श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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महला १ ॥ जालउ ऐसी रीति जितु मै पिआरा वीसरै ॥ नानक साई भली परीति जितु साहिब सेती पति रहै ॥२॥

पद्अर्थ: जालउ = मैं जला दूँ। मैं = मुझे। जितु = जिससे।2।

अर्थ: मैं ऐसी रीति को जला डालूँ जिसके कारण प्यारा प्रभु मुझे बिसर जाए, हे नानक! प्रेम वह ही अच्छा है जिससे पति से इज्जत बनी रहे।2।

पउड़ी ॥ हरि इको दाता सेवीऐ हरि इकु धिआईऐ ॥ हरि इको दाता मंगीऐ मन चिंदिआ पाईऐ ॥ जे दूजे पासहु मंगीऐ ता लाज मराईऐ ॥ जिनि सेविआ तिनि फलु पाइआ तिसु जन की सभ भुख गवाईऐ ॥

पद्अर्थ: भुख = तृष्णा।

अर्थ: एक ही दातार कर्तार की सेवा करनी चाहिए, एक परमात्मा को ही स्मरणा चाहिए, एक हरि से ही दान माँगना चाहिए, जिस के पास से मन-मांगी मुराद मिल जाए; अगर किसी और से मांगें तो ये शर्म से मर जाएं (भाव, किसी और से माँगने से बेहतर है शर्म से मर जाएं)। जिस भी मनुष्य ने हरि की सेवा की है उसने फल पा लिया है, उस मनुष्य की सारी तृष्णा मिट गई है।

नानकु तिन विटहु वारिआ जिन अनदिनु हिरदै हरि नामु धिआईऐ ॥१०॥

अर्थ: नानक कुर्बान जाता है उन मनुष्यों से, जो हर वक्त हृदय में हरि का नाम स्मरण करते हैं।10।

सलोकु मः ३ ॥ भगत जना कंउ आपि तुठा मेरा पिआरा आपे लइअनु जन लाइ ॥ पातिसाही भगत जना कउ दितीअनु सिरि छतु सचा हरि बणाइ ॥ सदा सुखीए निरमले सतिगुर की कार कमाइ ॥

पद्अर्थ: लइअनु = लगा लिए हैं उसने। दितीअनु = दी है उसने। (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण)।

अर्थ: प्यारा प्रभु अपने भक्तों पर खुद प्रसन्न होता है और खुद ही उसने उनको अपने साथ जोड़ लिया है, भक्तों के सिर पर सच्चा छत्र झुला के उसने भक्तों को बादशाहियत् बख्शी है; सतिगुरु की बताई हुई सेवा कमा के वे सदा सुखी तथा पवित्र रहते हैं।

राजे ओइ न आखीअहि भिड़ि मरहि फिरि जूनी पाहि ॥ नानक विणु नावै नकीं वढीं फिरहि सोभा मूलि न पाहि ॥१॥

अर्थ: राजे उनको नहीं कहते जो आपस में लड़ मरते हैं और फिर जूनियों में पड़ जाते हैं, (क्योंकि) हे नानक! नाम से वंचित राजे भी नाक कटाए फिरते हैं और कभी शोभा नहीं पाते।1।

मः ३ ॥ सुणि सिखिऐ सादु न आइओ जिचरु गुरमुखि सबदि न लागै ॥ सतिगुरि सेविऐ नामु मनि वसै विचहु भ्रमु भउ भागै ॥

अर्थ: जब तक सतिगुरु के सन्मुख हो के मनुष्य सतिगुरु के शब्द में नहीं जुड़ता तब तक सतिगुरु की शिक्षा निरी सुन के स्वाद नहीं आता, सतिगुरु की बताई हुई सेवा करके ही नाम मन में बसता है और अंदर से भ्रम और डर दूर हो जाता है।

जेहा सतिगुर नो जाणै तेहो होवै ता सचि नामि लिव लागै ॥ नानक नामि मिलै वडिआई हरि दरि सोहनि आगै ॥२॥

अर्थ: जब मनुष्य जैसा अपने सतिगुरु को समझता है, वैसा ही खुद बन जाए (भाव, जब अपने सतिगुरु वाले गुण धारण करे) तब उसकी तवज्जो सच्चे नाम में जुड़ती है; हे नानक! (ऐसे जीवों को) नाम के कारण यहाँ आदर मिलता है और आगे हरि की दरगाह में वे शोभा पाते हैं।2।

पउड़ी ॥ गुरसिखां मनि हरि प्रीति है गुरु पूजण आवहि ॥ हरि नामु वणंजहि रंग सिउ लाहा हरि नामु लै जावहि ॥

अर्थ: गुरसिखों के मन में हरि के प्रति प्यार होता है और (उस प्यार के सदका वे) अपने सतिगुरु की सेवा करते आते हैं; (सतिगुरु के पास आ के) प्यार से हरि-नाम का व्यापार करते हैं और हरि नाम का लाभ कमा के ले जाते हैं।

गुरसिखा के मुख उजले हरि दरगह भावहि ॥

अर्थ: अर्थ- (ऐसे) गुरसिखों के मुँह उज्जवल होते हैं और हरि की दरगाह में वे प्यारे लगते हैं।

गुरु सतिगुरु बोहलु हरि नाम का वडभागी सिख गुण सांझ करावहि ॥ तिना गुरसिखा कंउ हउ वारिआ जो बहदिआ उठदिआ हरि नामु धिआवहि ॥११॥

पद्अर्थ: बोहलु = दानों का ढेर, फसल की सफाई करके तूड़ी वगैरह अलग कर के साफ किया हुआ अनाज, भण्डार। सांझ = भाईवाली।11।

अर्थ: गुरु सतिगुरु हरि के नाम का (जैसे) बोहल है, बड़े भाग्यशाली सिख आ के गुणों की सांझ पाते हैं; सदके हूँ उन गुरसिखों से, जो बैठते-उठते (भाव, हर वक्त) हरि का नाम स्मरण करते हैं।11।

सलोक मः ३ ॥ नानक नामु निधानु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ मनमुख घरि होदी वथु न जाणनी अंधे भउकि मुए बिललाइ ॥१॥

अर्थ: हे नानक! नाम (ही असल) खजाना है, जो सतिगुरु के सन्मुख हो के मिल सकता है; अंधे मनमुख (हृदय-रूप) घर में होती (इस) वस्तु को नहीं पहचानते, और (बाहर माया के पीछे) बिलकते और भौंकते मर जाते हैं।1।

मः ३ ॥ कंचन काइआ निरमली जो सचि नामि सचि लागी ॥ निरमल जोति निरंजनु पाइआ गुरमुखि भ्रमु भउ भागी ॥ नानक गुरमुखि सदा सुखु पावहि अनदिनु हरि बैरागी ॥२॥

पद्अर्थ: कंचन = सोना। नामि = नाम से, हरि नाम द्वारा। निरंजनु = माया से रहत प्रभु। बैरागी = वैराग वान हो के।2।

अर्थ: जो शरीर सच्चे नाम के द्वारा सच्चे प्रभु में जुड़ा हुआ है, वह सोने जैसा शुद्ध है; उसको निर्मल ज्योति (रूपी) माया से रहित प्रभु मिल जाता है और सतिगुरु के सन्मुख हो के उसका भ्रम और डर दूर हो जाता है; हे नानक! सतिगुरु के सन्मुख मनुष्य हर वक्त परमात्मा के वैरागी हो के सदा सुख पाते हैं।2।

पउड़ी ॥ से गुरसिख धनु धंनु है जिनी गुर उपदेसु सुणिआ हरि कंनी ॥ गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ तिनि हंउमै दुबिधा भंनी ॥

पद्अर्थ: कंनी सुणिआ = ध्यान से सुना है। तिनि = उस ने। भंनी = नाश की है।

अर्थ: धन्य हैं वे गुरसिख जिन्होंने सतिगुरु का उपदेश ध्यान से सुना है; सतिगुरु ने (जिसके भी हृदय में) नाम दृढ़ किया है उसने अहंकार और दुविधा (हृदय में से) तोड़ डाली है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh