श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 600 इहु मनूआ दह दिसि धावदा दूजै भाइ खुआइआ ॥ मनमुख मुगधु हरि नामु न चेतै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु भेटे ता नाउ पाए हउमै मोहु चुकाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: मनूआ = अल्लहड़ मन। दह दिसि = दसों दिशाओं में। दूजै भाइ = माया के मोह में। खुआइआ = राह से विछुड़ जाता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगधु = मूर्ख। भेटे = मिल जाए।3। अर्थ: हे भाई! ये अल्लहड़ मन माया के मोह में फंस के दसों दिशाओं में दौड़ता रहता है, और (जीवन के सही राह से) उखड़ा फिरता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य परमात्मा का नाम याद नहीं करता, अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है। पर जब उसे गुरु मिल जाता है तब वह हरि नाम की दाति हासिल करता है, और, अपने अंदर से माया का मोह और अहंकार दूर कर लेता है।3। हरि जन साचे साचु कमावहि गुर कै सबदि वीचारी ॥ आपे मेलि लए प्रभि साचै साचु रखिआ उर धारी ॥ नानक नावहु गति मति पाई एहा रासि हमारी ॥४॥१॥ पद्अर्थ: वीचारी = विचारवान (हो के)। प्रभि = प्रभु ने। साचै = सदा स्थिर रहने वाले ने। नावहु = नाम से ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। एहा = ये (नाम) ही। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।4। अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द के द्वारा विचारवान हो के परमात्मा के दास सदा स्थिर परमात्मा का सदा-स्थिर नाम-जपने की कमाई करते रहते हैं। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा ने स्वयं ही उनको अपने चरणों में मिला लिया होता है। वह सदा कायम रहने वाले प्रभु को अपने दिल में बसाए रखते हैं। हे नानक! (कह:) परमात्मा के नाम से ही ऊँची आत्मिक अवस्था और (अच्छी) बुद्धि प्राप्त होती है। परमात्मा का नाम ही हम (जीवों की) संपत्ति है।4।1। सोरठि महला ३ ॥ भगति खजाना भगतन कउ दीआ नाउ हरि धनु सचु सोइ ॥ अखुटु नाम धनु कदे निखुटै नाही किनै न कीमति होइ ॥ नाम धनि मुख उजले होए हरि पाइआ सचु सोइ ॥१॥ पद्अर्थ: कउ = को। सचु = सदा कायम रहने वाला। अखुटु = ना खतम होने वाला। किनै = किसी तरफ भी। धनि = धन से।1। अर्थ: (हे भाई! गुरु) भक्त जनों को परमात्मा की भक्ति का खजाना देता है, परमात्मा का नाम ऐसा धन है जो सदा कायम रहता है। हरि-नाम-धन कभी खत्म होने वाला नहीं, ये धन कभी खत्म नहीं होता, किसी से ये मूल्य भी नहीं लिया जा सकता (भाव, कोई मनुष्य इसे दुनियावी पदार्थों से खरीद भी नहीं सकता)। जिन्होंने ये सदा-स्थिर हरि-धन प्राप्त कर लिया, उन्हें इस नाम-धन की इनायत से (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।1। मन मेरे गुर सबदी हरि पाइआ जाइ ॥ बिनु सबदै जगु भुलदा फिरदा दरगह मिलै सजाइ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सबदी = शब्द से। सजाइ = दण्ड। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! गुरु के शब्द से ही परमात्मा मिल सकता है। शब्द के बिना जगत गलत रास्ते पर भटकता फिरता है (आगे परलोक में) प्रभु की दरगाह में दण्ड सहता है। रहाउ। इसु देही अंदरि पंच चोर वसहि कामु क्रोधु लोभु मोहु अहंकारा ॥ अम्रितु लूटहि मनमुख नही बूझहि कोइ न सुणै पूकारा ॥ अंधा जगतु अंधु वरतारा बाझु गुरू गुबारा ॥२॥ पद्अर्थ: देही = शरीर। वसहि = बसते हैं। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम धन। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अंधा = (माया के मोह में) अंधा। गुबारा = अंधेरा।2। अर्थ: हे भाई! जिस शरीर में काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार पाँच चोर बसते हैं (ये मनुष्य के अंदर) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-धन लूटते रहते हैं, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को ये बात समझ में नहीं आती। (जब सब कुछ लुटा के वे दुखी होते हैं तब) उनकी कोई पुकार नहीं सुनता (उनकी कोई सहायता नहीं कर सकता)। माया के मोह में अंधा हुआ जगत अंधों वाली करतूत ही करता रहता है, गुरु से बेमुख हो के (इसके आत्मिक जीवन में) अंधकार छाया रहता है।2। हउमै मेरा करि करि विगुते किहु चलै न चलदिआ नालि ॥ गुरमुखि होवै सु नामु धिआवै सदा हरि नामु समालि ॥ सची बाणी हरि गुण गावै नदरी नदरि निहालि ॥३॥ पद्अर्थ: विगुते = दुखी हो रहे हैं। किहु = कुछ भी। समालि = संभाल के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। निहालि = प्रसन्न, सुखी।3। अर्थ: ‘मैं बड़ा हूँ...ये धन-पदार्थ मेरा है’ - ये कह: कह के (माया-ग्रसित मनुष्य) दुखी होते रहते हैं। पर जगत से चलते वक्त कोई भी चीज किसी के साथ नहीं चलती। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह सदा परमात्मा के नाम को दिल में बसा के नाम स्मरण करता रहता है। वह सदा-स्थिर रहने वाली महिमा की वाणी के द्वारा परमात्मा के गुण गाता रहता है। परमात्मा की मेहर की नजर से वह सदा सुखी रहता है।3। सतिगुर गिआनु सदा घटि चानणु अमरु सिरि बादिसाहा ॥ अनदिनु भगति करहि दिनु राती राम नामु सचु लाहा ॥ नानक राम नामि निसतारा सबदि रते हरि पाहा ॥४॥२॥ पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की समझ। घटि = दिल में। अमरु = हुक्म। सिरि = सिर पर। अनदिनु = हर रोज। सचु = सदा कायम रहने वाला। लाहा = लाभ। नामि = नाम से। पाहा = पास, नजदीक।4। अर्थ: जिनके हृदय में परमात्मा का बख्शा हुआ ज्ञान सदा प्रकाश किए रखता है उसका हुक्म (दुनिया के) बादशाहों के सिर पर (भी) चलता है। वे हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भक्ति करते रहते हैं, वे हरि-नाम का लाभ कमाते रहते हैं जो सदा कायम रहता है। हे नानक! परमात्मा के नाम से संसार से पार-उतारा हो जाता है, जो मनुष्य गुरु के शब्द से हरि-नाम के रंग में रंगे रहते हैं, परमात्मा उनके नजदीक बसता है।4।2। सोरठि मः ३ ॥ दासनि दासु होवै ता हरि पाए विचहु आपु गवाई ॥ भगता का कारजु हरि अनंदु है अनदिनु हरि गुण गाई ॥ सबदि रते सदा इक रंगी हरि सिउ रहे समाई ॥१॥ पद्अर्थ: दासनि दासु = दासोंका दास, बहुत ही विनम्र स्वभाव वाला। आपु = स्वै भाव। गवाई = दूर कर के। हरि अनंदु = हरि (के मिलाप) का आनंद। कारजु = मुख्य काम। गाई = गा के। इक रंगी = एक रस।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके बहुत गरीबी स्वभाव वाला बनता है, वह परमात्मा को मिल जाता है। परमात्मा के भक्तों का मुख्य काम यही होता है कि वह (स्वै भाव गवा के) हर वक्त प्रभु की महिमा के गीत गा के उसके मिलाप का आनंद लेते हैं। भक्तजन गुरु के शब्द में सदा एक-रस रंगे रह के परमात्मा (की याद) में लीन रहते हैं।1। हरि जीउ साची नदरि तुमारी ॥ आपणिआ दासा नो क्रिपा करि पिआरे राखहु पैज हमारी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली। पैज = इज्जत। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! तेरी मेहर की निगाह (अपने सेवकों पर) सदा टिकी रहती है। हे प्यारे! तू अपने दासों पर कृपा करता रहता है, मेरी भी इज्ज़त रख। रहाउ। सबदि सलाही सदा हउ जीवा गुरमती भउ भागा ॥ मेरा प्रभु साचा अति सुआलिउ गुरु सेविआ चितु लागा ॥ साचा सबदु सची सचु बाणी सो जनु अनदिनु जागा ॥२॥ पद्अर्थ: सलाही = मैं महिमा करता रहूँ। हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ। सुआलिउ = सुंदर, सुंदरता का घर। अनदिनु = हर वक्त, हर रोज। जागा = सचेत।2। अर्थ: (हे प्रभु! अगर तेरी मेहर हो तो) मैं गुरु के शब्द में (जुड़ के) तेरी महिमा करता रहूँ। जो मनुष्य गुरु की मति पर चलता है उसका डर दूर हो जाता है। (हे भाई!) मेरा प्रभु सुंदर है, और सदा कायम रहने वाला है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसका चिक्त (उस सुंदर प्रभु में) मगन रहता है। (जिस मनुष्य के दिल में) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द, महिमा की वाणी (बसती है) वह मनुष्य हर वक्त (महिमा में) सचेत रहता है।2। महा ग्मभीरु सदा सुखदाता तिस का अंतु न पाइआ ॥ पूरे गुर की सेवा कीनी अचिंतु हरि मंनि वसाइआ ॥ मनु तनु निरमलु सदा सुखु अंतरि विचहु भरमु चुकाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: गंभीर = बड़े जिगरे वाला। अचिंतु = जिसे कोई चिन्ता नहीं। मंनि = मन में। अंतरि = दिल में।3। नोट: ‘तिस का’ में से शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा बड़े गहरे जिगरे वाला है, सदा ही (जीवों को) सुख देने वाला है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। जो मनुष्य पूरे गुरु की बताई हुई सेवा करता है, उसके मन में वह परमात्मा आ बसता है जिसे कोई चिन्ता सता नहीं सकती। उस मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है हृदय पवित्र हो जाता है, उसके हृदय में सदा सुख ही सुख है, वह अपने अंदर से सदा भटकना दूर कर लेता है।3। हरि का मारगु सदा पंथु विखड़ा को पाए गुर वीचारा ॥ हरि कै रंगि राता सबदे माता हउमै तजे विकारा ॥ नानक नामि रता इक रंगी सबदि सवारणहारा ॥४॥३॥ पद्अर्थ: मारगु पंथु = रास्ता। को = कोई विरला। कै रंगि = के प्रेम रंग में। माता = मस्त। नामि = नाम में। सवारणहारा = सवारने योग्य।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के मिलाप का रास्ता बड़ा कठिन है, कोई वह विरला मनुष्य ही वह रास्ता पाता है जो गुरु के शब्द की विचार करता है। वह मनुष्य प्रभु के प्रेम रंग में रंगा जाता है, गुरु के शब्द में मस्त रहता है, अपने अंदर से अहंकार आदि विकार दूर कर देता है। हे नानक! वह मनुष्य प्रभु के नाम में एक-रस रमा रहता है, जो गुरु के शब्द से उसका जीवन सँवार देता है।4।3। TOP OF PAGE |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |