु मेलै सोइ ॥ गुर प्रसादि जीवतु मरै ता फिरि मरणु न होइ ॥२॥

पद्अर्थ: तिन्हि = उस प्रभु ने। सवि रहिआ = सोया रहता है। सुधि = सूझ, समझ।2।

अर्थ: जब इस संसार को (भाव, संसारी जीवों को) समझ आती है तब ये जीवित ही मरता है (भाव, माया में विचरते हुए भी माया से उपराम रहता है;) (पर) सूझ तभी आती है जब प्रभु खुद जगाता है, जब तक उसने (माया में) सुला रखा है, तब तक सोया रहता है।

हे नानक! यदि प्रभु अपनी मेहर की नजर करे, तो वह खुद (संसार को) सतिगुरु मिलाता है, और सतिगुरु की कृपा से (संसार) जीवित रहते हुए ही मर जाता है, फिर दुबारा मरना नहीं होता (भाव, जनम-मरण से बच जाता है)।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh