श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मरणु मुणसा सूरिआ हकु है जो होइ मरनि परवाणो ॥ सूरे सेई आगै आखीअहि दरगह पावहि साची माणो ॥ दरगह माणु पावहि पति सिउ जावहि आगै दूखु न लागै ॥ करि एकु धिआवहि तां फलु पावहि जितु सेविऐ भउ भागै ॥ ऊचा नही कहणा मन महि रहणा आपे जाणै जाणो ॥ मरणु मुणसां सूरिआ हकु है जो होइ मरहि परवाणो ॥३॥

पद्अर्थ: हकु = बर हक, स्वीकार। जो = जो। सूरे = शूरवीर। माणो = इज्जत। पति = इज्जत। करि = कर के, मान के। ऊचा = अहंकार भरी बात। जाणो = जानने वाला प्रभु।3।

अर्थ: जो मनुष्य (जीते जी ही प्रभु की नजरों में) स्वीकार हो के मरते हैं वे शूरवीर हैं उनका मरना भी (लोक-परलोक में) सराहा जाता है। प्रभु की हजूरी में वही बंदे सूरमे कहे जाते हैं, वही बंदे सदा स्थिर प्रभु की दरगाह में आदर पाते हैं। वे दरगाह में सम्मान पाते हैं, सम्मान से (यहाँ से) जाते हैं और आगे परलोक में उन्हें कोई दुख नहीं व्यप्तता। वे लोग परमात्मा को (हर जगह) व्यापक समझ के स्मरण करते हैं, उस प्रभु के दर से फल प्राप्त करते हैं जिसका स्मरण करने से (हरेक किस्म का) डर दूर हो जाता है।

(हे भाई!) अहंकार के बोल नहीं बोलने चाहिए, अपने आप को काबू में रखना चाहिए, वह अंतरजामी प्रभु हरेक के दिल की खुद ही जानता है।

जो मनुष्य (जीते जी ही प्रभु की नजरों में) स्वीकार हो के मरते हैं वे शूरवीर है, उनका मरना (लोक-परलोक में) सराहा जाता है।3।

नानक किस नो बाबा रोईऐ बाजी है इहु संसारो ॥ कीता वेखै साहिबु आपणा कुदरति करे बीचारो ॥ कुदरति बीचारे धारण धारे जिनि कीआ सो जाणै ॥ आपे वेखै आपे बूझै आपे हुकमु पछाणै ॥ जिनि किछु कीआ सोई जाणै ता का रूपु अपारो ॥ नानक किस नो बाबा रोईऐ बाजी है इहु संसारो ॥४॥२॥

पद्अर्थ: बाजी = खेल। वेखै = संभाल करता है। कुदरति = रची हुई सृष्टि। धारण धारे = आसरा देता है।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भाई! ये जगत एक खेल है (खेल बनती-बिगड़ती ही रहती है) किसी के मरने पर रोना व्यर्थ है। मालिक प्रभु अपने पैदा किए जगत की स्वयं ही संभाल करता है, अपनी रची हुई रचना का खुद ही ध्यान रखता है। प्रभु अपनी रची रचना का ख्याल रखता है, इसको आसरा सहारा देता है, जिसने जगत रचा है वही इसकी जरूरतें भी जानता है। प्रभु स्वयं ही सबके किए कर्मों को देखता है, खुद ही सबके दिलों की समझता है, खुद ही अपने हुक्म को पहचानता है (कि कैसे ये हुक्म जगत में बरता जाना है)।

जिस प्रभु ने ये जगत-रचना की हुई है वही इसकी जरूरतें (भी) जानता है। उस प्रभु का स्वरूप बेअंत है।

हे नानक! (कह:) हे भाई! ये जगत एक खेल है (यहाँ जो घड़ा गया है उसने टूटना भी है) किसी के मरने पर रोना व्यर्थ है।4।2।

वडहंसु महला १ दखणी ॥ सचु सिरंदा सचा जाणीऐ सचड़ा परवदगारो ॥ जिनि आपीनै आपु साजिआ सचड़ा अलख अपारो ॥ दुइ पुड़ जोड़ि विछोड़िअनु गुर बिनु घोरु अंधारो ॥ सूरजु चंदु सिरजिअनु अहिनिसि चलतु वीचारो ॥१॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सिरंदा = विधाता, पैदा करने वाला। सचा = सदा स्थिर। परवदगारो = पालनहार। जिनि = जिस (विधाता) ने। आपीनै = (आप ही ने) खुद ही। आपु = अपने आप को। अलख = अदृष्ट। दुइ पुड़ = दोनों पुड़ (धरती और आकाश)। विछोड़िअनु = उसने विछोड़ दिए हैं, उसने अलग-अलग कर दिए हैं। घोरु अंधारे = घोर अंधेरा। सिरजिअनु = उसने पैदा किए हैं। अहि = दिन। निसि = रात। चलतु = (जगत) तमाशा।1।

अर्थ: (हे भाई!) निष्चय करो कि जगत को पैदा करने वाला परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, वह सदा स्थिर प्रभु (जीवों की) पालना करने वाला है, जिस सदा स्थिर ने खुद ही अपने आप को (जगत के रूप में) प्रकट किया हुआ है, वह अदृश्य है और बेअंत है।

(धरती और आकाश जगत के) दोनों पुड़ जोड़ के (भाव, जगत रचना करके) उस प्रभु ने जीवों को माया के मोह में फसा के अपने से विछोड़ दिया है (भाव, ये प्रभु की रजा है कि जीव मोह में फंस के प्रभु को भुला बैठे हैं)। गुरु के बिना (जगत में माया के मोह का) घोर अंधेरा है।

उस परमात्मा ने ही सूरज और चंद्रमा बनाए हैं, (सूर्य) दिन के समय (चंद्रमा) रात को (प्रकाश देता है)। (हे भाई!) याद रख कि प्रभु का बनाया हुआ ये जगत तमाशा है।1।

सचड़ा साहिबु सचु तू सचड़ा देहि पिआरो ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: देहि = तू देता है। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तू सदा ही स्थिर रहने वाला मालिक है। तू खुद ही सब जीवों को सदा स्थिर रहने वाले प्यार की दाति देता है। रहाउ।

तुधु सिरजी मेदनी दुखु सुखु देवणहारो ॥ नारी पुरख सिरजिऐ बिखु माइआ मोहु पिआरो ॥ खाणी बाणी तेरीआ देहि जीआ आधारो ॥ कुदरति तखतु रचाइआ सचि निबेड़णहारो ॥२॥

पद्अर्थ: सिरजी = पैदा की। मेदनी = धरती। सिरजिऐ = पैदा करने से। बिखु = जहर। खाणी = उत्पक्ति के चारों वसीले (अण्डज, जेरज, सेतज, उत्भुज)। बाणी = जीवों की बोलियां। जीआ = जीवों को। आधारो = आसरा। सचि = सदा स्थिर नाम में (जोड़ के)। निबेडणहारो = फैसला करने वाला, लेखा समाप्त करने वाला।2।

अर्थ: हे प्रभु! तूने ही सृष्टि पैदा की है (जीवों को) दुख और सुख देने वाला भी तू ही है। (जगत में) स्त्रीयां और मर्द भी तूने ही पैदा किए है, माया जहर का मोह और प्यार भी तूने ही बनाए हैं। जीव उत्पक्ति की चार खाणियां और जीवों की बोलियां भी तेरी ही रची हुई हैं। सब जीवों को तू ही आसरा देता है। हे प्रभु! ये सारी रचना (-रूप) तख़त तूने (अपने बैठने के लिए) बनाया है, अपने सदा स्थिर नाम में (जोड़ के जीवों के कर्मों के लेख भी) तू खुद ही खत्म करने वाला है।2।

आवा गवणु सिरजिआ तू थिरु करणैहारो ॥ जमणु मरणा आइ गइआ बधिकु जीउ बिकारो ॥ भूडड़ै नामु विसारिआ बूडड़ै किआ तिसु चारो ॥ गुण छोडि बिखु लदिआ अवगुण का वणजारो ॥३॥

पद्अर्थ: आवागवणु = जनम मरन का चक्र। थिरु = सदा कायम रहने वाला। आइ गइआ = पैदा हुआ और मर गया। बधिकु = बँधा हुआ। जीउ = जीवात्मा। भूडड़ै = बुरे ने। बूडड़ै = डूबे हुए ने। चारे = चारा, जोर। वणजारो = व्यापारी।3।

अर्थ: हे करणहार कर्तार! (जीवों के लिए) जनम-मरण का चक्कर तूने ही पैदा किया है, पर तू खुद सदा कायम रहने वाला है (तुझे ये चक्कर व्याप नहीं सकता)। (माया के मोह के कारण) विकारों में बँधा हुआ जीव नित्य पैदा होता है और मरता है, इसे जनम-मरण का चक्कर पड़ा ही रहता है। (माया के मोह में फंसे) बुरे जीव ने (तेरा) नाम भुला दिया है, मोह में डूबे हुए की कोई पेश नहीं चलती। गुणों को छोड़ के (विकारों का) जहर इस जीव ने एकत्र कर लिया है (जगत में आ के सारी उम्र) अवगुणों का ही बणज करता रहता है।3।

सदड़े आए तिना जानीआ हुकमि सचे करतारो ॥ नारी पुरख विछुंनिआ विछुड़िआ मेलणहारो ॥ रूपु न जाणै सोहणीऐ हुकमि बधी सिरि कारो ॥ बालक बिरधि न जाणनी तोड़नि हेतु पिआरो ॥४॥

पद्अर्थ: जानीआ = (शरीर के साथी) जीवात्मा को। हुकमि = हुक्म अनुसार। सोहणीऐ = सुंदरी का। सिरि = सिर पे।4।

अर्थ: जब सदा स्थिर रहने वाले कर्तार के हुक्म में उन प्यारों को (यहाँ से कूच करने के) बुलावे आते हैं (जो यहाँ इकट्ठे जीवन निर्बाह कर रहे होते हैं) तो (एक साथ रहने वाले) स्त्री-मर्दों के विछोड़े हो जाते हैं (इस विछोड़े को कोई मिटा नहीं सकता)। विछुड़ों को तो परमात्मा खुद ही मिलाने में समर्थ है। यमराज के सिर पर भी परमात्मा के हुक्म में ही (मौत के माध्यम से जीवों के विछोड़े करने की) जिंमेदारी सौंपी गई है, कोई यम किसी सुंदरी के रूप की परवाह नहीं कर सकता (कि इस सुंदरी की मौत ना लाऊँ)। यम बच्चों और बुढों की भी परवाह नहीं करते। सब का (आपस में) मोह प्यार तोड़ देते हैं।4।

नउ दर ठाके हुकमि सचै हंसु गइआ गैणारे ॥ सा धन छुटी मुठी झूठि विधणीआ मिरतकड़ा अंङनड़े बारे ॥ सुरति मुई मरु माईए महल रुंनी दर बारे ॥ रोवहु कंत महेलीहो सचे के गुण सारे ॥५॥

पद्अर्थ: नउ दर = नौ दरवाजे, नौ गोलकें (मुंह, 2 कान, 2 नासिकाएं, 2 आँखें, गुदा, लिंग)। ठाके = बंद किए गए। हंसु = जीवात्मा। गैणारे = आकाश में। सा धन = स्त्री, काया (जीवात्मा की स्त्री)। छूटी = अकेली रह गई। विधणीआ = (वि+धणी) निखसमी, बगैर पति के। मिरतकड़ा = लाश। अंञनड़े = आंगन में। माईए = हे माँ! मरु = मौत। महल = स्त्री। दरबारे = दहलीजों में। सारे = सारि, संभाल के याद करके।5।

अर्थ: जब सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के हुक्म में (मौत का बुलावा आता है तो शरीर के) नौ दरवाजे बंद हो जाते हैं, जीवात्मा (कहीं) आकाश में चली जाती है। (जिस स्त्री का पति मर जाता है) वह स्त्री अकेली रह जाती है, वह माया के मोह में लुट चुकी होती है, वह विधवा हो जाती है (उसके पति की) लाश घर के आंगन में पड़ी होती है (जिसे देख-देख के) वह स्त्री दहलीजों में बैठी रोती है (और कहती है:) हे माँ! इस मौत (को देख के) मेरी अक्ल ठिकाने नहीं रह गई।

हे प्रभु-पति की सि्त्रयो! (हे जीव-सि्त्रयो! शरीर के विछोड़े का ये सिलसिला बना ही रहना है, किसी ने भी यहाँ सदा बैठे नहीं रहना) तुम सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा हृदय में संभाल के (प्रभु-कंत को याद करके) वैराग अवस्था में आओ (तब ही जीवन सफल होगा)।5।

जलि मलि जानी नावालिआ कपड़ि पटि अ्मबारे ॥ वाजे वजे सची बाणीआ पंच मुए मनु मारे ॥ जानी विछुंनड़े मेरा मरणु भइआ ध्रिगु जीवणु संसारे ॥ जीवतु मरै सु जाणीऐ पिर सचड़ै हेति पिआरे ॥६॥

पद्अर्थ: जलि = पानी में। मलि = मल के। जानी = प्यारे संबन्धियों ने। पटि = रेशम से। अंबारे = अंबरि, कपड़े से। सची बाणी = सदा स्थिर रहने वाली वाणी, ‘राम नाम सति है’। वाजे वजे = बोल बोले जाने लग पड़े। पंच = (माता पिता भाई स्त्री पुत्र) संबंधि। मुए = चिन्ता में मरे जैसे हो गए। मनु मारे = मन मारि, मन मार के, गम खा के।6।

अर्थ: साक-संबंधी (मरे हुए प्राणी की लाश को) मल-मल के स्नान करवाते हैं, और रेशम (आदि) कपड़े से (लपेटते हैं)। (उसे शमशान में ले जाने के लिए) ‘राम नाम सत्य है’ के बोल शुरू हो जाते हैं (माता, पिता भाई, पुत्र, स्त्री आदि) निकटवर्ती दुख में मृतक समान हो जाते हैं। (उसकी स्त्री रोती है और कहती है:) साथी के मरने से मैं भी मरे जैसी हो गई हूँ, अब संसार में मेरे जीने को भी धिक्कार है।

(पर ये मोह तो अवश्य ही दुखदाई है, ये शारीरिक विछोड़े तो होने ही हैं, हाँ) जो जीव, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के प्यार में प्रेम में टिक के जगत में कार्य-व्यवहार करते हुए ही मोह से मरता (मुक्त रहता) है, वह (परमात्मा की हजूरी में) आदर पाता है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh