श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 592 पूरै गुरि वेखालिआ सबदे सोझी पाई ॥ पुरखै सेवहि से पुरख होवहि जिनी हउमै सबदि जलाई ॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सबदे = गुरु शब्द के द्वारा। सेवहि = स्मरण करते हैं। जिनी = जिस मनुष्यों ने। जलाई = जला दी है। अर्थ: (जिस मनुष्य को) पूरे सतिगुरु ने (उस अलख प्रभु के) दर्शन करवा दिए, उसको सतिगुरु के शब्द द्वारा समझ पड़ गई; जिस मनुष्यों ने शब्द के माध्यम से अहंकार दूर किया है, जो प्रभु पुरुख को जपते हैं, वे भी उस पुरुष का रूप हो जाते हैं। तिस का सरीकु को नही ना को कंटकु वैराई ॥ निहचल राजु है सदा तिसु केरा ना आवै ना जाई ॥ पद्अर्थ: कंटकु = काँटा। अर्थ: उस अलख हरि का कोई शरीक नहीं, ना ही कोई दुखी करने वाला (काँटा) उस का वैरी है; उसका राज सदा अटल है, ना वह पैदा होता है ना मरता है। अनदिनु सेवकु सेवा करे हरि सचे के गुण गाई ॥ नानकु वेखि विगसिआ हरि सचे की वडिआई ॥२॥ पद्अर्थ: विगसिआ = खिल रहा है।2। अर्थ: (सच्चा) सेवक उस सच्चे हरि की महिमा करके हर वक्त उसका स्मरण करता है; नानक (भी उस) सच्चे की महिमा देख के प्रसन्न हो रहा है।2। पउड़ी ॥ जिन कै हरि नामु वसिआ सद हिरदै हरि नामो तिन कंउ रखणहारा ॥ हरि नामु पिता हरि नामो माता हरि नामु सखाई मित्रु हमारा ॥ पद्अर्थ: हमारा = भाव, भक्त जनों का। अर्थ: जिस मनुष्यों के दिल में सदैव हरि नाम बसता है, उन्हें रखने वाला हरि का नाम ही होता है। (उन्हें विश्वास हो जाता है कि) हरि का नाम ही हमारा माता-पिता है और नाम ही हमारा सखा और मित्र है। हरि नावै नालि गला हरि नावै नालि मसलति हरि नामु हमारी करदा नित सारा ॥ हरि नामु हमारी संगति अति पिआरी हरि नामु कुलु हरि नामु परवारा ॥ पद्अर्थ: मसलति = सालाह। अर्थ: हरि के नाम से ही हमारी बातें, और नाम से ही सलाह हैं; नाम ही सदा हमारी सार लेता है; हरि का नाम ही हमारी प्यारी संगति है, और नाम ही हमारा कुल व परिवार है। जन नानक कंउ हरि नामु हरि गुरि दीआ हरि हलति पलति सदा करे निसतारा ॥१५॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में।15। अर्थ: दास नानक को भी गुरु ने (उस) हरि का नाम दिया है जो इस लोक में और परलोक में पार उतारा करता है।15। सलोकु मः ३ ॥ जिन कंउ सतिगुरु भेटिआ से हरि कीरति सदा कमाहि ॥ अचिंतु हरि नामु तिन कै मनि वसिआ सचै सबदि समाहि ॥ अर्थ: जिन्हें सतिगुरु मिला है, वे सदा हरि की महिमा करते हैं; चिन्ता से विहीन (करने वाले) हरि का नाम उनके मन में बसता है और वह सतिगुरु के सच्चे शब्द में लीन रहते हैं। कुलु उधारहि आपणा मोख पदवी आपे पाहि ॥ पारब्रहमु तिन कंउ संतुसटु भइआ जो गुर चरनी जन पाहि ॥ पद्अर्थ: मोख = (विकारों से) मोक्ष, मुक्ति। पदवी = दर्जा। पाहि = पा लेते हैं अर्थ: वह मनुष्य अपने कुल का उद्धार कर लेते हैं और खुद भी मुक्ति का रुतबा हासिल कर लेते हैं। जो मनुष्य सतिगुरु के चरणों में लगते हैं, उन पर परमात्मा प्रसन्न हो जाता है। जनु नानकु हरि का दासु है करि किरपा हरि लाज रखाहि ॥१॥ अर्थ: दास नानक (भी) उस हरि का दास है, हरि मेहर करके (अपने दास की) इज्जत रखता है।1। मः ३ ॥ हंउमै अंदरि खड़कु है खड़के खड़कि विहाइ ॥ हंउमै वडा रोगु है मरि जमै आवै जाइ ॥ अर्थ: अहंकार में रहने से मनुष्य के मन में अशांति बनी रहती है और उसकी उम्र इस अशांति में ही गुजर जाती है; अहंकार (मनुष्य के लिए) एक बहुत बड़ा रोग है (इस रोग में ही) मनुष्य मरता है, पैदा होता है, आता है फिर जाता है (भाव, जनम-मरन के चक्कर में पड़ा रहता है)। जिन कउ पूरबि लिखिआ तिना सतगुरु मिलिआ प्रभु आइ ॥ नानक गुर परसादी उबरे हउमै सबदि जलाइ ॥२॥ अर्थ: जिनके दिल में शुरू से ही (किए कर्मों के संस्कार-रूपी लेख) उकरे हुए हैं, उनको सतिगुरु मिलता है (और सतिगुरु के मिलने से) परमात्मा (भी) आ मिलता है; हे नानक! वह मनुष्य सतिगुरु के शब्द द्वारा अहंकार को दूर करके सतिगुरु की कृपा से (‘अहम् रोग’ से) बच जाते हैं।2। पउड़ी ॥ हरि नामु हमारा प्रभु अबिगतु अगोचरु अबिनासी पुरखु बिधाता ॥ हरि नामु हम स्रेवह हरि नामु हम पूजह हरि नामे ही मनु राता ॥ पद्अर्थ: अबिगतु = अव्यक्त, अदृष्ट। अगोचर = अ+गो+चर, इन्द्रियों की पहुँच से परे। बिधाता = पैदा करने वाला। अर्थ: जो हरि अदृष्य है, जो इन्द्रियों की पहुँच से परे है, नाश से रहित है, हर जगह व्यापक है और विधाता है, उसका नाम हमारा (रक्षक) है; हम उस हरि-नाम की सेवा करते हैं, नाम को पूजते हैं, नाम में ही हमारा मन रंगा हुआ है। हरि नामै जेवडु कोई अवरु न सूझै हरि नामो अंति छडाता ॥ हरि नामु दीआ गुरि परउपकारी धनु धंनु गुरू का पिता माता ॥ पद्अर्थ: अंति = आखिरी समय। गुरि = गुरु ने। अर्थ: हरि के नाम जितना मुझे और कोई नहीं सूझता, नाम ही आखिरी समय में छुड़वाता है। धन्य है उस परोपकारी सतिगुरु के माता-पिता, जिस गुरु ने हमें नाम बख्शा है। हंउ सतिगुर अपुणे कंउ सदा नमसकारी जितु मिलिऐ हरि नामु मै जाता ॥१६॥ पद्अर्थ: जाता = समझा, पहचाना।16। अर्थ: मैं अपने सतिगुरु को सदा नमस्कार करता हूँ, जिसके मिलने से मुझे हरि का नाम समझ आया है।16। सलोकु मः ३ ॥ गुरमुखि सेव न कीनीआ हरि नामि न लगो पिआरु ॥ सबदै सादु न आइओ मरि जनमै वारो वार ॥ मनमुखि अंधु न चेतई कितु आइआ सैसारि ॥ पद्अर्थ: कितु = किस लिए? सैसारि = संसार में। अर्थ: अंधे मनमुख ने सतिगुरु के सन्मुख हो के ना सेवा की, ना परमात्मा के नाम में उसका प्यार ही लगा, शब्द में रस भी न आया, (तभी तो) घड़ी-पल पैदा होता मरता है; अगर अंधा मनुष्य हरि को याद नहीं करता तो संसार में आने का भी क्या लाभ (उसने क्या कमाया)? नानक जिन कउ नदरि करे से गुरमुखि लंघे पारि ॥१॥ अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों पे मेहर की नजर करता है, वह सतिगुरु के सन्मुख हो के (संसार सागर से) पार उतरते हैं।1। मः ३ ॥ इको सतिगुरु जागता होरु जगु सूता मोहि पिआसि ॥ सतिगुरु सेवनि जागंनि से जो रते सचि नामि गुणतासि ॥ पद्अर्थ: गुणतासि = तासि+गुण, गुणों के खजाने उस प्रभु में। अर्थ: एक सतिगुरु ही सचेत है, और सारा संसार (माया के) मोह में तृष्णा में सोया हुआ है; जो मनुष्य सतिगुरु की सेवा करते हैं और गुणों के खजाने सच्चे नाम में रंगे हुए हैं, (वे) जागते हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |