श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तुसी रोवहु रोवण आईहो झूठि मुठी संसारे ॥ हउ मुठड़ी धंधै धावणीआ पिरि छोडिअड़ी विधणकारे ॥ घरि घरि कंतु महेलीआ रूड़ै हेति पिआरे ॥ मै पिरु सचु सालाहणा हउ रहसिअड़ी नामि भतारे ॥७॥

पद्अर्थ: झूठि = झूठे मोह ने। मुठी = लूटा है। हउ = मैं। धावणीआ = माया की दौड़ भाग में। धंधै = माया के चक्कर में। पिरि = पिया ने, पति प्रभु ने। विधण = (वि+धणी) निखसमी। विधण कार = निखसमों वाली कार, पति प्रभु से टूट के किए जाने वाले काम। घरि घरि = हरेक हृदय में। महेलीआ जीव-स्त्रीयां। रुड़ै = सुंदर (प्रभु) के। हेति = प्रेम में। सहु = सदा स्थिर रहने वाला। हउ = मैं। रहसिअड़ी = खिली हुई, प्रसन्न। नामि = नाम में (जुड़ के)।7।

अर्थ: हे जीव-सि्त्रयो! जब तक संसार में तुम्हें माया के मोह ने ठगा हुआ है, तुम दुखी ही रहोगी, (यही समझा जाएगा कि) तुम दुखी होने के लिए ही जगत में आई हो।

जब तक मैं माया की आहर में माया की दौड़-भाग में ठगी जा रही हूँ, तब तक पति-विहीन स्त्री वाले कर्मों के कारण पति-प्रभु ने मुझे त्यागा हुआ है।

पति-प्रभु तो हरेक जीव-स्त्री के हृदय में बस रहा है। उसकी असल स्त्रीयां वही हैं जो उस सुंदर प्रभु के प्यार में प्रेम में मगन रहती हैं।

जितना समय मैं सदा स्थिर प्रभु-पति की महिमा करती हूँ उस पति के नाम में जुड़े रहने के कारण मेरा तन-मन खिला रहता है।7।

गुरि मिलिऐ वेसु पलटिआ सा धन सचु सीगारो ॥ आवहु मिलहु सहेलीहो सिमरहु सिरजणहारो ॥ बईअरि नामि सुोहागणी सचु सवारणहारो ॥ गावहु गीतु न बिरहड़ा नानक ब्रहम बीचारो ॥८॥३॥

पद्अर्थ: गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। वेसु = काया। सा धन = जीव-स्त्री। बईअरि = स्त्री। नामि = नाम में (जुड़ के)। बिरहड़ा = विछोड़ा। ब्रहम बीचारो = परमात्मा के गुणों का विचार।8।

नोट: ‘सुोहागणी’ में से अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ लगी हैं। असल शब्द ‘सोहागणी’ है यहाँ पढ़ना है ‘सुहागणी’।

अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो जीव-स्त्री की काया ही पलट जाती है, जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभु के नाम को अपना श्रृंगार बना लेती है।

हे सहेलियो! (हे सत्संगियो!) आओ, मिल के बैठें। मिल जुल के विधाता का स्मरण करो। जो जीव-स्त्री प्रभु के नाम में जुड़ती है वह सुहाग-भाग वाली हो जाती है, सदा स्थिर प्रभु उसके जीवन को खूबसूरत बना देता है। हे नानक! (कह: हे सहेलियो!) प्रभु-पति की महिमा के गीत गाओ, प्रभु के गुणों को अपने हृदय में बसाओ, फिर कभी उससे विछोड़ा नहीं होगा (दुनिया वाले विछोड़े तो एक अटल नियम है, ये तो होते ही रहने हैं)।8।3।

वडहंसु महला १ ॥ जिनि जगु सिरजि समाइआ सो साहिबु कुदरति जाणोवा ॥ सचड़ा दूरि न भालीऐ घटि घटि सबदु पछाणोवा ॥ सचु सबदु पछाणहु दूरि न जाणहु जिनि एह रचना राची ॥ नामु धिआए ता सुखु पाए बिनु नावै पिड़ काची ॥ जिनि थापी बिधि जाणै सोई किआ को कहै वखाणो ॥ जिनि जगु थापि वताइआ जालुो सो साहिबु परवाणो ॥१॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस परमात्मा ने। सिरजि = पैदा करके। समाइआ = (अपने आप में) लीन कर लिया। कुदरति जाणो = कुदरत में बसता जान (हे भाई!)। सचड़ा = सदा स्थिर रहने वाला। घटि घटि = हरेक घट में। सबदु पछाणो = (हे भाई!) उस परमात्मा का शब्द पहचान। सबदु = हुक्म। सचु = सदा स्थिर। सचु = सदा स्थिर। जिनि = जिस परमात्मा ने। राची = रची, बनाई। पिढ़ काची = पिढ़ की कच्ची, विकारों से मुकाबले में जीतने से असमर्थ। बिधि = तरीका। वखाणो = उपदेश। वताइआ = बिछाया। जालुो = (असल उच्चारण ‘जालु’ है यहाँ ‘जालो’ पढ़ना है)।1।

अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा ने जगत पैदा करके इसको अपने आप में लीन करने की ताकत भी अपने पास रखी है उस मालिक को इस कुदरति में बसता समझ। (हे भाई!) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को (रची कुदरत से) दूर (किसी और जगह) तलाशने का यत्न नहीं करना चाहिए। हरेक शरीर में उसी का हुक्म बरतता पहचान। (हे भाई!) जिस परमात्मा ने ये रचना रची है उसको इससे दूर (कहीं अलग) ना समझो, (हरेक शरीर में) उसका अटल हुक्म बरतता पहचानो।

जब मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है तब आत्मिक आनंद पाता है (और विकारों का जोर भी इस पर नहीं पड़ सकता, पर) प्रभु के नाम के बिना दुनिया विकारों से मुकाबला जीतने में असमर्थ हो जाती है।

जिस परमात्मा ने रचना रची है वही इसकी रक्षा की विधि भी जानता है, कोई जीव (उसके उलट) कोई (और) उपदेश नहीं कर सकता। जिस प्रभु ने जगत पैदा करके (इसके ऊपर माया के मोह का) जाल बिछा रखा है वही जाना-माना मालिक है (और वही इस जाल में से जीवों को बचाने के समर्थ है)।1।

बाबा आइआ है उठि चलणा अध पंधै है संसारोवा ॥ सिरि सिरि सचड़ै लिखिआ दुखु सुखु पुरबि वीचारोवा ॥ दुखु सुखु दीआ जेहा कीआ सो निबहै जीअ नाले ॥ जेहे करम कराए करता दूजी कार न भाले ॥ आपि निरालमु धंधै बाधी करि हुकमु छडावणहारो ॥ अजु कलि करदिआ कालु बिआपै दूजै भाइ विकारो ॥२॥

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! अध पंधै = आधे रास्ते पर, जनम मरण में। संसारो = संसार, जगत। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर। सचड़ै = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु ने। पूरबि विचारो = पूर्बले समय में किए कर्मों का विचार। जेहा कीआ = जैसा किसी ने कर्म किया। दूजी = कोई और। निरालमु = निर्लिप। बाधी = बँधी हुई। कालु विआपै = मौत आ दबाती है। भाइ = प्यार में। विकारो = विकार, व्यर्थ कर्म।2।

अर्थ: हे भाई! जो भी जीव (जगत में जन्म ले के) आया है उसने जरूर (यहाँ से) चले जाना है (जीव आया है यहाँ प्रभु का नाम-धन का व्यापार करने। नाम के बिना) जगत जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा ने हरेक जीव के सिर पर उसके पूर्बले समय के किए कर्मों के विचार अनुसार दुख और सुख (भोगने) के लेख लिख दिए हैं। जैसा कर्म जीव ने किया वैसा ही सुख और दुख उसको परमात्मा ने दे दिया है। हरेक जीव के किए कर्मों का समूह उसके साथ ही निभता है।

(पर जीवों के भी क्या वश?) ईश्वर स्वयं ही जैसे कर्म जीवों से करवाता है (वैसे ही कर्म जीव करते हैं) कोई भी जीव (प्रभु की मर्जी से बाहर जा के) कोई और कर्म नहीं कर सकता। परमात्मा खुद तो (कर्मों से) निर्लिप है, दुनिया (अपने-अपने किए कर्मों के मुताबिक माया के) आहर में बँधी हुई है। (माया के इन बंधनो से भी) परमात्मा खुद ही हुक्म करके छुड़वाने के समर्थ है। (जीव माया के प्रभाव में नाम-स्मरण से आलस करता रहता है) आज स्मरण करते हैं, सवेरे करेंगे (यही टाल-मटोल) करते मौत आ दबोचती है। (प्रभु को बिसार के) और ही मोह में फंसा हुआ व्यर्थ के काम करता रहता है।2।

जम मारग पंथु न सुझई उझड़ु अंध गुबारोवा ॥ ना जलु लेफ तुलाईआ ना भोजन परकारोवा ॥ भोजन भाउ न ठंढा पाणी ना कापड़ु सीगारो ॥ गलि संगलु सिरि मारे ऊभौ ना दीसै घर बारो ॥ इब के राहे जमनि नाही पछुताणे सिरि भारो ॥ बिनु साचे को बेली नाही साचा एहु बीचारो ॥३॥

पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। उझड़ु = उजाड़। अंध गुबारो = अंध गुबार, घोर अंधेरा। परकारो = किस्म, प्रकार। ना भोजन परकारो = ना किसी किस्म का भोजन। गलि = गले में। सिरि = सिर पर। ऊभौ = खड़ा हुआ। घर बार = घर घाट, कोई आसरा। इब के राहे = अब के बीजे हुए। जंमनि नाही = नहीं उगते।3।

अर्थ: (सारी उम्र माया की दौड़-भाग में रह के परमात्मा का नाम भुलाने के कारण आखिर मौत आने पर) जीव यम वाला रास्ता पकड़ता है (जो इसके लिए) उजाड़ ही उजाड़ है जहाँ इसे घोर अंधकार प्रतीत होता है, जीव को कुछ नहीं सूझता (कि इस बिपता में से कैसे निकलूँ)। (सारी उम्र दुनिया के पदार्थ एकत्र करता रहा, पर यम के राह पर पड़ के) ना पानी, ना लेफ, ना तुलाई, ना किसी किस्म का भोजन, ना ठंडा पानी, ना ही सुंदर कपड़ा (ये सारे पदार्थ मौत ने छीन लिए, दुनिया में ही धरे रह गए)।

जमराज जीव के गले में (माया के मोह का) संगल डाल के इसके सिर पर खड़ा चोटें मारता है, (इन चोटों से बचने के लिए) इसको कोई आसरा नहीं दिखाई देता। (जब जम की चोटें पड़ रही होती हैं) उस वक्त बीजे हुए (स्मरण सेवा आदि के बीज) उग नहीं सकते। तब पछताता है, किए पापों का भार सिर पर पड़ा है (जो उतर नहीं सकता)।

हे भाई! इस अटल सच्चाई को याद रखो कि सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के बिना और कोई साथी नहीं बनता।3।

बाबा रोवहि रवहि सु जाणीअहि मिलि रोवै गुण सारेवा ॥ रोवै माइआ मुठड़ी धंधड़ा रोवणहारेवा ॥ धंधा रोवै मैलु न धोवै सुपनंतरु संसारो ॥ जिउ बाजीगरु भरमै भूलै झूठि मुठी अहंकारो ॥ आपे मारगि पावणहारा आपे करम कमाए ॥ नामि रते गुरि पूरै राखे नानक सहजि सुभाए ॥४॥४॥

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! रोवहि = जो वैराग में आते हैं। रवहि = जो नाम स्मरण करते हैं। सु = वह लोग। जाणीअहि = आदर पाते हैं। मिलि = (साधु-संगत में) मिल बैठ के। रोवै = जो वैरागवान होता है। सारे = संभालता है। रोवै = दुखी होता है। मुठड़ी = लुटी हुई। सुपनंतरु = सुपन+अंतर, एक और सपना। मारगि = रास्ते पर। नामि = नाम में। गुरि = गुरु ने। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = श्रेष्ठ प्रेम में।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं और वैरागवान होते हैं वह (लोक-परलोक में) आदर पाते हैं। जो भी जीव साधु-संगत में मिल के प्रभु के गुण हृदय में बसाता है और वैरागवान होता है (वह आदर पाता है)।

पर जिस जीव-स्त्री को माया के मोह ने लूट लिया है वही दुखी होती है। (मोह में फसे हुए जीव सारी उम्र) धंधा ही पिटते हें और दुखी होते हैं।

जो जीव (सारी उम्र) माया का आहर करता ही दुखी रहता है, और कभी (अपने मन की) माया की मैल नहीं धोता, उसके वास्ते संसार (भाव, सारी ही उम्र) एक सपना ही बना रहा (भाव उसने यहाँ कमाया कुछ भी नहीं, जैसे मनुष्य सपने में दौड़-भाग तो करता है पर जाग आने पर उसके पल्ले कुछ भी नहीं रहता)। जैसे बाजीगर (तमाशा दिखाता है, देखने वाला दर्शक उसके तमाशे में खो जाता है, वैसे ही) झूठे मोह में ठगी हुई (खोई हुई) जीव-स्त्री भटकन में पड़ कर गलत रास्ते पड़ी रहती है, (झूठी माया का) मान करती है।

(पर, जीवों के भी कया वश?) परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) सही राह पर डालने वाला है, स्वयं ही (जीवों में व्याप के) कर्म कर रहा है।

हे नानक! जो लोग परमात्मा के नाम-रंग में रंगे रहते हैं, उन्हें पूरे गुरु ने (माया के मोह से) बचा लिया है, वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, वे प्रभु के प्रेम में जुड़े रहते हैं।4।4।

वडहंसु महला १ ॥ बाबा आइआ है उठि चलणा इहु जगु झूठु पसारोवा ॥ सचा घरु सचड़ै सेवीऐ सचु खरा सचिआरोवा ॥ कूड़ि लबि जां थाइ न पासी अगै लहै न ठाओ ॥ अंतरि आउ न बैसहु कहीऐ जिउ सुंञै घरि काओ ॥ जमणु मरणु वडा वेछोड़ा बिनसै जगु सबाए ॥ लबि धंधै माइआ जगतु भुलाइआ कालु खड़ा रूआए ॥१॥

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! झूठु = नाशवान। पसारो = खिलारा। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सचड़ै = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को। सचु = सदा स्थिर प्रभु। खरा = खालिस, असली, निर्मल। सचिआरो = सचिआर, (सच+आलय) सदा स्थिर प्रभु के प्रकाश के लिए योग्य। कूड़ि = माया के मोह में। लबि = लोभ में। थाइ न पासी = स्वीकार नहीं होता। थाइ = जगह में। ठाओ = जगह। काओ = कौआ। वडा विछोड़ा = परमात्मा से लंबा विछोड़ा। बिनसै = आत्मिक मौत मरता है। सबाए = सारे जीव। रूआए = रुलाता है।1।

अर्थ: हे भाई! (जगत में जो भी जीव जनम ले के) आया है उसने (आखिर यहाँ से) कूच कर जाना है (किसी ने यहाँ सदा बैठे नहीं रहना) ये जगत है ही नाशवान पसारा। यदि सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का स्मरण करें तो सदा-स्थिर रहने वाला ठिकाना मिल जाता है। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु को स्मरण करता है वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभु के प्रकाश के योग्य बन जाता है।

जो मनुष्य माया के मोह में अथवा माया के लालच में फसा रहता है वह परमात्मा की दरगाह में स्वीकार नहीं होता, उसको प्रभु की हजूरी में जगह नहीं मिलती। जैसे सूने घर में गए कौए को (किसी ने रोटी की गिराही आदि नहीं डालनी) (वैसे ही माया के मोह में फंसे जीव को प्रभु की हजूरी में) किसी ने ये नहीं कहना - आओ जी, अंदर आ जाओ बैठ जाओ। उस मनुष्य को जनम-मरन के चक्र भुगतने पड़ जाते हैं, उसको (इस चक्कर के कारण प्रभु-चरणों से) लंबा विछोड़ा हो जाता है। (माया के मोह में फंस के) जगत आत्मिक मौत सहेड़ रहा है (जो भी मोह में फंसते हैं वे) सारे (आत्मिक मौत मरते हैं)। लालच के कारण माया के ही आहर में पड़ा हुआ जगत सही जीवन-राह से टूटा रहता है। इस सिर पर खड़ा काल इसे दुखी करता रहता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh