श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 555 पउड़ी ॥ जिस दा कीता सभु किछु होवै तिस नो परवाह नाही किसै केरी ॥ हरि जीउ तेरा दिता सभु को खावै सभ मुहताजी कढै तेरी ॥ जि तुध नो सालाहे सु सभु किछु पावै जिस नो किरपा निरंजन केरी ॥ सोई साहु सचा वणजारा जिनि वखरु लदिआ हरि नामु धनु तेरी ॥ सभि तिसै नो सालाहिहु संतहु जिनि दूजे भाव की मारि विडारी ढेरी ॥१६॥ अर्थ: उस प्रभु को किसी की काण (डर) नहीं क्योकि सब कुछ होता ही उसका किया हुआ है; (बल्कि), हे हरि! सारी सृष्टि तेरी मुथाज है (क्योंकि) हरेक जीव तेरा ही दिया खाता है। हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी महिमा करता है, उसको सब कुछ प्राप्त होता है, क्योंकि उस पर माया-रहित प्रभु की कृपा होती है। हे हरि! जिसने तेरे नाम (रूपी) धन असबाब लादा है वही शाहूकार है और सही मायने में वणजारा व्यापारी है। हे संत जनो! जिस प्रभु ने माया के मोह का टीला (मन में से) गिरा के निकाल दिया है, तुम सभी उसी की महिमा करो।16। सलोक ॥ कबीरा मरता मरता जगु मुआ मरि भि न जानै कोइ ॥ ऐसी मरनी जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥१॥ नोट: कबीर जी के सलोकों में देखें सलोक नंबर 29। अर्थ: हे कबीर! मरता मरता (वैसे तो) सारा संसार ही मर रहा है, पर किसी ने भी (सच्चे) मरने की विधि नहीं सीखी। जो मनुष्य इस तरह की सच्ची मौत मरता है, उसे फिर मरना नहीं पड़ता।1। मः ३ ॥ किआ जाणा किव मरहगे कैसा मरणा होइ ॥ जे करि साहिबु मनहु न वीसरै ता सहिला मरणा होइ ॥ मरणै ते जगतु डरै जीविआ लोड़ै सभु कोइ ॥ गुर परसादी जीवतु मरै हुकमै बूझै सोइ ॥ नानक ऐसी मरनी जो मरै ता सद जीवणु होइ ॥२॥ अर्थ: मुझे तो ये पता नहीं कि (सच्चा) मरना क्या होता है और हमें कैसे मरना चाहिए। अगर मालिक मन से ना विसरे, तो मरना आसान हो जाता है (भाव, मनुष्य आराम से ही माया के प्रभाव से बच जाता है)। मरने से सारा संसार डरता है, हर कोई जीना चाहता है। गुरु की कृपा से जो मनुष्य जीवित ही मरता है, वह हरि की रजा को समझता है। हे नानक! इस तरह की मौत जो मरता है, (भाव, जो मनुष्य प्रभु की रजा में चलता है) उसे अटल जीवन मिल जाता है।2। पउड़ी ॥ जा आपि क्रिपालु होवै हरि सुआमी ता आपणां नाउ हरि आपि जपावै ॥ आपे सतिगुरु मेलि सुखु देवै आपणां सेवकु आपि हरि भावै ॥ आपणिआ सेवका की आपि पैज रखै आपणिआ भगता की पैरी पावै ॥ धरम राइ है हरि का कीआ हरि जन सेवक नेड़ि न आवै ॥ जो हरि का पिआरा सो सभना का पिआरा होर केती झखि झखि आवै जावै ॥१७॥ अर्थ: जब हरि स्वामी खुद मेहरबान होता है तो अपना नाम (जीवों से) आप जपाता है। अपना सेवक हरि को प्यारा लगता है, उसको खुद ही सतिगुरु मिल के सुख देता है। प्रभु अपने सेवकों की आप इज्जत रखता है, (संसार को) अपने भक्तों के चरणों में ला डालता है, (और तो और) धर्म राज जो प्रभु का ही बनाया हुआ है, प्रभु के सेवक के नजदीक नहीं आता। (बात यहाँ पे खत्म होती है कि) जो मनुष्य प्रभु का प्यारा है (भाव, उसे सब लोग प्यार करते हैं); (और बाकी) और बहुत सारी सृष्टि खप-खप के पैदा होती है मरती है।17। सलोक मः ३ ॥ रामु रामु करता सभु जगु फिरै रामु न पाइआ जाइ ॥ अगमु अगोचरु अति वडा अतुलु न तुलिआ जाइ ॥ कीमति किनै न पाईआ कितै न लइआ जाइ ॥ गुर कै सबदि भेदिआ इन बिधि वसिआ मनि आइ ॥ नानक आपि अमेउ है गुर किरपा ते रहिआ समाइ ॥ आपे मिलिआ मिलि रहिआ आपे मिलिआ आइ ॥१॥ पद्अर्थ: अगोचरु = अरुगो+चर; इन्द्रियों की पहुँच से परे। अतुल = अंदाजे से बाहर। कितै = किसी जगह से। भेदिआ = भेदा हुआ। इनबिधि = इस तरह। अमेउ = जो गिना ना जा सके। आपे = खुद ही।1। अर्थ: सारा संसार (मुँह से) ‘राम राम’ कहता फिरता है पर इस तरह ‘राम’ पाया नहीं जाता; क्योंकि वह अगम्य (पहुँच से परे) है इन्द्रियों की पहुँच से परे है, बहुत बड़ा है अतुल है और तोला नहीं जा सकता, कोई भी उसकी कीमत नहीं लगा सका (भाव, उसकी प्राप्ति का मूल्य किसी को नहीं पता) और किसी जगह से (मूल्य दे के) खरीदा भी नहीं जाता। (पर हाँ, एक तरीका है) अगर गुरु के शब्द से (मन) भेदित हो जाए तो इस तरह प्रभु मन में आ बसता है। हे नानक! प्रभु खुद तो गिनती से परे है, पर सतिगुरु की कृपा से (ये पता मिल जाता है कि वह सारी सृष्टि में) व्यापक है; प्रभु खुद ही हर जगह मिला हुआ है और (जीव के हृदय में) खुद ही आ के प्रगट होता है।1। मः ३ ॥ ए मन इहु धनु नामु है जितु सदा सदा सुखु होइ ॥ तोटा मूलि न आवई लाहा सद ही होइ ॥ खाधै खरचिऐ तोटि न आवई सदा सदा ओहु देइ ॥ सहसा मूलि न होवई हाणत कदे न होइ ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥२॥ पद्अर्थ: जितु = जिस से। तोटि = घटा। सहसा = संशय। हाणत = शर्मिंदगी।2। अर्थ: हे मन! जिस धन से सदा ही सुख होता है वह धन ‘नाम’ है, इस धन को बिल्कुल घाटा नहीं, सदा लाभ ही लाभ है, खाने से और खर्चने से भी घाटा नहीं पड़ता, (क्योंकि) वह प्रभु सदा ही (ये धन) दिए जाता है। (यहाँ) कभी (इस धन संबंधी) कोई चिन्ता नहीं होती और (आगे दरगाह में) शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ती। (पर) हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है, उसे सतिगुरु के सन्मुख होने से (ये धन) मिलता है।2। पउड़ी ॥ आपे सभ घट अंदरे आपे ही बाहरि ॥ आपे गुपतु वरतदा आपे ही जाहरि ॥ जुग छतीह गुबारु करि वरतिआ सुंनाहरि ॥ ओथै वेद पुरान न सासता आपे हरि नरहरि ॥ बैठा ताड़ी लाइ आपि सभ दू ही बाहरि ॥ आपणी मिति आपि जाणदा आपे ही गउहरु ॥१८॥ पद्अर्थ: घट = शरीर। गुपतु = छुपा हुआ। वरतदा = मौजूद है। जाहरि = प्रत्यक्ष, सामने। जुग छतीह = 36 युग, बेअंत समय। सुंनाहरि = शून्य अवस्था में। नरहरि = मनुष्यों का मालिक। मिति = माप, अंदाजा। आपणी मिति = अपने आप की पैमायश। गउहरु = गहरा समुंदर।18। अर्थ: प्रभु खुद ही सारे शरीरों में है और खुद ही सबसे अलग है, खुद ही (सब में) छुपा हुआ है और प्रत्यक्ष (दिखाई दे रहा है)। प्रभु खुद ही कई युग अंधेरा करके शून्य (अफुर) अवस्था में बरतता है; उस शून्य अवस्था के समय जीवों का मालिक प्रभु खुद ही खुद होता है; वेद पुरान शास्त्र आदि कोई भी धर्म पुस्तक तब नहीं होती। (जीवों को रच के) सब से अलग भी समाधि लगा के बैठा हुआ है (भाव, माया की रचना रच के भी इस माया के प्रभाव से स्वयं अलग व निर्लिप है)। प्रभु स्वयं ही (जैसे) गहरा समुंदर है, वह कितना बड़ा है; ये बात वह स्वयं ही जानता है।18। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |