श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 601 सोरठि महला ३ ॥ हरि जीउ तुधु नो सदा सालाही पिआरे जिचरु घट अंतरि है सासा ॥ इकु पलु खिनु विसरहि तू सुआमी जाणउ बरस पचासा ॥ हम मूड़ मुगध सदा से भाई गुर कै सबदि प्रगासा ॥१॥ पद्अर्थ: सालाही = मैं सालाहता रहूँ। जिचरु = जब तक। घट अंतरि = शरीर में। सासा = सांस, जिंद। जाणउ = मैं जानता हूँ। मुगध = मूर्ख। से = था।1। अर्थ: हे प्यारे प्रभु जी! (मेहर कर) जब तक मेरे शरीर में प्राण है, मैं सदा तेरी महिमा करता रहूँ। हे मालिक प्रभु! जब तू मुझे एक पल भर एक छिन भर बिसरता है, तो मैं (मेरे लिए जैसे) पचास साल बीत गए समझता हूँ। हे भाई! हम सदा से ही मूर्ख अंजान चले आ रहे थे, गुरु के शब्द की इनायत से (हमारे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है।1। हरि जीउ तुम आपे देहु बुझाई ॥ हरि जीउ तुधु विटहु वारिआ सद ही तेरे नाम विटहु बलि जाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बुझाई = समझ। विटहु = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! तू स्वयं ही (अपना नाम जपने की मुझे) समझ दे। हे प्रभु! मैं तुझसे सदके जाऊँ, मैं तेरे से कुर्बान जाऊँ। रहाउ हम सबदि मुए सबदि मारि जीवाले भाई सबदे ही मुकति पाई ॥ सबदे मनु तनु निरमलु होआ हरि वसिआ मनि आई ॥ सबदु गुर दाता जितु मनु राता हरि सिउ रहिआ समाई ॥२॥ पद्अर्थ: मुए = (विकारों से) मर सकते हैं। जीवाले = आत्मिक जीवन देता है। मुकति = विकारों से खलासी। आई = आ के। दाता = नाम की दाति देने वाला। जितु = जिस में।2। अर्थ: हे भाई! हम (जीव) गुरु के शब्द के द्वारा (विकारों से) मर सकते हैं, शब्द के द्वारा ही (विकारों को) मार के (गुरु) आत्मिक जीवन देता है, गुरु के शब्द में जुड़ने से ही विकारों से मुक्ति मिलती है। गुरु के शब्द से मन पवित्र होता है, और परमात्मा मन में आ बसता है। हे भाई! गुरु का शब्द (ही नाम की दाति) देने वाला है, जब शब्द में मन रंगा जाता है तो परमात्मा में लीन हो जाता है।2। सबदु न जाणहि से अंने बोले से कितु आए संसारा ॥ हरि रसु न पाइआ बिरथा जनमु गवाइआ जमहि वारो वारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा माहि समाणे मनमुख मुगध गुबारा ॥३॥ पद्अर्थ: से = वह लोग। कितु = किसलिए? वारो वारा = बार बार। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। गुबारा = अंधेरा।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते वह (माया के मोह में आत्मिक जीवन की ओर से) अंधे-बहरे हुए रहते हैं, संसार में आ के भी वे कुछ नहीं कमाते। उन्हें प्रभु के नाम का स्वाद नहीं आता, वे अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं। जैसे गंदगी के कीड़े गंदगी में ही टिके रहते हैं।, वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य (अज्ञानता के) अंधकार में ही (मस्त रहते हैं)।3। आपे करि वेखै मारगि लाए भाई तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जो धुरि लिखिआ सु कोइ न मेटै भाई करता करे सु होई ॥ नानक नामु वसिआ मन अंतरि भाई अवरु न दूजा कोई ॥४॥४॥ पद्अर्थ: आपे = खुद ही। करि = पैदा कर के। वेखै = संभालता है। धुरि = धुर दरगाह से। करता = कर्तार।4। अर्थ: पर, हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) प्रभु खुद ही (जीवों को) पैदा करके संभाल करता है, खुद ही (जीवन के सही) रास्ते पर डालता है, उस प्रभु के बिना और कोई नहीं (जो जीवों को रास्ता बता सके)। हे भाई! कर्तार जो कुछ करता है वही होता है, धुर दरगाह से (जीवों के माथे पर लेख) लिख देता है, उसे कोई और मिटा नहीं सकता। हे नानक! (कह:) हे भाई! (उस प्रभु की मेहर से ही उसका) नाम (मनुष्य के) मन में बस सकता है, कोई और ये दाति देने के काबिल नहीं है।4।4। सोरठि महला ३ ॥ गुरमुखि भगति करहि प्रभ भावहि अनदिनु नामु वखाणे ॥ भगता की सार करहि आपि राखहि जो तेरै मनि भाणे ॥ तू गुणदाता सबदि पछाता गुण कहि गुणी समाणे ॥१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। प्रभ भावहि = प्रभु को प्यारे लगते हैं। वखाणे = बखान के। सार = संभाल। करहि = तू करता है। मनि = मन में। सबदि = शब्द से। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण करके भक्ति करते हैं और परमात्मा को प्यारे लगते हैं। हे प्रभु! भक्तों की संभाल तू खुद करता है, तू स्वयं उनकी रक्षा करता है, क्योंकि वे तुझे अपने मन में प्यारे लगते हैं। तू उन्हें अपने गुण देता है, गुरु के शब्द द्वारा वे तेरे साथ सांझ डालते हैं। हे भाई! परमात्मा की महिमा कर करके (भक्त) गुणों के मालिक प्रभु में लीन रहते हैं।1। मन मेरे हरि जीउ सदा समालि ॥ अंत कालि तेरा बेली होवै सदा निबहै तेरै नालि ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: समालि = संभाल के, याद रख। बेली = मददगार। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा को सदा याद करता रह। आखिरी समय में परमात्मा ही तेरा मददगार बनेगा, परमात्मा सदा तेरे साथ साथ निबाहेगा। रहाउ। दुसट चउकड़ी सदा कूड़ु कमावहि ना बूझहि वीचारे ॥ निंदा दुसटी ते किनि फलु पाइआ हरणाखस नखहि बिदारे ॥ प्रहिलादु जनु सद हरि गुण गावै हरि जीउ लए उबारे ॥२॥ पद्अर्थ: दुसट चउकड़ी = दुष्टों का टोला। वीचारे = विचार के। दुसटी = चंदरी। किनि = किस ने? नखहि = नाखूनों से। बिदारे = फाड़ा गया। लए उबारे = उबार लिए।2। अर्थ: पर, हे भाई! बुरे मनुष्य सदा बुराई ही कमाते हैं, वे विचार करके (ये) नहीं समझते कि बुरी निंदा (आदि) से किसी ने कभी अच्छा फल नहीं पाया। हरणाकश्यप (ने भक्त को दुख देना शुरू किया, तो वह) नाखूनों से चीरा गया। परमात्मा का भक्त प्रहलाद सदा परमात्मा के गुण गाता था, परमात्मा ने उसको (नरसिंह रूप धारण कर के) बचा लिया।2। आपस कउ बहु भला करि जाणहि मनमुखि मति न काई ॥ साधू जन की निंदा विआपे जासनि जनमु गवाई ॥ राम नामु कदे चेतहि नाही अंति गए पछुताई ॥३॥ पद्अर्थ: आपस कउ = अपने आप को। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। विआपे = व्यस्त रहते हैं। जासनि = जाएंगे। गवाई = गवा के। अंति = आखिर को, अंत समय में।3। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की कोई अकल-शहूर नहीं होती, वे अपने आप को तो अच्छा समझते हैं पर नेक लोगों की निंदा करने में व्यस्त रहते हैं, वे अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं। वे परमात्मा का नाम कभी याद नहीं करते, आखिर हाथ मलते हुए (जगत से) चले जाते हैं।3। सफलु जनमु भगता का कीता गुर सेवा आपि लाए ॥ सबदे राते सहजे माते अनदिनु हरि गुण गाए ॥ नानक दासु कहै बेनंती हउ लागा तिन कै पाए ॥४॥५॥ पद्अर्थ: सबदे = शब्द में। राते = रंगे रहते हैं। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। गाए = गा के। तिन कै पाइ = उनके पैरों पर।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही भक्तों की जिंदगी कामयाब बनाता है, वह स्वयं ही उनको गुरु की सेवा में जोड़ता है, (इस तरह वह) हर वक्त परमात्मा की महिमा के गीत गुरु के शब्द (के रंग) में रंगे रहते हैं और आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं। दास नानक विनती करता है: मैं उन भक्तों के चरणों में लगता हूँ।4।5। सोरठि महला ३ ॥ सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥ आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै ॥ बिनु सतिगुर सुखु कदे न पावै भाई फिरि फिरि पछोतावै ॥१॥ पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। सखा = मित्र। बंधपु = रिश्तेदार। जि = जो। भाणै = मर्जी में, मर्जी अनुसार। विछुड़ि = विछुड़ के।1। अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य गुरु का सिख है, गुरु का मित्र है, गुरु का रिश्तेदार है, जो गुरु की रजा में चलता है। पर, जो मनुष्य अपनी मर्जी के मुताबक चलता है, वह प्रभु से विछुड़ के दुख सहता है। गुरु की शरण पड़े बिना मनुष्य कभी सुख नहीं पा सकता, और बार बार (दुखी हो के) पछताता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |