श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 591 बिनु हरि नावै को मित्रु नाही वीचारि डिठा हरि जंनी ॥ जिना गुरसिखा कउ हरि संतुसटु है तिनी सतिगुर की गल मंनी ॥ अर्थ: प्रभु का स्मरण करने वाले (गुरसिखों) ने ये बात विचार के देख ली है कि परमात्मा के नाम के बिना कोई (सच्चा) मित्र नहीं है; जिस गुरसिखों पर प्रभु प्रसन्न होता है, वह सतिगुरु की शिक्षा पे चलते हैं। जो गुरमुखि नामु धिआइदे तिनी चड़ी चवगणि वंनी ॥१२॥ पद्अर्थ: वंनी = रंगत।12। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख हो के नाम जपते हैं, उनको (प्रेम की) चौगुनी रंगत चढ़ती है।12। सलोक मः ३ ॥ मनमुखु काइरु करूपु है बिनु नावै नकु नाहि ॥ अनदिनु धंधै विआपिआ सुपनै भी सुखु नाहि ॥ नानक गुरमुखि होवहि ता उबरहि नाहि त बधे दुख सहाहि ॥१॥ पद्अर्थ: करूपु = खराब मुंह वाला।1। अर्थ: मन के अधीन मनुष्य डरपोक और बद्शकल होता है, नाम के बिना कहीं उसे आदर नहीं मिलता, हर वक्त माया के चक्कर में फंसा रहता है और (इसके कारण) उसे सपने में भी सुख नहीं होता। हे नानक! मनमुख मनुष्य अगर सतिगुरु के सन्मुख हो जाए तो (जंजाल से) बच जाते हैं, वरना (माया के मोह में) बँधे हुए दुख सहते हैं।1। मः ३ ॥ गुरमुखि सदा दरि सोहणे गुर का सबदु कमाहि ॥ अंतरि सांति सदा सुखु दरि सचै सोभा पाहि ॥ नानक गुरमुखि हरि नामु पाइआ सहजे सचि समाहि ॥२॥ अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख होए हुए मनुष्य दरगाह में सदा सुशोभित होते हैं (क्योंकि) वे सतिगुरु का शब्द कमाते हैं; उनके हृदय में सदा शांति व सुख होता है, (इस के कारण) सच्ची दरगाह में शोभा पाते हैं। हे नानक! सतिगुरु के सन्मुख मनुष्यों को हरि का नाम मिला हुआ होता है, (इसलिए) वे सहज ही सच्चे में लीन हो जाते हैं।2। पउड़ी ॥ गुरमुखि प्रहिलादि जपि हरि गति पाई ॥ गुरमुखि जनकि हरि नामि लिव लाई ॥ गुरमुखि बसिसटि हरि उपदेसु सुणाई ॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख हो के प्रहलाद ने हरि का नाम जप के ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त की, सतिगुरु के सन्मुख हो के जनक ने हरि के नाम में तवज्जो जोड़ी, सतिगुरु के सन्मुख हो के वशिष्ट (मुनि) ने हरि का उपदेश (और लोगों को) सुनाया। बिनु गुर हरि नामु न किनै पाइआ मेरे भाई ॥ गुरमुखि हरि भगति हरि आपि लहाई ॥१३॥ पद्अर्थ: लहाई = दी, ढूँढवाई।13। अर्थ: हे मेरे भाई! सतिगुरु के बिना किसी ने नाम नहीं पाया। सतिगुरु के सन्मुख हुए मनुष्य को प्रभु ने अपनी भक्ति स्वयं बख्शी है।13। सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर की परतीति न आईआ सबदि न लागो भाउ ॥ ओस नो सुखु न उपजै भावै सउ गेड़ा आवउ जाउ ॥ नानक गुरमुखि सहजि मिलै सचे सिउ लिव लाउ ॥१॥ अर्थ: जिस मनुष्य का सतिगुरु पर भरोसा नहीं बना और सतिगुरु के शब्द में जिसका मन न लगा उसे कभी सुख नहीं, चाहे (गुरु के पास) सौ बार आए जाए। हे नानक! अगर गुरु के सन्मुख हो के सच्चे में लगन जोड़ें तो प्रभु सहज ही मिल जाता है।1। मः ३ ॥ ए मन ऐसा सतिगुरु खोजि लहु जितु सेविऐ जनम मरण दुखु जाइ ॥ सहसा मूलि न होवई हउमै सबदि जलाइ ॥ कूड़ै की पालि विचहु निकलै सचु वसै मनि आइ ॥ अंतरि सांति मनि सुखु होइ सच संजमि कार कमाइ ॥ पद्अर्थ: जनम मरण = पैदा होने से मरने तक का। सहसा = तौखला, संशय, शंका। मूलि = कभी भी। पालि = दीवार। मनि = मन में। संजमि = जुगति से। अर्थ: हे मेरे मन! ऐसे सतिगुरु ढूँढ ले, जिसकी सेवा करने से तेरा सारी उम्र का दुख दूर हो जाए। कभी बिल्कुल ही चिन्ता ना हो और (उस सतिगुरु के) शब्द से तेरा अहंकार जल जाए; तेरे अंदर से झूठ की दीवार हट जाए और मन में सच्चा हरि आ बसे, और, हे मन! (उस सतिगुरु के बताए हुए) संयम में सच्चे कर्म करके तेरे अंदर शांति और सुख (का वासा) हो जाए। नानक पूरै करमि सतिगुरु मिलै हरि जीउ किरपा करे रजाइ ॥२॥ पद्अर्थ: करमि = बख्शिश से। रजाइ = (अपनी) रजा के मुताबिक।2। अर्थ: हे नानक! जब हरि अपनी रजा में मेहर करता है तब (ऐसा) सतिगुरु पूरी कृपा से ही मिलता है।2। पउड़ी ॥ जिस कै घरि दीबानु हरि होवै तिस की मुठी विचि जगतु सभु आइआ ॥ तिस कउ तलकी किसै दी नाही हरि दीबानि सभि आणि पैरी पाइआ ॥ पद्अर्थ: दीबानु = हाकम। तलकी = अधीनता, गुलामी। दीबानि = हाकम ने। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में (सबका) हाकम प्रभु बसता हो, सारा संसार उसके वश में आ जाता है, उसे किसी की गुलामी नहीं होती, (बल्कि) परमात्मा हाकम ने सभी को ला के उसके चरणों में डाला (होता) है। माणसा किअहु दीबाणहु कोई नसि भजि निकलै हरि दीबाणहु कोई किथै जाइआ ॥ सो ऐसा हरि दीबानु वसिआ भगता कै हिरदै तिनि रहदे खुहदे आणि सभि भगता अगै खलवाइआ ॥ पद्अर्थ: तिनि = उस हरि ने। रहदे खुहदे = बाकी बचे हुए जो अभी तक भगतों के चरण लगने से झिझकते थे। आणि = ला के। खलवालिआ = खड़े कर दिए। अर्थ: मनुष्य की कचहरी में से तो मनुष्य भाग के कहीं खिसक सकता है, पर ईश्वर की हकूमत में से कोई भाग के कहाँ जाएगा? ऐसा हाकम हरि भक्तों के दिल में बसा हुआ है, उसने ‘बचे खुचे’ सारे जीवों को ला के भक्त जनों के आगे खड़ा कर दिया है (भाव, चरणों में ला डाला है)। हरि नावै की वडिआई करमि परापति होवै गुरमुखि विरलै किनै धिआइआ ॥१४॥ अर्थ: प्रभु की खास मेहर से ही प्रभु के नाम की उपमा (करने का गुण) प्राप्त होता है; सतिगुरु के सन्मुख हो के कोई विरला ही (नाम) स्मरण करता है।14। सलोकु मः ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे जगतु मुआ बिरथा जनमु गवाइ ॥ दूजै भाइ अति दुखु लगा मरि जमै आवै जाइ ॥ विसटा अंदरि वासु है फिरि फिरि जूनी पाइ ॥ नानक बिनु नावै जमु मारसी अंति गइआ पछुताइ ॥१॥ अर्थ: सतिगुरु के बताए राह पर चले बिना मानव जनम व्यर्थ गवा के संसार मुर्दे के समान है; माया के प्यार में बहुत कष्ट बना हुआ है और (इसमें ही) मरता है फिर पैदा होता है, आता है फिर जाता है; (जब तक जीता है, इसका विकारों के) गंद में वास रहता है, (मर के) पलट-पलट के जूनियों में पड़ता है; हे नानक! आखिरी समय पछताता हुआ जाता है (क्योंकि उस वक्त याद आता है) कि नाम के बिना जम सजा देगा।1। मः ३ ॥ इसु जग महि पुरखु एकु है होर सगली नारि सबाई ॥ सभि घट भोगवै अलिपतु रहै अलखु न लखणा जाई ॥ पद्अर्थ: पुरखु = पति, मर्द। सगली = सारी सृष्टि। सबाई = सारी। सभि घट = सारे शरीर। अलिपतु = अलग, निराला। अर्थ: इस संसार में पति एक परमात्मा ही है, और सारी सृष्टि (उसकी) स्त्रीयां हैं; परमात्मा पति सारे घटों को भोगता है (भाव, सारे शरीरों में व्यापक है) और निर्लिप भी है, इस अलख प्रभु की समझ नहीं पड़ती। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |