श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 578 सलोकु ॥ जो लोड़ीदे राम सेवक सेई कांढिआ ॥ नानक जाणे सति सांई संत न बाहरा ॥१॥ पद्अर्थ: लोड़ीदे राम = राम को अच्छे लगते हैं। सेई = वही (बहुवचन)। कांढिआ = कहलवाते हैं। जाणे = समझ। सति = सच। बाहरा = अलग।1। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा को प्यारे लगते हैं, वही (असल) सेवक कहलवाते हैं। (हे भाई!) सच जान, मालिक प्रभु संतों से अलग नहीं है।1। छंतु ॥ मिलि जलु जलहि खटाना राम ॥ संगि जोती जोति मिलाना राम ॥ समाइ पूरन पुरख करते आपि आपहि जाणीऐ ॥ तह सुंनि सहजि समाधि लागी एकु एकु वखाणीऐ ॥ आपि गुपता आपि मुकता आपि आपु वखाना ॥ नानक भ्रम भै गुण बिनासे मिलि जलु जलहि खटाना ॥४॥२॥ पद्अर्थ: छंतु। मिलि = मिल के। जलहि = जल में। खटाना = एक रूप हो जाता है। संगि = साथ। जोनी = परमात्मा। जोति = जीव की आत्मा। संमाइ = समा लिए हैं, मिला लिए हैं। करते = कर्तार ने। आपहि = आप ही। जाणीऐ = जाना जाता है। तह = वहाँ, उनके दिल में। सुंनि = विकारों से शून्य। सहजि = आत्मिक अडोलता में। वखाणीऐ = बखान किया जाता है, महिमा होती है। गुपता = छुपा हुआ। मुकता = माया के मोह से रहित। आपु = अपने आप को (शब्द ‘आपि’ व ‘आपु’ का फर्क देखें)। गुण = माया के तीन गुण।4। अर्थ: छंतु। (हे भाई! जैसे) पानी पानी में मिल के एक-रूप हो जाता है (वैसे ही सेवक की) आत्मा परमात्मा के साथ मिली रहती है। पूर्ण सर्व-व्यापक कर्तार ने जिस सेवक को अपने में लीन कर लिया, उसके अंदर ये समझ पैदा हो जाती है कि (हर जगह) परमात्मा खुद ही खुद है, उसका हृदय (विकारों से) शून्य हो जाता है, आत्मिक अडोलता में उसकी समाधि लगी रहती है, उसके हृदय में एक परमात्मा की ही महिमा होती रहती है। (उसको निश्चय बना रहता है कि) परमात्मा सारे संसार में खुद ही छुपा हुआ है, फिर भी वह खुद माया के मोह से रहित है (हर जगह व्यापक होने के कारण) वह खुद ही अपने आप को स्मरण कर रहा है। हे नानक! उस मनुष्य के अंदर से भ्रम-डर और माया के तीन गुण नाश हो जाते हैं, (वह ऐसे परमात्मा के साथ एक-रूप हुआ रहता है, जैसे) पानी पानी में मिल के एक-रूप हो जाता है।4।2। वडहंसु महला ५ ॥ प्रभ करण कारण समरथा राम ॥ रखु जगतु सगल दे हथा राम ॥ समरथ सरणा जोगु सुआमी क्रिपा निधि सुखदाता ॥ हंउ कुरबाणी दास तेरे जिनी एकु पछाता ॥ वरनु चिहनु न जाइ लखिआ कथन ते अकथा ॥ बिनवंति नानक सुणहु बिनती प्रभ करण कारण समरथा ॥१॥ पद्अर्थ: करण = सृष्टि। कारण = मूल। समरथा = सब ताकतों वाला। सगल = सारा। दे = दे के। सरणा जोगु = शरण आए की सहायता कर सकने वाला। निधि = खजाना। हंउ = मैं। जिनी = जिन्होंने। वरनु = वर्ण, रंग। चिहनु = चिन्ह, निशान। कथन ते = बयान से।1। अर्थ: हे जगत के मूल प्रभु! हे सब ताकतों के मालिक! (अपना) हाथ दे के सारे जगत की रक्षा कर। हे सब ताकतों के मालिक! हे शरण पड़े की सहायता कर सकने वाले मालिक! हे कृपा के खजाने! हे सुखदाते! मैं तेरे उन सेवकों से सदके जाता हूँ जिन्होंने तेरे साथ सांझ डाली है। हे प्रभु! तेरा कोई रंग तेरा कोई निशान बताया नहीं जा सकता, तेरा स्वरूप बयान से बाहर है। नानक विनती करता है: हे प्रभु! हे जगत के मूल हे सब ताकतों के मालिक! मेरी विनती सुन।1। एहि जीअ तेरे तू करता राम ॥ प्रभ दूख दरद भ्रम हरता राम ॥ भ्रम दूख दरद निवारि खिन महि रखि लेहु दीन दैआला ॥ मात पिता सुआमि सजणु सभु जगतु बाल गोपाला ॥ जो सरणि आवै गुण निधान पावै सो बहुड़ि जनमि न मरता ॥ बिनवंति नानक दासु तेरा सभि जीअ तेरे तू करता ॥२॥ पद्अर्थ: एहि = ये। जीअ = जीव। रहता = रहत करने वाला, बचाने वाला। निवारि = दूर करके। रखि लेहु = बचा लेता है। दीन दैआल = दीनों पर दया करने वाले! सुआमी = मालिक। गोपाला = हे गोपाल! निधान = खजाना। बहुड़ि = दुबारा। सभि = सारे।2। नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे प्रभु! (संसार के) ये सारे जीव तेरे हैं, तू इनको पैदा करने वाला है, तू सब जीवों को दुख-कष्ट-भ्रमों से बचाने वाला है। हे दीनों पर दया करने वाले! तू (सारे जीवों के) भ्रम-दुख-कष्ट एक छिन में दूर करके बचा लेता है। हे गोपाल! तू (सब जीवों का) माता-पिता, मालिक व सज्जन है, सारा जगत तेरा बच्चा है। हे प्रभु! जो जीव तेरी शरण आता है वह (तेरे दर से तेरे) गुणों के खजाने हासिल कर लेता है, वह दुबारा ना मरता है ना पैदा होता है। हे प्रभु! तेरा दास नानक विनती करता है: जगत के सारे जीव तेरे हैं, तू सबको पैदा करने वाला है।2। आठ पहर हरि धिआईऐ राम ॥ मन इछिअड़ा फलु पाईऐ राम ॥ मन इछ पाईऐ प्रभु धिआईऐ मिटहि जम के त्रासा ॥ गोबिदु गाइआ साध संगाइआ भई पूरन आसा ॥ तजि मानु मोहु विकार सगले प्रभू कै मनि भाईऐ ॥ बिनवंति नानक दिनसु रैणी सदा हरि हरि धिआईऐ ॥३॥ पद्अर्थ: धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। इछिअड़ा = चितवा हुआ। पाईऐ = पा लेते हैं। मन इछ = मन की कामना। मिटि हि = मिट जाते हैं। त्रासा = डर। साध संगाइआ = साधु-संगत में। तजि = त्याग के। सगले = सारे। मनि = मन में। भाईऐ = भा जाता है, प्यारा लगने लगता है। रैणी = रात।3। अर्थ: हे भाई! आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, (नाम-जपने की इनायत से प्रभु के दर से) मन चितवा हुआ फल प्राप्त कर लेते हैं। हे भाई परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, (स्मरण करने से) मनो-कामना हासिल कर ली जाती है, यमराज के सारे सहम भी समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में जा के गोबिंद की महिमा की, उसकी (हरेक) आशा पूरी हो गई। हे भाई! अहंकार, मोह, सारे विकार दूर करके परमात्मा के मन को भा जाना है। नानक विनती करता है: हे भाई! दिन-रात सदा परमात्मा का स्मरण करना चाहिए।3। दरि वाजहि अनहत वाजे राम ॥ घटि घटि हरि गोबिंदु गाजे राम ॥ गोविद गाजे सदा बिराजे अगम अगोचरु ऊचा ॥ गुण बेअंत किछु कहणु न जाई कोइ न सकै पहूचा ॥ आपि उपाए आपि प्रतिपाले जीअ जंत सभि साजे ॥ बिनवंति नानक सुखु नामि भगती दरि वजहि अनहद वाजे ॥४॥३॥ पद्अर्थ: दरि = दर में, हृदय में। वाजहि = बजते हैं। अनहद = एक रस, लगातार, हर वक्त। वाजे = प्रभु की महिमा के बाजे। घटि घटि = हरेक घट में। गाजे = गरजता (दिखता) है, प्रतयक्ष बसता दिखाई देता है। बिराजे = बसता। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके। न सकै पहूचा = पहुँच नहीं सकता। उपाए = पैदा करता है। सभि = सारे। नामि = नाम में (जुड़ने से)। वजहि = बजते हैं।4। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा की महिमा के बाजे सदा बजते हैं (जिस मनुष्य के दिल में महिमा का प्रभाव प्रबल रहता है) उसको परमात्मा हरेक शरीर में प्रत्यक्ष बसता दिखाई देता है। हे भाई! परमात्मा सदा हरेक शरीर में साफ तौर पर बस रहा है, पर (किसी चतुराई समझदारी के सहारे) उस तक पहुँच नहीं हो सकती, उस तक मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं है, वह सबसे ऊँचा है। हे भाई! परमात्मा में बेअंत गुण हैं, उसके स्वरूप के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, कोई मनुष्य उसके गुणों के आखिर तक नहीं पहुँच सकता। हे भाई! परमात्मा खुद सबको पैदा करता है, खुद ही पालना करता है, सारे जीव-जंतु उसके खुद के ही बनाए हुए हैं। नानक विनती करता है परमात्मा के नाम में जुड़ने से परमात्मा की भक्ति करने से आनंद प्राप्त होता है, हृदय में परमात्मा की महिमा के एक-रस, जैसे बाजे बज पड़ते हैं।4।3। रागु वडहंसु महला १ घरु ५ अलाहणीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ धंनु सिरंदा सचा पातिसाहु जिनि जगु धंधै लाइआ ॥ मुहलति पुनी पाई भरी जानीअड़ा घति चलाइआ ॥ जानी घति चलाइआ लिखिआ आइआ रुंने वीर सबाए ॥ कांइआ हंस थीआ वेछोड़ा जां दिन पुंने मेरी माए ॥ जेहा लिखिआ तेहा पाइआ जेहा पुरबि कमाइआ ॥ धंनु सिरंदा सचा पातिसाहु जिनि जगु धंधै लाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: धंनु = धन्यतायोग्य, साराहनीय। सिरंदा = पैदा करने वाला, विधाता। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। जिनि = जिस (बादशाह) ने। धंधै = (माया के) आहर में। मुहलति = मिला हुआ समय। पुनी = पुनी, पहुँच गई, पूरी हो गई। पाई = पन घड़ी की प्याली। इसके नीचे छेद होता है जिससे प्याली में पानी आता रहता है। पूरे एक घण्टे में प्याली पानी से भर के पानी में डूब जाती है। खाली करके प्याली फिर पानी पर रख दी जाती है, और इस तरह एक-एक घण्टे के समय पता चलता रहता है। जानीअड़ा = प्यारी साथी जीवात्मा। घति = पकड़ के। चलाइआ = आगे लगा लिया जाता है। वीर सबाए = सारे वीर, सारे सज्जन संबन्धि। हंस = जीवात्मा। पुंने = पुग गए, समाप्त हो गए। माए = हे माँ! पुरबि = मरने से पहले के समय में।1। अर्थ: जिस (प्रभु) ने जगत को माया के चक्कर में लगा रखा है वही विधाता पातशाह सलाहने-योग्य है। (क्योंकि वही) सदा कायम रहने वाला है। (जीव बिचारे की कोई बिसात नहीं) जब जीव को मिला हुआ समय समाप्त हो जाता है जब इसकी उम्र की प्याली भर जाती है तो (शरीर के) प्यारे साथी को पकड़ के आगे लगा लिया जाता है। (उम्र के खत्म होने पर) जब परमात्मा का लिखा हुक्म आता है, शरीर के प्यारे साथी जीवात्मा को पकड़ के आगे लगा लिया जाता है, और सारे सजजन-संबंधी रोते हैं। हे मेरी माँ! जब उम्र के दिन पूरे हो जाते हैं, तो शरीर और जीवात्मा का (सदा के लिए) विछोड़ा हो जाता है। (उस अंत समय से) पहले-पहले जो कर्म जीव ने कमाए होते हैं (उस उस के अनुसार) जैसे जैसे संस्कारों का लेख (उसके माथे पर) लिखा जाता है वैसा ही फल जीव पाता है। जिसने जगत को माया की आहर में लगा रखा है वही विधाता पातशाह सराहने-योग्य है वही सदा कायम रहने वाला है।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |