श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 564 तुधु आपे कारणु आपे करणा ॥ हुकमे जमणु हुकमे मरणा ॥२॥ पद्अर्थ: आपे = आप ही। कारणु = सबब, रचना पैदा करने का ढंग। करणा = जगत। हुकमे = हुक्म में ही।2। अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही (जगत-रचना का) सबब (बनाने वाला) है, तू खुद ही जगत है (ये सारा जगत तेरा ही स्वरूप है)। तेरे हुक्म में ही (जीवों का) जनम होता है, तेरे हुक्म में ही मौत आती है।2। नामु तेरा मन तन आधारी ॥ नानक दासु बखसीस तुमारी ॥३॥८॥ पद्अर्थ: मन तन आधारी = मन का तन का आसरा। नानक = हे नानक!।3। अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम मेरे मन का मेरे शरीर का आसरा है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! अपना नाम दे) तेरा दास तेरी बख्शिश (की आशा लिए हुए है)।3।8। वडहंसु महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरै अंतरि लोचा मिलण की पिआरे हउ किउ पाई गुर पूरे ॥ जे सउ खेल खेलाईऐ बालकु रहि न सकै बिनु खीरे ॥ मेरै अंतरि भुख न उतरै अमाली जे सउ भोजन मै नीरे ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु पिरम का बिनु दरसन किउ मनु धीरे ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। लोचा = तमन्ना। हउ = मैं। किउ = कैसे? पाई = पाऊँ। सउ = सो बार। खीर = दूध। अंमाली = हे सखी! हे सहेली!। भोजन = खाना। मै = मेरे आगे। नीरे = परोसे जाएं। मनि = मन में। तनि = शरीर में, हृदय में। पिरंम का = प्यारे का। धीरे = शांति प्राप्त करे।1। अर्थ: हे प्यारे! मेरे मन में (गुरु को) मिलने की चाहत है। मैं किस तरह पूरे गुरु को ढूँढू? हे सहेली! यदि बालक को सौ खिलोनों से खिलाया जाए (उसका मनोरंजन किया जाए), तो भी वह दूध के बिना नहीं रह सकता। (वैसे ही) हे सखी! अगर मुझे सौ भोजन भी दिए जाएं, तो भी मेरे अंदर (बसती प्रभु-मिलाप की) भूख नहीं उतर सकती। हे सहेली! मेरे मन में मेरे हृदय में, प्यारे प्रभु का प्रेम बस रहा है। (उसके) दर्शनों के बिना मेरा मन शांति नहीं हासिल कर सकता।1। सुणि सजण मेरे प्रीतम भाई मै मेलिहु मित्रु सुखदाता ॥ ओहु जीअ की मेरी सभ बेदन जाणै नित सुणावै हरि कीआ बाता ॥ हउ इकु खिनु तिसु बिनु रहि न सका जिउ चात्रिकु जल कउ बिललाता ॥ हउ किआ गुण तेरे सारि समाली मै निरगुण कउ रखि लेता ॥२॥ पद्अर्थ: सजण = हे सज्जन! भाई = हे भ्राता! मैं = मुझे। ओह = वह मित्र गुरु। जीअ की = जीवात्मा की। बेदन = वेदना, पीड़ा, दुख। कीआ = की। तिसु बिनु = उस (परमात्मा) के बिना। चात्रिकु = पपीहा। कउ = के लिए, की खातिर। हउ = मैं। सारि = याद करके। समाली = सम्भालूँ, मैं हृदय में बसाऊँ।2। अर्थ: हे मेरे सज्जन! हे मेरे प्यारे भाई! (मेरी बिनती) सुन। मुझे आत्मिक आनंद देने वाला मित्र-गुरु मिला। वह (गुरु) मेरी जीवात्मा की सारी पीड़ा जानता है, और, मुझे परमात्मा की महिमा की बातें सुनाता है। (हे वीर!) मैं उस (परमात्मा) के बिना रक्ती भर समय के लिए भी नहीं रह सकता (उसके विछोड़े में मैं तड़पता हूँ) जैसे पपीहा बरखा की बूँद की खातिर बिलकता है। हे प्रभु! तेरे कौन कौन से गुण याद कर करके मैं अपने हृदय में बसाऊँ? तू मुझ गुण-हीन को (सदा) बचा लेता है।2। हउ भई उडीणी कंत कउ अमाली सो पिरु कदि नैणी देखा ॥ सभि रस भोगण विसरे बिनु पिर कितै न लेखा ॥ इहु कापड़ु तनि न सुखावई करि न सकउ हउ वेसा ॥ जिनी सखी लालु राविआ पिआरा तिन आगै हम आदेसा ॥३॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। उडीणी = उदास, उतावली। अंमाली = हे सखी! कदि = कब?। नैणी = आँखों से। देखा = देखूं, मैं देखूँगी। सभि = सारे। कितै न लेखै = किसी काम की नहीं। कापड़ु = कपड़ा। तनि = शरीर पर। न सुखावई = नहीं सुख देता, नहीं भाता। वेसा = पहरावे। आदेसा = नमस्कार, अरजोई।3। अर्थ: हे सखी! मैं प्रभु-पति को मिलने के लिए उतावली हो रही हूँ। मैं कब उस पति को अपनी आँखों से देखूँगी? प्रभु-पति के मिलाप के बिना मुझे सारे पदार्थों के भोग भूल चुके हैं, ये पदार्थ प्रभु-पति के बिना मेरे किसी काम के नहीं। हे सहेली! मुझे तो अपने शरीर पर ये कपड़ा भी नहीं भाता, तभी तो मैं पहरावा नहीं कर सकती। जिस सहेलियों ने प्यारे लाल को पसंद कर लिया है, मैं उनके आगे अरजोई करती हूँ (कि मुझे भी उसके चरणों में जोड़ दें)।3। मै सभि सीगार बणाइआ अमाली बिनु पिर कामि न आए ॥ जा सहि बात न पुछीआ अमाली ता बिरथा जोबनु सभु जाए ॥ धनु धनु ते सोहागणी अमाली जिन सहु रहिआ समाए ॥ हउ वारिआ तिन सोहागणी अमाली तिन के धोवा सद पाए ॥४॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। कामि = काम में। सहि = सहु ने, पति ने। बिरथा = व्यर्थ। जोबनु = जवानी। धनु धनु = भाग्यों वालियां। सहु = पति। वारिआ = कुर्बान। धोवा = मैं धोता हूँ। पाए = पैर।4। (‘सहि’ और ‘सहु’ में फर्क नोट करें) अर्थ: हे सहेली! अगर मैंने सारे श्रृंगार कर भी लिए, तो भी प्रभु-पति के मिलाप के बिना (ये श्रृंगार) कोई काम नहीं आते। हे सखी! अगर प्रभु-पति ने मेरी कोई बात ही ना पूछी (मेरी तरफ ध्यान ही ना दिया) तो मेरी तो सारी जवानी ही व्यर्थ चली जाएगी। हे सखी! वे सुहागनें बहुत भाग्यशाली हैं जिनके दिल में पति-प्रभु सदा टिका रहता है। हे सहेली! मैं उन सुहागनों से कुर्बान हूँ, मैं सदा उनके पैर धोती हूँ (धोने को तैयार हूँ)।4। जिचरु दूजा भरमु सा अमाली तिचरु मै जाणिआ प्रभु दूरे ॥ जा मिलिआ पूरा सतिगुरू अमाली ता आसा मनसा सभ पूरे ॥ मै सरब सुखा सुख पाइआ अमाली पिरु सरब रहिआ भरपूरे ॥ जन नानक हरि रंगु माणिआ अमाली गुर सतिगुर कै लगि पैरे ॥५॥१॥९॥ पद्अर्थ: भरमु = भुलेखा। सा = था। जा = जब। मनसा = मनीषा, चाहत, मन का फुरना। सरब = सब में। रंग = आनंद। कै पैरे = के चरणों में। लगि = लग के।5। अर्थ: हे सहेली! जब तक मुझे किसी और (के आसरे) का भुलेखा था, तब तक मैं प्रभु को (अपने से) दूर (-बसता) समझती रही। पर, हे सहेली! मुझे पूरा गुरु मिल गया, तो मेरी हरेक आशा हरेक तमन्ना पूरी हो गई (क्योंकि) हे सखी! मैंने सारे सुखों से श्रेष्ठ (प्रभु के मिलाप का) सुख पा लिया है, मुझे वह प्रभु पति सभी में बसता दिखाई दे गया। हे दास नानक! (कह:) हे सखी! गुरु के चरणों में लग के मैंने परमात्मा के मिलाप का आनंद प्राप्त कर लिया है।5।1।9। नोट: ये बड़ा जोड़ यहाँ नहीं दिया गया।
वडहंसु महला ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सची बाणी सचु धुनि सचु सबदु वीचारा ॥ अनदिनु सचु सलाहणा धनु धनु वडभाग हमारा ॥१॥ पद्अर्थ: सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। धुनि = ध्यनि, आवाज, लगन। अनदिनु = हर रोज, हर समय।1। अर्थ: हे भाई! मेरे भाग्य जाग पड़े हैं, (कि गुरु की शरण पड़ के) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी (मेरे हृदय में बस गई है), सदा स्थिर हरि-नाम (की) लगन (मेरे अंदर) चल पड़ी है, सदा-स्थिर हरि की महिमा वाला गुरु शब्द मेरे विचारों (का केन्द्र बन गया है), मैं हर वक्त सदा स्थिर प्रभु की महिमा करता हूं।1। मन मेरे साचे नाम विटहु बलि जाउ ॥ दासनि दासा होइ रहहि ता पावहि सचा नाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: विटहु = से। बलि जाउ = कुर्बान हो। पावहि = तू प्राप्त कर लेगा।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सदा कायम रहने वाले हरि-नाम से सदके जाया कर। पर ये सदा स्थिर रहने वाला हरि-नाम तू तभी हासिल कर सकेगा, अगर तू परमात्मा के सेवकों का सेवक बना रहेगा।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |