श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 563 दइआल पुरख मेरे प्रभ दाते ॥ जिसहि जनावहु तिनहि तुम जाते ॥२॥ पद्अर्थ: दइआल = हे दया के घर! जिसहि = जिसको। जनावहु = तू समझ देता है। तिनहि = उसने ही। तुम जाते = तुझे जाना है, तेरे साथ सांझ डाली है।2। अर्थ: हे मेरे दाते प्रभु! हे दया के घर अकाल-पुरख! जिस मनुष्य को तू खुद समझ बख्शता है, उसी ने ही तेरे साथ सांझ डाली है।2। सदा सदा जाई बलिहारी ॥ इत उत देखउ ओट तुमारी ॥३॥ पद्अर्थ: जाई = मैं जाता हूँ। इत = इस लोक में। उत = परलोक में। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ।3। अर्थ: हे प्रभु! मैं सदा ही सदा ही तुझसे सदके जाता हूँ। इस लोक में व परलोक में मैं तेरा ही आसरा देखता हूँ।3। मोहि निरगुण गुणु किछू न जाता ॥ नानक साधू देखि मनु राता ॥४॥३॥ पद्अर्थ: मोहि = मैं। साधू = गुरु। देखि = देख के, दर्शन कर के। राता = रंगा गया है।4। अर्थ: हे प्रभु! मैं गुण हीन हूँ, मैं तेरे गुण (उपकार) कुछ भी नहीं था समझ सका। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) गुरु के दर्शन करके मेरा मन (तेरे प्रेम में) रंगा गया है।4।3। वडहंसु मः ५ ॥ अंतरजामी सो प्रभु पूरा ॥ दानु देइ साधू की धूरा ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरजामी = दिल की जानने वाला। दानु = बख्शीश। देइ = देता है। साधू = गुरु।1। अर्थ: हे भाई! वह प्रभु सबके दिल की जानने वाला है, सारे गुणों से भरपूर है, (जिस पर वह मेहर करता है उस को) गुरु के चरणों की धूल (बतौर) बख्शिश देता है।1। करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ तेरी ओट पूरन गोपाला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! ओट = आसरा। पूरन = हे सर्व व्यापक! गेपाला = हे सृष्टि के पालनहार!।1। रहाउ। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (मेरे पर) कृपा कर (मुझे गुरु के चरणों की धूल बख्श)। हे सर्व-व्यापक! हे सृष्टि-पालक! मुझे तेरा ही आसरा है।1। रहाउ। जलि थलि महीअलि रहिआ भरपूरे ॥ निकटि वसै नाही प्रभु दूरे ॥२॥ पद्अर्थ: जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। निकटि = नजदीक।2। नोट: ‘जिस नो’ में से शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! प्रभु पानी में, धरती में, आकाश में, हर जगह ज़र्रे-ज़र्रे में मौजूद है, वह (हरेक जीव के) नजदीक बसता है, किसी से दूर नहीं है।2। जिस नो नदरि करे सो धिआए ॥ आठ पहर हरि के गुण गाए ॥३॥ पद्अर्थ: गाए = गाता है।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर (वह) मेहर की निगाह करता है वह मनुष्य उसका स्मरण करता रहता है, वह मनुष्य आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता रहता है।3। जीअ जंत सगले प्रतिपारे ॥ सरनि परिओ नानक हरि दुआरे ॥४॥४॥ पद्अर्थ: जीअ = जीव। दुआरे = द्वार पे।4। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारे जीवों की पालना करता है। हे नानक! (उस प्रभु के आगे अरदास किया कर और कहा कर-) हे हरि! मैं तेरे दर पर आया हूँ, मैं तेरी शरण पड़ा हूँ (मुझे गुरु के चरणों की धूल बख्श)।4।4। वडहंसु महला ५ ॥ तू वड दाता अंतरजामी ॥ सभ महि रविआ पूरन प्रभ सुआमी ॥१॥ पद्अर्थ: दाता = बख्शिशें करने वाला। पूरन = सर्व व्यापक।1। अर्थ: हे मेरे स्वामी! हे सर्व-व्यापक प्रभु! तू सबसे बड़ा दाता है, तू (जीवों के) दिलों की जानने वाला है, तू सबके अंदर मौजूद है।1। मेरे प्रभ प्रीतम नामु अधारा ॥ हउ सुणि सुणि जीवा नामु तुमारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! अधारा = आसरा। हउ = मैं। सुणि = सुन के। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! तेरा नाम (मेरी जिंदगी का) आसरा है। तेरा नाम सुन सुन के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।1। रहाउ। तेरी सरणि सतिगुर मेरे पूरे ॥ मनु निरमलु होइ संता धूरे ॥२॥ पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरु! धूरे = चरण-धूल में।2। अर्थ: हे मेरे पूरे सतिगुरु! मैं तेरी शरण आया हूँ, तेरे संत-जनों के चरणों की धूल से मन पवित्र हो जाता है (और, परमात्मा का दर्शन होता है)।2। चरन कमल हिरदै उरि धारे ॥ तेरे दरसन कउ जाई बलिहारे ॥३॥ पद्अर्थ: उरि = हृदय में। जाई = मैं जाता हूँ। कउ = को से।3। अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे दर्शनों से कुर्बान जाता हूँ, तेरे सुंदर कोमल चरण मैंने अपने हृदय में टिकाए हुए हैं।3। करि किरपा तेरे गुण गावा ॥ नानक नामु जपत सुखु पावा ॥४॥५॥ पद्अर्थ: गावा = गाऊँ, गाऊँ। पावा = पाऊँ।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मेहर कर, मैं तेरे गुण गाता रहूँ, और तेरा नाम जपते हुए आत्मिक आनंद लेता रहूँ।4।5। वडहंसु महला ५ ॥ साधसंगि हरि अम्रितु पीजै ॥ ना जीउ मरै न कबहू छीजै ॥१॥ पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम जल। पीजै = पीजिए, पी सकते हैं। जीउ = जीवात्मा, जिंद। ना मरै = आत्मिक मौत नहीं मरती। न छीजै = आत्मिक जीवन में कमजोर नहीं होती।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल पीया जा सकता है, (इस नाम-जल की इनायत) जीवात्मा ना आत्मिक मौत मरती है, ना ही कभी आत्मि्क जीवन में कमजोर पड़ती है।1। वडभागी गुरु पूरा पाईऐ ॥ गुर किरपा ते प्रभू धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ते = से।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु बड़ी किस्मत से मिलता है, और गुरु की कृपा से परमात्मा का स्मरण किया जा सकता है।1। रहाउ। रतन जवाहर हरि माणक लाला ॥ सिमरि सिमरि प्रभ भए निहाला ॥२॥ पद्अर्थ: माणक = मोती। सिमरि = स्मरण करके। निहाला = प्रसन्न।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महिमा के वचन (मानो) रत्न हैं, जवाहर हैं, मोती हैं, लाल हैं। प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के सदा पुल्कित रहते हैं।2। जत कत पेखउ साधू सरणा ॥ हरि गुण गाइ निरमल मनु करणा ॥३॥ पद्अर्थ: जत कत = जिधर किधर। पेखउ = मैं देखता हूँ। साधू = गुरु। गाइ = गा के। निरमल = पवित्र।3। अर्थ: हे भाई! मैं जिधर-जिधर देखता हूँ, गुरु की शरण ही (एक ऐसी जगह है जहाँ) परमात्मा के गीत गा-गा के मन को पवित्र किया जा सकता है।3। घट घट अंतरि मेरा सुआमी वूठा ॥ नानक नामु पाइआ प्रभु तूठा ॥४॥६॥ पद्अर्थ: घट = शरीर। वूठा = बसता है। तूठा = प्रसन्न होता है।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) मेरा मालिक प्रभु (वैसे तो) हरेक शरीर में बसता है (पर, जिस मनुष्य पर वह) प्रभु प्रसन्न होता है (वही उसका) नाम (-स्मरण) प्राप्त करता है।4।6। वडहंसु महला ५ ॥ विसरु नाही प्रभ दीन दइआला ॥ तेरी सरणि पूरन किरपाला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: विसरु नाही = ना भूल। प्रभ = हे प्रभु! पूरन = हे सर्व व्यापक!।1। रहाउ। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! हे सर्व व्यापक! हे कृपा के घर! मैं तेरी शरण आया हूँ, (मेहर कर, मेरे हृदय से कभी) ना भूल।1। रहाउ। जह चिति आवहि सो थानु सुहावा ॥ जितु वेला विसरहि ता लागै हावा ॥१॥ पद्अर्थ: जह = जहाँ। चिति = चिक्त में। जह चिति = जिस चिक्त में। थानु = हृदय स्थल। जितु = जिस में। हावा = हाहूका।1। अर्थ: हे प्रभु! जिस हृदय में तू आ बसता है वह हृदय-स्थल सुंदर बन जाता है। जिस वक्त तू (मुझे) भूल जाता है तब (मुझे) हाय-हाय लगती है।1। तेरे जीअ तू सद ही साथी ॥ संसार सागर ते कढु दे हाथी ॥२॥ पद्अर्थ: जीअ = जीव। सद = सदा। ते = से, मे से। दे = दे के। हाथी = हाथ।2। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: (हे प्रभु! ये सारे) जीव तेरे (पैदा किए हुए हैं), तू (इन जीवों की) सदा ही मदद करने वाला है। (हे प्रभु! अपना) हाथ दे के (जीवों को) संसार समुंदर में से निकाल ले।2। आवणु जाणा तुम ही कीआ ॥ जिसु तू राखहि तिसु दूखु न थीआ ॥३॥ पद्अर्थ: आवणु जाणा = जनम मरन के चक्कर।3। अर्थ: (हे प्रभु! जीवों के लिए) जनम-मरन के चक्कर तेरे ही बनाए हुए हैं, जिस जीव को तू (इस चककर में से) बचा लेता है, उसको कोई दुख नहीं छू सकता।3। तू एको साहिबु अवरु न होरि ॥ बिनउ करै नानकु कर जोरि ॥४॥७॥ पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। एको = एक ही। होरि = अन्य, और। बिनउ = विनती। नानकु करै = नानक करता है (शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ का फर्क याद रखें)। कर = (दोनों) हाथ। जोरि = जोड़ के।4। नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है। अर्थ: हे प्रभु! तू ही एक मालिक है, और अनेक जीव (तेरे बनाए हुए हैं, इनमें से) कोई भी (तेरे जैसा) नहीं। नानक (तेरे आगे ही) हाथ जोड़ के विनती करता है।4।7। वडहंसु मः ५ ॥ तू जाणाइहि ता कोई जाणै ॥ तेरा दीआ नामु वखाणै ॥१॥ पद्अर्थ: जाणाइहि = तू जनाता है, तू सूझ देता है। जा = तब। जाणै = गहरी सांझ डालता है। वखाणै = उचारता है, स्मरण करता है।1। अर्थ: हे प्रभु! जब किसी मनुष्य को तू सूझ बख्शता है, तब ही कोई तेरे साथ गहरी सांझ डालता है, और तेरा बख्शा हुआ तेरे नाम को उच्चारता है।1। तू अचरजु कुदरति तेरी बिसमा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अचरजु = हैरान कर देने वाले स्वरूप वाला। कुदरति = रचना। बिसमा = हैरानगी पैदा करने वाली।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तू हैरान कर देने वाली हस्ती वाला है। तेरी रची रचना भी हैरानगी पैदा करने वाली है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |